भक्ति शब्द का अर्थ भक्ति : (1) भक्ति भज्+क्तिन से बना है। जहां भज् का अर्थ है अखंड स्मरण या भजन।
(2) भज् धातु का दूसरा अर्थ है पृथकत्व या अलगाव अर्थात भक्ति वह मन स्थित है जिसमें भगवान से एकाकार होते हुए भी पृथकत्व बना रहता है।
अर्थात् वह पद्धती जो द्वैताद्वैत मयी साधना बताती हो वह साधना भक्ति कहलाती है। शुक्ल जी ने भक्ति की परिभाषा दी है, "श्रद्धा और प्रेम के योग का नाम भक्ति है।"
शुक्ल के अनुसार, "भक्ति धर्म की रसात्मक अनुभूति का नाम है।"
भक्ति आंदोलन के उदय के कारण
विद्वान | उदय के कारण |
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आचार्य रामचंद्र शुक्ल | इस्लाम की विजय व हिंदुओं की पराजीत वृत्ति |
वैबर, कीथ, ग्रियसन | ईसाई धर्म की देन |
डॉ. ताराचंद, हुमायूं, कबीर, आबिद हुसैन | मुस्लिम संस्कृति का असर |
गंगाधर तिलक, कृष्ण स्वामी अंयकर, डॉ. एच. राय चौधरी | भारतीय दर्शन का उपजीव्य |
डॉ. राम रतन भटनागर | पौराणिक धर्म का पुनरुत्थान |
डॉ. सत्येंद्र | द्राविडों से |
डॉ. भंडारकर | वैदिक साहित्य से |
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी | दक्षिण के वैष्णव मतवाद से |
डॉ. नगेंद्र | वैदिक एवं द्रविड़ संस्कृतियों के योग से |
भक्ति आंदोलन उद्भव और विकास
श्वेता श्वेतर उपनिषद् में भक्ति शब्द का उल्लेख मिलता है। आठवीं शताब्दी में शंकराचार्य ने अद्वैतवाद मत का प्रवर्तन किया। जिससे भक्ति पर रोक लगाई गई। शंकराचार्य के अद्वैतवाद को खंडित कर श्री संप्रदाय के प्रथम आचार्य रघुनाथाचार्य ने भक्ति का महत्व प्रतिपादित किया। इनके बाद श्री संप्रदाय में रामानुजाचार्य हुए जिन्होंने विशिष्टाद्वैतवाद मत का प्रवर्तन किया। इस मत के अनुसार आत्मा और परमात्मा एक है किंतु शक्ति व गुण की दृष्टि से सम्मान नहीं है।
ब्रह्म संप्रदाय के मधवाचार्य ने द्वैतवाद का प्रवर्तन किया जिसके अनुसार सृष्टि और जीव ब्रह्मा से उत्पन्न है पर ब्रह्मा स्वतंत्र है और जीव परतंत्र है।
निंबार्काचार्य ने सनक संप्रदाय की स्थापना की और द्वैताद्वैतवाद मत का प्रवर्तन किया।
रुद्र संप्रदाय के विष्णु स्वामी ने शुद्वाद्वैतवाद मत का प्रवर्तन किया। वल्लभाचार्य ने शुद्धाद्वैतवाद को अपनाया और आगे चलकर पुष्टिमार्ग का परिवर्तन किया। पुष्टि का अर्थ होता है - भगवान का अनुग्रह। पुष्टिमार्ग के अनुयायी आत्म समर्पण के द्वारा अपने अराध्य की पुष्टि प्राप्त करते है।
भक्ति के कई रूप है जैसे - शांत, दास्य, संख्य, वात्सल्य ,माधुर्य भक्ति के अंतर्गत वैधी भक्ति होती है जिसमें शास्त्रीय नियम होते है। इसी प्रकार नवधा भक्ति में स्वर्ण कीर्तन, स्मरण पादसेवन, अर्चन, वंदन, संख्य, दास्य, निवेदन ये नौ विधाए आती है। इसी प्रकार नारद भक्ति सूत्र में भक्ति के 11 स्वरूपों की चर्चा की गई है।
हिंदी भक्ति काल को दो भागों में बांटा जा सकता है :
1. निर्गुण ज्ञानाश्रयी शाखा 2. सगुण भक्ति शाखा
(1) निर्गुण भक्ति - निर्गुण का अर्थ है - गुणातीत होना या विरोधी गुणों का समवाय निर्गुण कहलाता है।
निर्गुण भक्ति धारा के भी दो भाग है : निर्गुण ज्ञानाश्रयी शाखा (संत काव्य) और निर्गुण प्रेमाश्रयी शाखा (सूफी काव्य)
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