रासो काव्य परंपरा में पृथ्वीराज रासो का स्थान
पृथ्वीराज रासो चंद्रवरदाई की पृथ्वीराज चौहान के बारे में लिखी गई वीर एवं श्रृंगार रस प्रधान रचना है। यह एक महाकाव्य और चरित्र काव्य है। पृथ्वीराज रासो ग्रंथ से पहले के और बाद के ग्रंथ भी पृथ्वीराज रासो की बराबरी करने में समर्थ नहीं है। इसमें शांत रस के अतिरिक्त कई रसों का वर्णन है। यह भाव पक्ष एवं कला पक्ष दोनों दृष्टियों से सर्वाधिक महत्व का ग्रंथ है। इसमें 69 सर्ग (समय), 68 प्रकार के छंद है। डॉ. श्यामसुंदर दास ने इसे रामचरितमानस प्रबंध काव्य की तरह महत्वपूर्ण बतलाया है।
पृथ्वीराज रासो के चार संस्करण हैं :
- वृहद संस्करण - 16306 छंद, 69 सर्ग (समय) - उदयपुर संग्रहालय में।
- मध्यम संस्करण - 7000 छंद - अबोहर और बीकानेर संग्रहालय में।
- लघु संस्करण - 3500 छंद - बीकानेर संग्रहालय में।
- लघुतम संस्करण - 1300 छंद - अमरचंद नाहटा (बीकानेर) के पास।
पृथ्वीराज रासो की प्रामाणिकता पर विचार
विवादास्पद विषय - आदिकाल के महाकाव्य पृथ्वीराज रासो की प्रामाणिकता और अप्रामाणिकता को लेकर विद्वानों में बड़ा विवाद रहा है। कर्नल टॉड ने इसे प्रमाणिक रचना मानकर इसका अंग्रेजी अनुवाद किया था। डॉ. वूलर को जयानक द्वारा रचित 'पृथ्वीराज विजय' नामक संस्कृत काव्य मिला जिसकी घटनाएं उसे अधिक शुद्ध जान पड़ी। इससे उन्हें रसों की प्रामाणिकता पर संदेह हुआ। जोधपुर के कविराज मुरारीदीन और उदयपुर के कविराज श्यामल दास ने भी इसकी प्रामाणिकता पर संदेश व्यक्त किया। डॉक्टर गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने युक्तिपूर्ण इसे अप्रमाणिक रचना बताया।
रासो को अप्रमाणिक मानने वालों के तर्क
पृथ्वीराज रासो को अप्रामाणिक मानने वाले विद्वानों ने कहा है कि इसमें घटना वैषम्य, काल वैषम्य और भाषा संबंधित अव्यवस्था है। उदाहरण के लिए रासो में परमार, चालुक्य और चौहान क्षत्रियों को अग्निवंशी बताया गया। जबकि सूर्यवंशी थे। इसमें वर्णित पृथ्वीराज की माता, माता का वशं, सामंतों के नाम इतिहास की दृष्टि से उचित नहीं है। रासो में पृथ्वीराज की माता का नाम कमला बताया गया है, जबकि उसका नाम कर्पूरी देवी था। ओझा जी ने रासो में वर्णित पृथ्वीराज और जयचंद की शत्रुता तथा संयोगिता स्वयंवर की बात को गलत बताया है। इसी प्रकार शहाबुद्दीन गौरी पृथ्वीराज द्वारा नहीं, गख्खरों द्वारा मारा गया था। रासो में वर्णित पृथ्वीराज की जन्म मरण की तिथियां गलत है। रासो में अरबी, फारसी के शब्द मिलते है जबकि चंद्रवरदाई के समय वे प्रयोग में ही नहीं आते थे। शुक्ला जी ने रासो को भाषा एवं साहित्य की दृष्टि से काम की रचना नहीं माना।
रसो को अप्रमाणिक मानने वाले विद्वान - श्यामसुंदर दास, कविराज मुरारीदान, गौरीशंकर हीराचंद ओझा, वूलर, मॉरीसन, रामचंद्र शुक्ल, रामकुमार वर्मा।
रासो के प्रामाणिकता के पक्ष में तर्क
रासो को प्रमाणिक रचना मानने वालों का तर्क है कि रासो की लघुतम प्रति मिलने पर लगाए दोष निराधार प्रतीत होते हैं। डॉक्टर दशरथ शर्मा रासो को अप्रमाणिक रचना नहीं मानते।आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी इसे अर्द्धप्रामाणिक रचना मानते हैं और इस बारे में इन विद्वानों ने तर्क दिए हैं। जो बातें अनैतिहासिक बताई गई है वे कथानक-रूढ़ियों की परंपरा के पालन के लिए कही गई है। रासो पूर्णतः अप्रमाणिक रचना नहीं है। इतना अवश्य है कि उसका अभी मूल रूप प्राप्त नहीं हुआ।
रसो को प्रमाणिक मानने वाले विद्वान - श्यामसुंदर दास, मथुरादास दीक्षित, मोहनलाल विष्णु लाल पांड्या, मिश्र बंधु, मोतीलाल मेनारिया, कर्नल टॉड।
रासो को अर्द्ध प्रमाणिक मानने वाले विद्वान - डॉ. सुनिति कुमार चटर्जी, मुनि जिन विजय, अमरचंद नाहट, डॉ. दशरथ शर्मा, डॉ. गोपीनाथ शर्मा, हजारी प्रसाद द्विवेदी।
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