संप्रभुता के अधिवास की खोज राजनीति विज्ञान का एक अत्यंत महत्वपूर्ण और जटिल प्रश्न है। संप्रभुता के अधिवास का तात्पर्य यह है की संप्रभुता राज्य में कहां रहती है; अर्थात कौन व्यक्ति समूह राज्य की इच्छा को व्यक्त करते है। इस संबंध में प्रमुख रूप से निम्नलिखित विचारों का प्रतिपादन किया गया है :
संप्रभुता का अधिवास
(1) संप्रभुता का अधिवास राजा में है : 16वीं सदी तक राजतंत्रात्मक शासन व्यवस्थाओं में यह विचार प्रचलित था की संप्रभुता राज्य में निहित होती है। फ्रांस का शासक लुई चौदहवां कहा करता था कि "मैं ही राज्य हूं, मैं ही शासक हूं" परंतु लोकतंत्र की स्थापना के फलस्वरुप वर्तमान समय में इस सिद्धांत को स्वीकार नहीं किया जाता है।
(2) संप्रभुता जनता में निहित है : सर्वप्रथम रोमन विद्वान सिसरो द्वारा इस विचार का प्रतिपादन किया गया था की संप्रभुता जनता में निहित है, किंतु उपर्युक्त विचार उस समय की प्रवृत्तियों के विरुद्ध होने के कारण स्वीकार्य न हुआ। 16वीं और 17वीं सदी में यूरोप में जन-आंदोलन आरंभ हो गया और इस समय लॉक तथा रूसो जैसे संविदावादियों द्वारा इस बात का प्रतिपादन किया गया की शासन जनस्वीकृति पर आधारित होता है और संप्रभुता जनता में निहित होती है।
फ्रांस एवं अमेरिका की क्रांति और जैफरसन जैसे विद्वानों द्वारा इस विचार को पुष्टि प्रदान की गई और वर्तमान समय में यह विचार अत्यंत लोकप्रिय भी है। किंतु व्यवहार में इस सिद्धांत को स्वीकार करने में अनेक कठिनाइयां आती है, जिनमें कुछ इस प्रकार है :
प्रथम : जन-समुदाय को संप्रभु नहीं माना जा सकता, क्योंकि जन-समुदाय असंगठित होता है लेकिन संप्रभुता आवश्यक रूप से संगठित होती है और एकता उसका अनिवार्य लक्षण है।
दूसरा : निर्वाचकों को भी संप्रभु नहीं माना जा सकता, क्योंकि उनकी संख्या संपूर्ण जनता का एक बहुत ही छोटा भाग होती है। इसके अतिरिक्त जनता के मत या जनमत को राजनीतिक संप्रभु माना जा सकता है, वैधानिक संप्रभु नहीं।
(3) संप्रभुता संविधान निर्मात्री सभा में है : 16वीं सदी के कुछ प्रतिभाशाली न्यायविदों ने इस बात का प्रतिपादन किया की संप्रभुता संविधान निर्मात्री सभा में निहित होती है। इस विचार के अनुसार देश के सर्वोच्च कानून का निर्माण करने वाली सभा को ही संप्रभु कहा जा सकता है। परंतु इस विचार के विरुद्ध भी निम्नलिखित बातें कही जाती है :
प्रथम : संप्रभुता का एक प्रमुख लक्षण उसका स्थायित्व है, परंतु लगभग सभी राज्यों में संविधान-निर्मात्री सभा स्थायी नहीं होती है।
दूसरा : संविधान-निर्मात्री सभा को वैधानिक संप्रभु कहा जा सकता है, राजनीतिक संप्रभु नहीं। यद्यपि वैधानिक संप्रभु का भी अपना महत्व है किंतु व्यावहारिक दृष्टि से अंतिम रूप में तो राजनीतिक संप्रभु की सर्वोच्च होता है।
(4) संप्रभुता का अधिवास विधान मंडल में है : आधुनिक युग के कुछ विद्वानों का मत है की संप्रभुता का अधिवास राज्य के विधान मंडल में है, क्योंकि कार्यपालिका और न्यायपालिका तो विधानमंडल की इच्छा का ही पालन करती है, परंतु इस विचार के विरुद्ध भी तर्क दिए जाते है :
प्रथम : यह बात असत्य हैं कि विधानमंडल ही कानूनों का एकमात्र निर्माता होता है और उसकी शक्तियां असिमित है। व्यवहार में विधानमंडल की शक्तियां जनमत, निर्वाचन, रीति- रिवाज, धार्मिक नियम, संविधान आदि अनेक बातों में सीमित है।
द्वितीय : संघात्मक राज्यो में जहां पर की संविधान आवश्यक रूप से लिखित और कठोर होता है, यह बात लागू नहीं होती है। संघात्मक राज्य में शक्ति-विभाजन के कारण विधान मंडल की शक्तियां सरकार के अन्य उपकरणों के अधिकारों से सीमित हो जाती है।
संप्रभुता का निवास राज्य में विधि निर्माण करने वाली समस्त संस्थाओं के योग में है। गैटेल जैसे कुछ विद्वानों ने इस बात का प्रतिपादन किया है की संप्रभुता उन समस्त संस्थाओं के योग में निवास करती है जो विधि निर्माण के कार्य में भाग लेती है। गैटेल ने इन संस्थाओं का विभाजन निम्न प्रकार से किया है :
(क) प्रतिनिध्यात्मक व्यवस्थाएं - राष्ट्रीय, राजकीय तथा स्थानीय।
(ख) न्यायालय - जब वे कानून का निर्माण करते हैं।
(ग) कार्यपालिका - जब वह अध्यादेश जारी करती है।
(घ) निर्वाचक मंडल - जब वे लोक निर्णय और आरंभक द्वारा अपनी शक्ति का प्रयोग करते हों।
(ड़) सम्मेलन व सभाएं - संविधान परिवर्तन या नवीन संविधान के निर्माण का कार्य करते हैं।
गैटेल का यह विचार उपर्युक्त चारों ही सिद्धांतों का समन्वय है। इसके अंतर्गत एक प्रकार से स्वयं राज्य को संप्रभु माना गया है और सरकार के विभिन्न अंग व्यवहार में इस संप्रभु शक्ति का प्रयोग करने वाले हैं। इस सिद्धांत के अंतर्गत लोक प्रभुता, वैधानिक प्रभुता और राजनीतिक संप्रभुता सभी को उनका उचित स्थान प्रदान कर दिया गया है, अत: यह विचार ही स्वीकार्य है।
प्रभुसता की सीमाएं
यद्यपि कानूनी दृष्टि से राज्य की संप्रभुता असीमित होती है, किंतु व्यवहार में उस पर अनेक प्रतिबंध और सीमाएं होती है। संप्रभुता की इन सीमाओं का उल्लेख निम्न प्रकार है :
(1) प्राकृतिक कानून और देवी इच्छा : राज्य की संप्रभुता प्राकृतिक कानून और देवी इच्छा से सीमित होती है। ईश्वर के अस्तित्व का विचार शासन की शक्ति को मर्यादित कर देता है।
(2) लोकमत : कोई भी संप्रभु अधिक समय तक लोकमत की अवहेलना नहीं कर सकता। लोकमत की अवहेलना संप्रभु के विरुद्ध विद्रोह को जन्म दे देगी।
(3) रीति-रिवाज व परंपराएं - समाज में प्रचलित रीति-रिवाज और परंपराएं भी राज्य की संप्रभुता को कुछ सीमा तक सीमित कर देती है।
(4) नैतिक व सदाचार के नियम : संप्रभु के लिए नैतिकता व सदाचार के नियमों का सम्मान करना भी आवश्यक हो जाता है।
(5) अन्य समुदायों का अस्तित्व : मानव जीवन में धार्मिक आर्थिक और रक्त संबंधी समुदायों का भी महत्व है तथा व्यवहार में राज्य को अनेक बार इन समुदायों का अस्तित्व स्वीकार करना होता है। लास्की के इस कथन में आंशिक सत्यता है, 'अपने-अपने क्षेत्र में ये समुदाय स्वयं राज्य से कम संप्रभु नहीं है।'
(6) अंतर्राष्ट्रीय कानून और सन्धियां : सैद्धांतिक दृष्टि से संप्रभुता असीमित है, लेकिन व्यवहार में संप्रभु के लिए सामान्यतया अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में व्यवहार के सर्वमान्य सिद्धांतों सन्धियों और संयुक्त राष्ट्र जैसे अंतर्राष्ट्रीय संगठन के निर्देशों की अवहेलना कर पाना संभव नहीं होता।
वस्तुत: सिद्धांत में संप्रभुता असीमित है, लेकिन व्यवहार में संप्रभुता की कुछ सीमाएं अवश्य ही है।
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