संत काव्य : निर्गुणोपासक ज्ञानमार्गी कवियों द्वारा रचा गया काव्य संत काव्य कहलाता है।
संत काव्य की प्रमुख प्रवृत्तियां (विशेषताएं)
1. अराध्या का स्वरूप - निर्गुण निराकार।
2. माया का खंडन - माया- ईश्वर की आभासी शक्ति जो सत् से असत् का और असत् से सत् का दर्शन करती है।
ठगनी क्यों नैना चमकावे। कबीरा तेरे हाथ न आवै।
रमैया की दुल्हन ने लूटो सारो बाजार। सुरपुर लूटो, नागपुर लूटो, तीनो लोक मंचों हाहाकार।
3. विवेक का आग्रह - ज्ञान पर जोर।
4. गुरु का महत्व - गुरु कुम्हार घट शिष्य है। घड़-घड़ काढ़े खोट। भीतर से रक्षा करें और बाहर मारे चोट।।
गुरु गोविंद दोउ खड़े काके लागूं पाय।
बलिहारी गुरु अपने जिन गोविंद दियो बताय। (कबीर)
5. आडंबर और कर्मकांडों का विरोध -
कंकड़ पाथड़ जोड़ी के मस्जिद लिये बनाय।
ता चढ़ी मूल्ला बांग दे क्या बहरा हुआ खुदाय।। (कबीर)
6. जाति प्रथा का विरोध :
जाति-पांति पूछै नहीं कोई, हरि को भजै सो हरि का होई (रामानंद)
जाति ने पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान।
मोल करो तलवार का, पड़ा रहने दो ग्यान।। (कबीर)
7. अनुभूति पर बल : मैं कहता हूं आंखिन देखी। तू कहता है कागद लेखी (कबीर)
8. निवृत्ति मूलक दर्शन : वैराग्य मार्गी
9. रहस्यवाद : शून्य के प्रति आध्यात्मिक रति रहस्यवाद कहलाता है। इनके काव्य में भावात्मक रहस्यवाद मिलता है। उदाहरण - राम मौर मैं राम की बहुरिया
10. संतो के काव्य में साधनात्मक रहस्यवाद अर्थात हठयोग की शब्दावली का प्रयोग हुआ है।
उदाहरण - आकाशै औधा कुआ पाताले पनिहारी।
संत काव्य के शिल्प पक्ष की विशेषता - भाषा - सधुक्कड़ी या खिचड़ी है। अलंकार - कम है, सप्रयास नहीं है। स्वाभाविक आ गए है।
छंद - दोहा, चौपाई, पद, कवित, सवैया।
संत काव्य के प्रमुख कवि और काव्य
कबीर - जन्म 1455 सवंत, मृत्यु 1575 सवंत।
कबीर का जन्म काशी में हुआ तथा मृत्यु मगहर (काशी) में हुई। कबीर का लालन-पालन नीरू ओर नीमा नामक जुलाहो ने किया। बनारस में रामानंद से शिष्यत्व प्राप्त हुआ। कबीर के नाम पर हिंदी में 65 रचनाएं है। श्यामसुंदर दास ने "कबीर ग्रंथावली" नाम से इसका प्रकाशन किया है। 'बीजक' कबीर की प्रमाणिक रचना है इसमें कबीर के उपदेशों को उसके शिष्य धर्मदास ने संकलित किया। बीजक के तीन भाग है - सखी, शब्द और रमैनी।
---> कबीर की रचनाओं में साधनात्मक रहस्यवाद मिलता है।
---> कबीर निर्गुण धारा के ज्ञानाश्रयी शाखा के प्रतिनिधि कवि थे।
----> कबीर आत्मिक उपासना अर्थात मन की पूजा पर विश्वास करते थे। अतः मंदिरों और मस्जिदों में पूजा करने तथा बाहरी कर्मकांड विधि विधानों को हेय और तिरस्कार की दृष्टि से देखा तथा विरोध किया। उसका कथन है -
पत्थर पूज हरि मिले तो मैं पूजू पहार।
ताते यह चाकी भली पीसि खाए संसार।।
----> कबीर का कला-पक्ष शिथिल है परंतु भाव पक्ष उत्कृष्ट है। कबीर के काव्य में ओज गुण, शांति एवं श्रृंगार रस पाया जाता है।
----> कबीर पर अद्वैतवाद का प्रभाव है। कबीर ने वैष्णव धर्म से अहिंसा का तत्व ग्रहण किया जो सूफी फकीरों को भी मान्य हुआ। हिंसा के लिए वे मुसलमानो को भी बराबर फटकारते रहे। सांप्रदायिक शिक्षा और सिद्धांत के उपदेश मुख्यतः 'साखी' के भीतर है जो दोहों में है। 'रमैनी' और 'शब्द' में गाने के पद है।
---> कबीर ने नाथपंथ से प्रभावित हठयोग की साधना इड़ा-पिंगला, सुषुम्ना आदि प्रतीकों के माध्यम से साधना-पद्धतियों का सहज निरूपण किया है।
---> बोली के ठेठ शब्दों के कारण हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कबीर को 'वाणी का डिक्टेटर' कहा है।
रैदास - जन्म काशी में हुआ। रामानंद के शिष्य थे। ये जाति के चमार थे। गुरु ग्रंथ साहिब में रैदास के 41 पद संग्रहित है।
दादू दयाल : जन्म अहमदाबाद में हुआ। बाद में ये नरैना (जयपुर) नामक स्थान पर अपने मत का प्रचार करने लगे।इसका सत्संग स्थल अलख दरीबा के नाम से प्रसिद्ध है। इनके शिष्यों में 'रज्जब और सुंदरदास' प्रसिद्ध है। 'हरडेवाणी' और अंगवधू' इसकी रचनाएं है।
सुंदर दास : ये दादूदयाल के शिष्य थे। ज्ञान समुद्र, सुंदर विलास इसकी रचनाएं है। निर्गुण कवियों में ये सर्वाधिक सुशिक्षित थे।