• संविधानवाद का अर्थ / संविधानवाद क्या है
संविधानवाद उन विचारों व सिद्धांतों की ओर संकेत करता है, जो उस संविधान का विवरण व समर्थन करते हैं, जिनके माध्यम से राजनीतिक शक्ति पर प्रभावशाली नियंत्रण स्थापित किया जा सके।यह संविधान पर आधारित विचारधारा है, जिसका मूल अर्थ यही है कि शासन संविधान में लिखित नियमों व विधियों के अनुसार ही संचालित हो व उस पर प्रभावशाली नियंत्रण स्थापित रहे, जिससे वे मूल्य व राजनीतिक आदर्श सुरक्षित रहें जिनके लिए समाज राज्य के बंधन स्वीकार करता है। परंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि संविधान के नियमों के अनुसार शासन संचालन मात्र ही संविधानवाद है।
इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि संविधानवाद शासन की वह पद्धति है जिसमें शासन की आस्थाओं, मूल्यों व आदर्शों को परिलक्षित करने वाले संविधान के नियमों से ही शासकों को प्रतिबंधित व सीमित रखा जाए, जिससे राजनीतिक व्यवस्था की मूल आस्थाएं सुरक्षित रहें और व्यवहार में हर व्यक्ति को उपलब्ध हो सके।
संक्षेप में संविधानवाद उस निष्ठा का नाम है जो मनुष्य संविधान में निहित शक्ति में रखते हैं। जिससे सरकार व्यवस्थित बनी रहती है अर्थात वह निष्ठा व आस्था की शक्ति जिसमें सुसंगठित राजनीतिक सता नियंत्रित रहती है 'संविधान' है।
• संविधानवाद का जनक
संविधानवाद का जनक पाश्चात्य राजनीतिक विचारक अरस्तू (Aristotle) को माना जाता है।• संविधानवाद की अवधारणाएं
1. संविधानवाद की पाश्चात्य अवधारणासंविधानवाद की पाश्चात्य अवधारणा को उदारवादी लोकतांत्रिक अवधारणा भी कहा जाता है। यहां साध्य 'व्यक्ति की स्वतंत्रता' व साधन 'सीमित सरकार' को माना गया है। एक प्रकार से यह राज्य व व्यक्ति के बीच समन्वयात्मक व सहजीवी दृष्टिकोण को स्वीकार करता है। यहां व्यक्तिगत स्वच्छंदता व राज्य निरंकुशता दोनों को अस्वीकार किया गया है।
किंतु समन्वयवादी दृष्टिकोण के बावजूद राज्य शक्ति को संस्थात्मक व प्रक्रियात्मक प्रतिबंधों के आधार पर नियंत्रित करने पर अधिक बल दिया गया है। चूंकि उदारवादी लोकतंत्र का साध्य व्यक्ति है और साधन राज्य शक्ति। अतः यहां इस बात पर बल दिया जाता है कि साध्य पर साधन हावी न होने पाएं। पाश्चात्य अवधारणा इस साध्य की प्राप्ति हेतु निम्न साधनों का प्रयोग करती है -
- सीमित व उत्तरदाई सरकार
- विधि का शासन
- मौलिक अधिकारों की व्यवस्था
- स्वतंत्र एवं निष्पक्ष न्यायपालिका
- शक्ति पृथक्करण और शक्ति विभाजन
- नियतकालिक व नियमित निर्वाचन व्यवस्था
- राजनीतिक दलों की उपस्थिति
- प्रेस की स्वतंत्रता
- सत्ता परिवर्तन हेतु संवैधानिक उपायों को स्वीकृति
- आर्थिक समानता व सामाजिक न्याय पर बल।
2. संविधानवाद की साम्यवादी अवधारणा
संविधानवाद की साम्यवादी अवधारणा को मार्क्सवादी अवधारणा भी कहा जाता है। मार्क्सवाद जिस पर पूरा साम्यवादी भवन खड़ा है उसकी कुछ आधारभूत मान्यताएं हैं।
मार्क्सवाद इस बात को लेकर चलता है कि संपूर्ण व्यवस्था के मूल में आर्थिक घटक कार्य करता है। आर्थिक घटक से तात्पर्य उत्पादन प्रणाली से है, जिसमें दो बातें हैं एक उत्पादन के साधन और दूसरे उत्पादन संबंधी जिस वर्ग के हाथ में उत्पादन के साधन होते हैं वहीं शासन करता है। सामाजिक, राजनीतिक सभी व्यवस्थाएं उसी के अनुरूप चलती हैं। राज्य को शासक वर्ग ने शासित वर्ग के शोषण को यंत्र के रूप में इजाद किया है। अतः राज्य कृत्रिम संगठन है। शोषण का यंत्र है।
प्रत्येक समाज दो वर्गों में बंटा होता है सर्वहारा वर्ग और बुजुर्वा वर्ग। इन दोनों के मध्य संघर्ष होता रहता है। इनके बीच संघर्ष जब तेज होता है तो वह क्रांति का प्रतीक होता है। मार्क्सवाद ने राज्य को शोषण का यंत्र बताया है। समाज वर्गों में बंटा है तथा आर्थिक शक्ति, व्यवस्था की धूरी है। इसमें जिस वर्ग के पास साधन नहीं है उनका शोषण होता है।
अब ऐसी समाज व्यवस्था में व्यक्ति की स्वतंत्रता को कैसे बचाया जाए ? उसे आर्थिक और सामाजिक न्याय कैसे दिलाया जाए ? यह साम्यवादी संविधानवाद इस ध्येय की पूर्ति के लिए निम्न बातों पर बल देता है -
- वर्ग विहीन, राज्य विहिन समाज की स्थापना
- उत्पादन के साधनों पर समाज का नियंत्रण
- संपत्ति के वितरण में समानता
- व्यक्ति को अलगाव से बचाने की व्यवस्था
वस्तुतः संविधानवाद की दो ही मौलिक अवधारणाएं हैं पाश्चात्य और साम्यवादी। जिन विद्वानों ने तीसरी अवधारणा को प्रस्तुत किया है वास्तव में वह संविधानवाद को न समझकर विकासशील राज्यों की समस्याओं पर अपना ध्यान केंद्रित किए हुए हैं।
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के नवोदित राज्यों को इस श्रेणी में रखा गया है। इसे प्राय: तृतीय विश्व के नाम से जाना जाता है। इन राज्यों की अपनी आर्थिक, सामाजिक व राजनीतिक समस्याएं हैं।
इन राज्यों में से कुछ ने पाश्चात्य लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था को अपना लिया और उसी के अनुरूप संविधानवाद के मौलिक तत्वों को अंगीकार करने का प्रयास किया है। दूसरी ओर कुछ राज्यों ने साम्यवाद अपना लिया व साम्यवादी अवधारणा के अनुरूप संविधानवाद को अपना लिया।
कुछ ऐसे देश भी हैं जो मिश्रित प्रकार का ढांचा तैयार किए हुए हैं। अतः यह कहना उचित प्रतीत होता है कि संविधानवाद की तीसरी अवधारणा नहीं है। तीसरी दुनिया के देश अपने मूल्यों के अनुरूप उपरोक्त दो मौलिका अवधारणाओ से एक के प्रति अथवा दोनों के मिश्रित रूप के प्रति अग्रसर हैं।
• संविधानवाद के प्रमुख तत्व
1. संविधानवाद व्यक्ति की स्वतंत्रता की गारंटी देता हैसंविधान के अस्तित्व में आने के कारण ही व्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा करना संभव है। यहां व्यक्ति की स्वतंत्रता को दोहरे खतरे से बचाया जाता है। व्यक्तियों व समाज की ओर से होने वाले खतरे से तथा राज्य की ओर से होने वाले खतरे से बचाया जाता है।
संविधानवाद की दोनों अवधारणाएं (पाश्चात्य व मार्क्सवादी) व्यक्ति की स्वतंत्रता को उद्देश्य मानते हैं। पाश्चात्य अवधारणा व्यक्ति को राज्य की निरंकुशता के साथ ही साथ व्यक्ति व समाज वर्गों द्वारा किए जाने वाले शोषण से भी मुक्ति दिलाना चाहते हैं। यही कारण है कि मार्क्स के दर्शन को 'स्वतंत्रता का दर्शन' कहा जाता है।
2. राजनीतिक सत्ता पर अंकुश की स्थापना
संविधानवाद सीमित सरकार की धारणा में विश्वास करता है। उसकी मान्यता है कि राजनीतिक सत्ता का प्रयोग इस प्रकार किया जाना चाहिए कि व्यक्ति की स्वतंत्रता को क्षति न पहुंचने पाए। 1215 ई. का मैग्नाकार्टा व 1688 की रक्तविहीन क्रांति इसी दिशा में प्रयत्न थे।
जॉन लॉक ने सीमित सरकार को ट्रस्टी के रूप में स्वीकार किया जिसके पास केवल तीन अधिकार (व्यवस्थापिका, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका संबंधी अधिकार) थे। व्यक्ति के प्राकृतिक अधिकार सरकार पर अंकुश स्थापित करते हैं।
संविधानवाद वस्तुतः सीमित सरकार की अवधारणा का ही प्रयायवाची माना जा सकता है, लेकिन एक शर्त के साथ जब सीमित सरकार का उद्देश्य जन कल्याण हो।
3. शक्ति पृथक्करण एवं अवरोध व संतुलन
संविधानवाद का एक महत्वपूर्ण तत्व शक्ति पृथक्करण है। इसके पीछे मूलतः मान्टेस्क्यू का दिमाग काम करता है। जिसकी मान्यता थी कि यदि व्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा करनी हो तो सरकार के तीनों अंगों के कार्य अलग-अलग हाथों में होने चाहिए और प्रत्येक को अपनी सीमा में काम करना चाहिए।
मान्टेस्क्यू का यह विचार इंग्लैंड के शासन का अनुुभवात्मक अध्ययन पर आधारित था। मात्र शक्ति पृथक्करण कर देने से संविधानवाद स्थापित होना संभव नहीं है। क्योंकि ऐसी स्थिति में शासन में गतिरोध उत्पन्न होने की प्रबल संभावना रहती है और इससे जनकल्याण की नीतियां प्रभावित होती है।
अतः इस कमी को सुधारने के लिए अवरोध व संतुलन के सिद्धांत को शक्ति पृथक्करण के पूरक के रूप में स्वीकार किया गया है। अमेरिकी संविधान में इन व्यवस्थाओं को बड़ी स्पष्टता के साथ अपनाया गया है।
4. संवैधानिक साधनों के प्रयोग में परिवर्तन
संविधानवाद परिवर्तन व विकास में विश्वास करता है। लेकिन ये प्रक्रियाएं संवैधानिक माध्यम से होनी चाहिए। यदि सत्ता परिवर्तन हो तो वह प्रजातांत्रिक माध्यम से अर्थात् चुनाव के माध्यम से ही होनी चाहिए। किसी प्रकार के सैनिक अपदस्थ या साम्राज्यवादी प्रवृत्ति के लिए संविधानवाद में कोई स्थान नहीं है।
5. संविधान सम्मत शासन में विश्वास
इसका अर्थ है कि निरंकुश शासन के विपरीत नियमानुकूल शासन केवल अधिकार उपयोग करने वालों की इच्छा के अनुसार चलने वाला शासन नहीं, बल्कि संविधान के नियमों के अनुसार चलने वाला शासन होता है।
6. संविधानवाद का उत्तरदायी सरकार में विश्वास
उत्तरदायी सरकार मैं व्यक्ति को शोषण से मुक्ति मिलती है। उसके अधिकार प्राप्त करवाए जाते हैं। उसकी स्वतंत्रता की रक्षा संभव होती है। विधायक व सांसद जनता के प्रति जवाबदेह होते हैं।
संविधानवाद एक मूल्य संबंध अवधारणा है। इसका संबंध राष्ट्र के जीवन दर्शन से होता है। इसमें उन सभी अथवा अधिकांश तत्वों का समावेश होता है जो राष्ट्र के जीवन दर्शन में पहले से ही उपस्थित है। जैसे एक उदारवादी समाज में लोकतंत्र, स्वतंत्रता, समानता, न्याय, भ्रातृत्व, जनकल्याण आदि मूल्य प्राय: समाहित होते हैं। भारतीय समाज विदेश नीति के क्षेत्र में पंचशील व गुटनिरपेक्षता जैसे मूल्यों से संबंध है।
यह संविधानवाद का व्यापक स्वरूप है, चूंकि यहां राष्ट्र की स्वतंत्रता व संप्रभुता को बचाने का प्रयास किया जाता है। इसे संविधानवाद का अंतर्राष्ट्रीय स्वरूप माना जा सकता है। राष्ट्रीय स्तर पर संविधानवाद उन मूल्यों की रक्षा करता है जो व्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा करते हैं।
2. संस्कृतिबद्ध अवधारणा
संविधानवाद का विकास एवं समाज के मूल्यों का निर्माण देश में स्थापित संस्कृति से संबंध होता है। प्राय: हर देश में राजनीतिक संस्कृति मूल्यों को जन्म देती है। परंतु व्यवहारवादी विचारधारा के अनुसार मूल्य एवं विचारधाराएं संस्कृति में उचित परिवर्तन लाने के लिए साधन के रूप में भी प्रयोग किए जाते हैं।
3. गतिशील अवधारणा
परिवर्तन प्रकृति का नियम है, संविधानवाद इसे स्वीकार करता है। यही कारण है कि संविधानवाद की अवधारणा जड़ न होकर गतिशील है। इसमें समय अनुकूल परिवर्तन व विकास की क्षमता होती है। समाज के मूल्य सदैव एक से नहीं रहे यह संभव नहीं है। ज्यों ज्यों समाज का विकास होता है समाज के मूल्यों में विकासात्मक परिवर्तन होता है।
यह परिवर्तन संस्कृति के विकास व संवर्धन में सहायक होता है। चूंकि संविधानवाद संस्कृतिबद्ध अवधारणा है अतः यह गत्यात्मकता को सहज स्वीकार करती है। संविधानवाद वर्तमान के साथ-साथ भविष्य की आकांक्षाओं का प्रतीक होता है।
4. साध्य मूलक अवधारणा
साध्य प्रधानता संविधानवाद का मूल लक्षण है। 'व्यक्ति की स्वतंत्रता को राज्य निरंकुशता से बचाना' इस साध्य की प्राप्ति के लिए संविधानवाद में कई साधनों का प्रयोग किया जाता है। जैसे विधि का शासन, शक्ति पृथक्करण, स्वतंत्र न्यायपालिका, मौलिक अधिकारों की व्यवस्था, 'समानता, स्वतंत्रता व भ्रातृत्व' को साकार बनाना आदि। यह सभी साधन संविधानवाद की पाश्चात्य अवधारणा के उपकरण हैं।
जबकि मार्क्सवादी अवधारणा में व्यक्ति की स्वतंत्रता और समानता तथा शोषण से मुक्ति के लिए राज्य को अस्वीकार किया गया है तथा पूंजीवादी व्यवस्था की समाप्ति व समाजवादी और साम्यवादी व्यवस्था की स्थापना पर बल दिया गया है। इस प्रकार संविधानवाद की दोनों अवधारणाओं - पाश्चात्य और मार्क्सवादी में साध्य 'व्यक्ति की स्वतंत्रता' को माना गया है। और उसी साध्य की प्राप्ति के लिए भिन्न-भिन्न साधन इजाद किए गए हैं।
5. सहभागी अवधारणा
सहभागी कहने का तात्पर्य है कि संविधानवाद के मूल्यों के प्रति दो या अधिक राज्यों के विचारों में समानता पाया जाना है।
वस्तुतः संविधानवाद के दो मॉडलों (पाश्चात्य एवं मार्क्सवादी) को अपनाने वाले राज्यों में अपने अपने मॉडलों के प्रति कई समानताएं पाई जाती हैं। अतः पाश्चात्य मॉडल अपनाने वालों में मूल्यों के संबंध में प्रकार का भेद न होकर मात्रा का भेद है। यही स्थिति मार्क्सवादी या साम्यवादी राज्यों के संबंध में लागू होती है।
6. संविधान सम्मत अवधारणा
किसी देश के संविधान में वर्णित आदर्शों के अनुरूप व्यवहार में उसका पालन भी हो रहा हो तो कहा जा सकता है कि संविधान सम्मत संविधानवाद है और यदि ऐसा नहीं हो रहा है तो दोनों भिन्न-भिन्न चीजें हैं।
दूसरी बात जो अधिक महत्वपूर्ण है, वह है कि क्या सविधान मानव स्वतंत्रता का पोषक है या केवल राज्य का अस्तित्व कायम रखने के लिए बनाया गया है ? यदि यह मानव स्वतंत्रता व कल्याण की गारंटी देता है तब तो संविधानवाद संविधान सम्मतता को स्वीकार करेगा अन्यथा नहीं।
संविधानवाद केवल वही संविधान सम्मत अवधारणा कहलाएगी जहां संविधान का उद्देश्य व्यक्ति की स्वतंत्रता व कल्याण की वृद्धि करना हो।
संविधानवाद सरकार के उस स्वरूप को कहते हैं जिसमें संविधान की प्रमुख भूमिका होती है। 'कानून के राज्य' का होना ही संविधानवाद है।
संविधानवाद की मूल भावना यह है कि सरकार या प्रशासन कुछ भी, और किसी भी तरीके से, करने के लिये स्वतंत्र नहीं हैं बल्कि उन्हें अपनी शक्ति की सीमाओं के अन्दर रहते हुए ही कार्य करने की स्वतंत्रता या बन्धन है और वह भी संविधान में वर्णित प्रक्रिया के अनुसार।
राजसत्ता के अत्याचार व दुरूपयोग के परिणामस्वरूप संविधानवाद का जन्म हुआ।
2. राजनीतिक सत्ता पर अंकुश की स्थापना
संविधानवाद सीमित सरकार की धारणा में विश्वास करता है। उसकी मान्यता है कि राजनीतिक सत्ता का प्रयोग इस प्रकार किया जाना चाहिए कि व्यक्ति की स्वतंत्रता को क्षति न पहुंचने पाए। 1215 ई. का मैग्नाकार्टा व 1688 की रक्तविहीन क्रांति इसी दिशा में प्रयत्न थे।
जॉन लॉक ने सीमित सरकार को ट्रस्टी के रूप में स्वीकार किया जिसके पास केवल तीन अधिकार (व्यवस्थापिका, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका संबंधी अधिकार) थे। व्यक्ति के प्राकृतिक अधिकार सरकार पर अंकुश स्थापित करते हैं।
संविधानवाद वस्तुतः सीमित सरकार की अवधारणा का ही प्रयायवाची माना जा सकता है, लेकिन एक शर्त के साथ जब सीमित सरकार का उद्देश्य जन कल्याण हो।
3. शक्ति पृथक्करण एवं अवरोध व संतुलन
संविधानवाद का एक महत्वपूर्ण तत्व शक्ति पृथक्करण है। इसके पीछे मूलतः मान्टेस्क्यू का दिमाग काम करता है। जिसकी मान्यता थी कि यदि व्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा करनी हो तो सरकार के तीनों अंगों के कार्य अलग-अलग हाथों में होने चाहिए और प्रत्येक को अपनी सीमा में काम करना चाहिए।
मान्टेस्क्यू का यह विचार इंग्लैंड के शासन का अनुुभवात्मक अध्ययन पर आधारित था। मात्र शक्ति पृथक्करण कर देने से संविधानवाद स्थापित होना संभव नहीं है। क्योंकि ऐसी स्थिति में शासन में गतिरोध उत्पन्न होने की प्रबल संभावना रहती है और इससे जनकल्याण की नीतियां प्रभावित होती है।
अतः इस कमी को सुधारने के लिए अवरोध व संतुलन के सिद्धांत को शक्ति पृथक्करण के पूरक के रूप में स्वीकार किया गया है। अमेरिकी संविधान में इन व्यवस्थाओं को बड़ी स्पष्टता के साथ अपनाया गया है।
4. संवैधानिक साधनों के प्रयोग में परिवर्तन
संविधानवाद परिवर्तन व विकास में विश्वास करता है। लेकिन ये प्रक्रियाएं संवैधानिक माध्यम से होनी चाहिए। यदि सत्ता परिवर्तन हो तो वह प्रजातांत्रिक माध्यम से अर्थात् चुनाव के माध्यम से ही होनी चाहिए। किसी प्रकार के सैनिक अपदस्थ या साम्राज्यवादी प्रवृत्ति के लिए संविधानवाद में कोई स्थान नहीं है।
5. संविधान सम्मत शासन में विश्वास
इसका अर्थ है कि निरंकुश शासन के विपरीत नियमानुकूल शासन केवल अधिकार उपयोग करने वालों की इच्छा के अनुसार चलने वाला शासन नहीं, बल्कि संविधान के नियमों के अनुसार चलने वाला शासन होता है।
6. संविधानवाद का उत्तरदायी सरकार में विश्वास
उत्तरदायी सरकार मैं व्यक्ति को शोषण से मुक्ति मिलती है। उसके अधिकार प्राप्त करवाए जाते हैं। उसकी स्वतंत्रता की रक्षा संभव होती है। विधायक व सांसद जनता के प्रति जवाबदेह होते हैं।
• संविधानवाद की मुख्य विशेषताएं / संवैधानिक शासन की विशेषताएं
1. मूल्य संबंध अवधारणासंविधानवाद एक मूल्य संबंध अवधारणा है। इसका संबंध राष्ट्र के जीवन दर्शन से होता है। इसमें उन सभी अथवा अधिकांश तत्वों का समावेश होता है जो राष्ट्र के जीवन दर्शन में पहले से ही उपस्थित है। जैसे एक उदारवादी समाज में लोकतंत्र, स्वतंत्रता, समानता, न्याय, भ्रातृत्व, जनकल्याण आदि मूल्य प्राय: समाहित होते हैं। भारतीय समाज विदेश नीति के क्षेत्र में पंचशील व गुटनिरपेक्षता जैसे मूल्यों से संबंध है।
यह संविधानवाद का व्यापक स्वरूप है, चूंकि यहां राष्ट्र की स्वतंत्रता व संप्रभुता को बचाने का प्रयास किया जाता है। इसे संविधानवाद का अंतर्राष्ट्रीय स्वरूप माना जा सकता है। राष्ट्रीय स्तर पर संविधानवाद उन मूल्यों की रक्षा करता है जो व्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा करते हैं।
2. संस्कृतिबद्ध अवधारणा
संविधानवाद का विकास एवं समाज के मूल्यों का निर्माण देश में स्थापित संस्कृति से संबंध होता है। प्राय: हर देश में राजनीतिक संस्कृति मूल्यों को जन्म देती है। परंतु व्यवहारवादी विचारधारा के अनुसार मूल्य एवं विचारधाराएं संस्कृति में उचित परिवर्तन लाने के लिए साधन के रूप में भी प्रयोग किए जाते हैं।
3. गतिशील अवधारणा
परिवर्तन प्रकृति का नियम है, संविधानवाद इसे स्वीकार करता है। यही कारण है कि संविधानवाद की अवधारणा जड़ न होकर गतिशील है। इसमें समय अनुकूल परिवर्तन व विकास की क्षमता होती है। समाज के मूल्य सदैव एक से नहीं रहे यह संभव नहीं है। ज्यों ज्यों समाज का विकास होता है समाज के मूल्यों में विकासात्मक परिवर्तन होता है।
यह परिवर्तन संस्कृति के विकास व संवर्धन में सहायक होता है। चूंकि संविधानवाद संस्कृतिबद्ध अवधारणा है अतः यह गत्यात्मकता को सहज स्वीकार करती है। संविधानवाद वर्तमान के साथ-साथ भविष्य की आकांक्षाओं का प्रतीक होता है।
4. साध्य मूलक अवधारणा
साध्य प्रधानता संविधानवाद का मूल लक्षण है। 'व्यक्ति की स्वतंत्रता को राज्य निरंकुशता से बचाना' इस साध्य की प्राप्ति के लिए संविधानवाद में कई साधनों का प्रयोग किया जाता है। जैसे विधि का शासन, शक्ति पृथक्करण, स्वतंत्र न्यायपालिका, मौलिक अधिकारों की व्यवस्था, 'समानता, स्वतंत्रता व भ्रातृत्व' को साकार बनाना आदि। यह सभी साधन संविधानवाद की पाश्चात्य अवधारणा के उपकरण हैं।
जबकि मार्क्सवादी अवधारणा में व्यक्ति की स्वतंत्रता और समानता तथा शोषण से मुक्ति के लिए राज्य को अस्वीकार किया गया है तथा पूंजीवादी व्यवस्था की समाप्ति व समाजवादी और साम्यवादी व्यवस्था की स्थापना पर बल दिया गया है। इस प्रकार संविधानवाद की दोनों अवधारणाओं - पाश्चात्य और मार्क्सवादी में साध्य 'व्यक्ति की स्वतंत्रता' को माना गया है। और उसी साध्य की प्राप्ति के लिए भिन्न-भिन्न साधन इजाद किए गए हैं।
5. सहभागी अवधारणा
सहभागी कहने का तात्पर्य है कि संविधानवाद के मूल्यों के प्रति दो या अधिक राज्यों के विचारों में समानता पाया जाना है।
वस्तुतः संविधानवाद के दो मॉडलों (पाश्चात्य एवं मार्क्सवादी) को अपनाने वाले राज्यों में अपने अपने मॉडलों के प्रति कई समानताएं पाई जाती हैं। अतः पाश्चात्य मॉडल अपनाने वालों में मूल्यों के संबंध में प्रकार का भेद न होकर मात्रा का भेद है। यही स्थिति मार्क्सवादी या साम्यवादी राज्यों के संबंध में लागू होती है।
6. संविधान सम्मत अवधारणा
किसी देश के संविधान में वर्णित आदर्शों के अनुरूप व्यवहार में उसका पालन भी हो रहा हो तो कहा जा सकता है कि संविधान सम्मत संविधानवाद है और यदि ऐसा नहीं हो रहा है तो दोनों भिन्न-भिन्न चीजें हैं।
दूसरी बात जो अधिक महत्वपूर्ण है, वह है कि क्या सविधान मानव स्वतंत्रता का पोषक है या केवल राज्य का अस्तित्व कायम रखने के लिए बनाया गया है ? यदि यह मानव स्वतंत्रता व कल्याण की गारंटी देता है तब तो संविधानवाद संविधान सम्मतता को स्वीकार करेगा अन्यथा नहीं।
संविधानवाद केवल वही संविधान सम्मत अवधारणा कहलाएगी जहां संविधान का उद्देश्य व्यक्ति की स्वतंत्रता व कल्याण की वृद्धि करना हो।
• संविधान और संविधानवाद में अंतर
संविधान ऐसे निश्चित नियमों का संग्रह होता है जिसमें सरकार की कार्यविधि प्रतिपादित होती है और जिनके द्वारा उसका संचालन होता है।संविधानवाद सरकार के उस स्वरूप को कहते हैं जिसमें संविधान की प्रमुख भूमिका होती है। 'कानून के राज्य' का होना ही संविधानवाद है।
संविधानवाद की मूल भावना यह है कि सरकार या प्रशासन कुछ भी, और किसी भी तरीके से, करने के लिये स्वतंत्र नहीं हैं बल्कि उन्हें अपनी शक्ति की सीमाओं के अन्दर रहते हुए ही कार्य करने की स्वतंत्रता या बन्धन है और वह भी संविधान में वर्णित प्रक्रिया के अनुसार।
राजसत्ता के अत्याचार व दुरूपयोग के परिणामस्वरूप संविधानवाद का जन्म हुआ।
आधुनिक संविधानवाद का मूल आधार ‘विधि का शासन’ ही माना जाता है। संविधानवाद एक ऐसी राज्य व्यवस्था की संकल्पना है , जो संविधान के अंतर्गत हो तथा जिसमें सरकार के अधिकार सीमित और विधि के अधीन हों।
संविधानवाद की अवधारणा निरंकुश शासन के विपरीत नियामानुकूल शासन संचालन की व्यवस्था करता है। और सीमित सरकार के शासन को उचित मानता है। स्थापित संविधान के निर्देशो के अनुसार शासन का संचालन संविधानवाद की मुख्य विशेषता है।
👉 संविधान और संविधानवाद में अंतर संबंधी विडियो by Dr. A.K.Verma 👇
संविधानवाद की अवधारणा निरंकुश शासन के विपरीत नियामानुकूल शासन संचालन की व्यवस्था करता है। और सीमित सरकार के शासन को उचित मानता है। स्थापित संविधान के निर्देशो के अनुसार शासन का संचालन संविधानवाद की मुख्य विशेषता है।
👉 संविधान और संविधानवाद में अंतर संबंधी विडियो by Dr. A.K.Verma 👇
• संविधानवाद की समस्या
संविधानवाद की समस्या ज्यातर विकासशील देशो मे देखने को मिलती है। संविधानवाद की समस्याएं निम्न है।- राजनीतिक अस्थायित्व।
- आर्थिक विकास की समस्या।
- राजनीतिक संरचना के विकल्पों के चयन की समस्या।
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