राष्ट्रपति की आपातकालीन शक्तियां का वर्णन कीजिए
संकट की स्थिति का सामना करने के लिए संविधान द्वारा राष्ट्रपति को विशेष शक्तियां प्रदान की गई है। राष्ट्रपति को यह संकटकालीन शक्तियां (Emergency Powers) या दूसरे शब्दों में संविधान के संकटकालीन प्रावधान गत दो दशकों में बहुत अधिक संशोधन परिवर्तन के विषय रहे हैं। राष्ट्रपति की संकटकालीन शक्तियां (आपात उपबंध) जर्मनी के वाइमर संविधान, 1933 एवं भारत शासन अधिनियम 1935 से ली गई है।1975 में लागू आपातकाल में 42th संविधान संशोधन 1976 के आधार पर संकटकालीन प्रावधानों को और कठोर बनाया गया। 44th संविधान संशोधन (April, 1979) द्वारा इस संबंध में आवश्यक व्यवस्थाएं की गई है और इस संविधान संशोधन के बाद वर्तमान समय में संविधान के संकटकालीन प्रावधानों की स्थिति निम्न प्रकार है :
युद्ध, बाहरी आक्रमण या शस्त्र विद्रोह की स्थिति से संबंधित संकटकालीन व्यवस्था (Article 352)
मूल संविधान के अनुच्छेद 352 में व्यवस्था थी कि यदि राष्ट्रपति को अनुभव हो कि युद्ध, बाहरी आक्रमण या आंतरिक अशांति के कारण भारत या उसके किसी भाग की शांति व्यवस्था नष्ट होने का भय है तो यथार्थ रूप में इस प्रकार की परिस्थिति उत्पन्न होने पर या इस प्रकार की परिस्थिति उत्पन्न होने की आशंका होने पर राष्ट्रपति संकटकालीन व्यवस्था की घोषणा कर सकता था।
संसद की स्वीकृति के बिना भी यह घोषणा तक लागू रहती और संसद से स्वीकृत हो जाने पर शासन इसे जब तक लागू रखना चाहता, रख सकता था। 44 में संवैधानिक संशोधन 1978 के बाद वर्तमान समय में इस संबंध में व्यवस्था निम्न प्रकार है -
(1) अब इस प्रकार का आपातकाल युद्ध, बाहरी आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह अथवा इस प्रकार की आशंका होने पर ही घोषित किया जा सकेगा। केवल आंतरिक अशांति के नाम पर आपातकाल घोषित नहीं किया जा सकता।
(2) राष्ट्रपति द्वारा अनुच्छेद 352 के अंतर्गत आपातकाल की घोषणा तभी की जा सकेगी, जबकि मंत्रिमंडल लिखित रूप में राष्ट्रपति को ऐसा परामर्श देगा।
(3) घोषणा के एक माह के अंदर संसद के विशेष बहुमत (पृथक-पृथक संसद के दोनों सदनों के कुल बहुमत एवं उपस्थित और मतदान में भाग लेने वाले सदस्यों के दो तिहाई बहुमत) से इसकी स्वीकृति आवश्यक होगी और इसे लागू रखने के लिए प्रति 6 माह बाद स्वीकृति आवश्यक होगी।
(4) लोकसभा में उपस्थित एवं मतदान में भाग लेने वाले सदस्यों के साधारण बहुमत से आपातकाल की घोषणा समाप्त की जा सकती है।
आपातकाल पर विचार हेतु लोकसभा की बैठक लोकसभा के 1/10 सदस्यों की मांग पर अनिवार्य रूप से बुलाई जाएगी। राष्ट्रपति द्वारा की गई संकटकालीन घोषणा को न्यायालय में चुनौती दी जा सकेगी (44 वें संविधान संशोधन द्वारा)।
मूल संविधान में व्यवस्था थी कि अनुच्छेद 352 के अधीन संकटकाल की घोषणा पूरे देश के लिए ही की जा सकती थी, देश के केवल किसी एक या कुछ भागों के लिए नहीं।
42 वें संविधान संशोधन द्वारा यह व्यवस्था की गई कि राष्ट्रपति द्वारा अनुच्छेद 352 के अधीन संकट की घोषणा पूरे देश के लिए या देश के किसी एक या कुछ भागों के लिए की जा सकती है। 42 वें संविधान संशोधन की इस व्यवस्था को बनाए रखा गया है।
अनुच्छेद 352 की घोषणा के प्रभाव
(1) इस घोषणा के लागू होने के समय में अनुच्छेद 19 द्वारा नागरिकों को प्रदत्त 6 स्वतंत्रताएं स्थगित की जा सकती है। Article 19 (अनुच्छेद 358 के अनुसार) स्वत: निलम्बित हो जाता है।
नोट - अनुच्छेद 358, अनुच्छेद 19 को निलंबित कर देता है, लेकिन अनुच्छेद 359 के अंतर्गत उन्हीं मूल अधिकारों का निलंबन होगा जो राष्ट्रपति आदेश से विनिर्दिष्ट करें।
(2) मूल संविधान में व्यवस्था थी कि संकटकाल के समय नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए न्यायालय की शरण नहीं ले सकेंगे, लेकिन 44 में संविधान संशोधन के आधार पर व्यवस्था की गई है कि आपातकाल में भी व्यक्ति के जीवन और शारीरिक स्वाधीनता के अधिकार (अनुच्छेद 20 और 21) को समाप्त या सीमित नहीं किया जा सकेगा। लेकिन इसके अतिरिक्त अन्य अधिकारों की रक्षा के लिए नागरिक न्यायालय की शरण नहीं ले सकेंगे।
(3) राष्ट्रपति इस संकटकाल के समय संसद को राज्य सूची के विषयों पर कानून बनाने का अधिकार दे सकता है और किसी राज्य की सरकार को उसको प्रशासनिक शक्ति के संचालन हेतु आदेश दे सकता है।
(4) राष्ट्रपति केंद्र और राज्यों के बीच आय के वितरण में भी परिवर्तन कर सकता है।
अनुच्छेद 352 का व्यवहार में उपयोग
अनुच्छेद 352 के अंतर्गत अब तक तीन बार संकटकाल की घोषणा की गई है। 1962 में भारत पर चीन और 1971 में भारत पर पाकिस्तान का आक्रमण होने की स्थिति में तथा तीसरी बार 1975 में।
प्रथम बार संकटकालीन घोषणा 26 अक्टूबर 1962 को की गई और इसे 10 जनवरी 1968 को समाप्त किया गया। दूसरी बार 3 दिसंबर 1971 को पाकिस्तान द्वारा भारत पर आक्रमण किए जाने पर इसी दिन राष्ट्रपति ने संकटकालीन स्थिति की घोषणा कर दी। तीसरी बार 26 जून 1975 को आंतरिक व्यवस्था के नाम पर संकटकाल की घोषणा की गई। जून 1975 में घोषित संकटकाल 27 मार्च 1977 को समाप्त हो गया। इस प्रकार वर्तमान समय में अनुच्छेद 352 के अंतर्गत कोई संकटकाल लागू नहीं है।
राज्य में संवैधानिक तंत्र के विफल होने से उत्पन्न संकटकालीन व्यवस्था (Article 356)
उद्घोषणा की विधि - संविधान के द्वारा संघीय सरकार को यह उत्तरदायित्व सौंपा गया है कि वह देखे कि प्रत्येक राज्य की सरकार संविधान के उपबंध के अनुसार चलाई जाती है। अनुच्छेद 356 के अनुसार राष्ट्रपति को राज्यपाल के प्रतिवेदन पर या अन्य किसी प्रकार से समाधान (अनुच्छेद 356 के अनुसार मंत्रीमंडल का समाधान) हो जाए की ऐसी परिस्थिति पैदा हो गई है कि राज्य का शासन संविधान के अनुसार नहीं चलाया जा सकता है तो वह उस राज्य के लिए संकटकाल की घोषणा कर सकता है।
संसद की स्वीकृति के बिना यह घोषणा दो माह से अधिक की अवधि के लिए लागू नहीं रहेगी। संसद के द्वारा एक प्रस्ताव पास कर राज्य में छह माह के लिए राष्ट्रपति शासन लागू किया जा सकता है। इस प्रकार का प्रस्ताव संसद के दोनों सदनों द्वारा अलग-अलग अपने साधारण बहुमत से पास किया जाना आवश्यक है।
44 वें संविधान संशोधन से पूर्व राज्य में राष्ट्रपति शासन की अधिकतम अवधि 3 वर्ष थी, लेकिन अब इस व्यवस्था में परिवर्तन किया गया है कि राज्य में राष्ट्रपति शासन के 1 वर्ष की अवधि के बाद इसे और अधिक समय के लिए जारी रखने का प्रस्ताव संसद द्वारा पारित किया जा सकेगा, जबकि इस प्रकार का प्रस्ताव पारित किए जाने के समय संपूर्ण देश या उसके किसी भाग में संकटकाल लागू हो और चुनाव आयोग से प्रमाणित कर दें कि वर्तमान समय में राज्य में चुनाव करवाना संभव नहीं है। किसी भी परिस्थिति में 3 वर्ष के बाद राष्ट्रपति शासन लागू नहीं रखा जा सकेगा।
अनुच्छेद 356 की घोषणा के प्रभाव
(1) इस प्रकार के संकटकाल की स्थिति में राष्ट्रपति यह घोषित कर सकता है कि उस राज्य की कानून निर्माण शक्ति का प्रयोग केंद्रीय संसद करेगी।
(2) राष्ट्रपति राज्यपाल सहित राज्य के किसी भी अधिकारी की शक्तियों को अपने हाथ में ले सकता है।
(3) वह घोषणा के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए उच्च न्यायालय की शक्ति को छोड़कर अन्य समस्त शक्ति अपने हाथ में ले सकता है।
(4) जब लोकसभा की बैठके नहीं हो रही हो उस समय राष्ट्रपति राज्य की संचित निधि में से व्यय का आदेश दे सकता है और उसके द्वारा अध्यादेश भी जारी किया जा सकता है।
(5) संकट की अवधि में, राष्ट्रपति संविधान के अनुच्छेद 19 द्वारा प्रदत स्वतंत्रताओं पर रोक लगा सकता है और उसके द्वारा संवैधानिक उपचारों के अधिकार को भी स्थगित किया जा सकता है।
अनुच्छेद 356 का व्यवहार में उपयोग
संविधान लागू किए जाने के समय से लेकर आज तक 100 से अधिक बार अनुच्छेद 356 के अधीन राष्ट्रपति शासन घोषित किया जा चुका है।
यह तथ्य है कि अब तक अनेक उदाहरण में राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू करने की शक्ति अनुच्छेद 356 का उपयोग विवादास्पद रहा। सर्वोच्च न्यायालय ने इस बात की निरंतर चेष्टा की है कि शासन द्वारा शक्ति का दुरुपयोग न किया जा सके।
9 सदस्यीय संविधान पीठ ने 11 मार्च 1994 को अपने निर्णय में कहा है कि राष्ट्रपति द्वारा राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू करने तथा राज्य विधानसभा भंग करने (केवल निलंबित भी किया जा सकता है) के कार्य को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है तथा यह पाया गया कि राज्य विधानसभा को अनुचित रूप से भंग कर दिया गया है तो सर्वोच्च न्यायालय को शक्ति प्राप्त है कि वह भंग विधानसभा को पुनर्जीवित कर सके।
अनुच्छेद 356 के प्रसंग में राष्ट्रपति की भूमिका
राष्ट्रपति की इन शक्तियों का प्रयोग प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में मंत्रिमंडल द्वारा ही किया जाता है। मंत्रीमंडल द्वारा इस शक्ति का दुरुपयोग न किया जा सके, इसके लिए 44 वें संविधान संशोधन 1978 द्वारा राष्ट्रपति को एक शक्ति प्रदान की गई है।
राष्ट्रपति ने इस शक्ति का प्रयोग पहली बार 1997 तथा दूसरी बार 1998 में किया है। अक्टूबर 1997 में जब केंद्रीय मंत्रिमंडल ने उत्तर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लागू करने का परामर्श दिया (उ.प्र. के राज्यपाल रोमेश भंडारी के परामर्श पर) और सितंबर 1998 में बिहार में राष्ट्रपति शासन लागू करने का परामर्श दिया, तब इन दोनों ही अवसरों पर राष्ट्रपति ने 44 वें संशोधन को आधार बनाकर मंत्रिमंडल को इस पर पुनर्विचार करने के लिए कहा और मंत्रिमंडल ने अपने पूर्व परामर्श पर विचार करते हुए दोनों ही अवसरों पर राष्ट्रपति शासन लागू करने का प्रस्ताव वापस ले लिया।
नोट - उत्तर प्रदेश में 1997 में राष्ट्रपति शासन की सिफारिश को भारतीय लोकतंत्र में पहली बार अनुच्छेद 356 को पुनर्विचार के लिए भेजा था।
• स्टेट ऑफ राजस्थान बनाम यूनियन ऑफ इंडिया 1977 - में धारित हुआ कि न्यायालय इस बात की परीक्षा कर सकते हैं कि राष्ट्रपति का समाधान दुर्भावनापूर्ण, असंगत या बाह्य चीजों पर आधारित है कि नहीं।
• एस आर मुंबई बनाम यूनियन ऑफ इंडिया 1994 - में धारित हुआ कि अनुच्छेद 356 (1) के अंतर्गत की गई घोषणा समीक्षा योग्य है। पंथ निरपेक्षता के उल्लंघन पर अनुच्छेद 356 का प्रयोग किया जा सकता है। विधानसभा को संसद द्वारा उद्घोषणा के अनुमोदन के पश्चात ही विघटित की जानी चाहिए।
वित्तीय संकट (अनुच्छेद 360)
उद्घोषणा की विधि : अनुच्छेद 360 के अनुसार जब राष्ट्रपति को यह विश्वास हो जाए कि ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न हो गई है जिनसे भारत के वित्तीय स्थायित्व या साख को खतरा है तो वह वित्तीय संकट की घोषणा कर सकता है। ऐसी घोषणा के लिए भी वही अवधि निर्धारित है जो प्रथम प्रकार के संकट की घोषणा के लिए है।
अनुच्छेद 360 के प्रभाव
(1) इस संकट की अवधि में राष्ट्रपति को अधिकार होगा कि वह आर्थिक दृष्टिकोण से किसी भी राज्य सरकार को आदेश दे सकता है।
(2) संघ तथा राज्य सरकार के अधिकारियों के वेतन में, जिनमें उच्चतम न्यायालय तथा उच्च न्यायालय के न्यायाधीश भी शामिल होंगे, आवश्यक कमी की जा सकती है।
(3) राष्ट्रपति राज्य सरकारों को इस बात के लिए बाध्य कर सकता है कि राज्य के समस्त वित्त विधेयक उसकी स्वीकृति के लिए प्रस्तुत किए जाएं।
(4) संघ की कार्यकारिणी राज्य की कार्यकारिणी को शासन संबंधी आवश्यक आदेश दे सकती है और राष्ट्रपति केंद्र तथा राज्यों के धन संबंधी बंटवारे में आवश्यक परिवर्तन कर सकता है।
अनुच्छेद 360 का व्यवहार में उपयोग
देश में वित्तीय संकट लागू करने का अवसर अब तक नहीं आया है।
राष्ट्रपति की संकटकालीन शक्तियों का मूल्यांकन
भारतीय संविधान की यह संकटकालीन व्यवस्था संविधान निर्माण के समय और उसके बाद कटु आलोचना का विषय रही है। जिस दिन संविधान सभा में यह व्यवस्था स्वीकार हुई उस दिन श्री हरिविष्णु कामथ ने संविधान सभा में कहा था,
"यह शर्मनाक दिन है। ईश्वर भारतीयों की रक्षा करें।"
इस संकटकालीन व्यवस्था की प्रमुख रूप से निम्नलिखित आधारों पर आलोचना की जाती है -
(1) राष्ट्रपति अधिनायक बन सकता है
आलोचकों के अनुसार संकट की स्थिति का एकमात्र निर्णायक राष्ट्रपति ही है और राष्ट्रपति के द्वारा संसद की स्वीकृति प्राप्त किए बिना ही संकटकालीन घोषणा एक माह के लिए लागू की जा सकती है। एक माह की अवधि में वह मंत्रीमंडल को पदच्युत तथा लोकसभा को भंग कर 5 या 7 माह तक तो मनमाना शासन कर सकता है।
महत्वाकांक्षी राष्ट्रपति इस अवधि में अपनी स्थिति सुदृढ़ करने का प्रयत्न कर सकता है। 44 वें संविधान संशोधन 1979 के बाद इस प्रकार की आशंका का कोई आधार नहीं रहा है।
(2) संघात्मक रूप का अंत
संविधान द्वारा भारत में एक संघात्मक शासन व्यवस्था की स्थापना की गई है लेकिन संविधान के ये संकटकालीन उपबंध संघात्मक शासन व्यवस्था का आधारभूत स्वरूप ही समाप्त कर देते हैं। संवैधानिक तंत्र की विफलता के समय राज्य सरकार लगभग समाप्त ही हो जाती है और युद्धकालीन अथवा वित्तीय संकट की स्थिति में राज्य सरकारों पर केंद्रीय सरकार का नियंत्रण अत्यधिक बढ़ जाता है।
परिणामत: राज्य सरकारों का रूप एक ऐसे एजेंट के समान हो जाता है जिसका कार्य संघीय सरकार के आदेशों का पालन करना भर हो।
(3) राज्यों में विरोधी दलों की सरकारों का दमन संभव है
अनुच्छेद 356 के अंतर्गत राज्य में संवैधानिक तंत्र की विफलता की स्थिति में संकटकालीन घोषणा की जो व्यवस्था की गई है उसके संबंध में प्रारंभ से ही यह भय प्रकट किया गया है कि केंद्र का शासक दल राष्ट्रपति के माध्यम से राज्यों में विरोधी दलों की सरकारों का दमन कर सकता है। अब तक इस प्रकार की शक्ति का जिस रूप में प्रयोग किया गया, उससे भी इस प्रकार के भय की पुष्टि ही होती है।
(4) राज्यों की वित्तीय स्वायत्तता समाप्त हो जाएगी
संकट काल में केंद्रीय कार्यपालिका तथा व्यवस्थापिका को व्यापक वित्तीय अधिकार प्रदान किए गए हैं। राष्ट्रपति आर्थिक क्षेत्र में राज्य सरकारों को किसी भी प्रकार का आदेश दे सकता है। श्री हरनाथ कुंजरू के शब्दों में, "संकटकाल के नाम पर राज्यों की वित्तीय स्वायत्तता समाप्त की जा सकती है।"
(5) मौलिक अधिकार अर्थहीन हो जाएंगे
संकटकालीन उपबंधों के विरुद्ध सबसे बड़ी आलोचना यह की जाती है कि यह उपबंध संविधान द्वारा दिए गए मौलिक अधिकारों को समाप्त कर देंगे।
अमेरिका, इंग्लैंड, कनाडा, आयरलैंड, स्विट्जरलैंड, ऑस्ट्रेलिया आदि देशों के संविधान द्वारा कार्यपालिका को नागरिक अधिकार एवं स्वतंत्रताओं को प्रतिबंधित करने की इतनी व्यापक शक्तियां प्रदान नहीं की गई है जितनी कि भारतीय संविधान द्वारा। संविधान सभा के अनेक प्रमुख सदस्यों ने संकटकाल के अंतर्गत मौलिक अधिकारों को समाप्त करने की इस व्यवस्था को प्रजातंत्र के लिए घातक बताया था।
श्री कामथ और श्री शिबनलाल सक्सेना के द्वारा इसे "भारतीय संविधान पर एक धब्बा" कहा गया है।
• अल्लादी कृष्णास्वामी अय्यर ने आपात उपबंध को संविधान का जीवन कहा, जबकि हरिविष्णु कामथ ने 'प्रतिक्रियावादी अध्याय' कहा। हरिविष्णु कामथ - "सर्वाधिकारवादी पुलिस राज्य की स्थापना।"
• संविधान निर्माताओं ने आपातकालीन प्रावधानों को विशेष परिस्थितियों में प्रयोग किया जाने वाला अभयदीप (Safety Valve) माना।
• टी.टी. कृष्णमाचारी , "भारतीय संविधान साधारण काल में संघात्मक तथा युद्ध एवं संकटकालीन परिस्थितियों में एकात्मक शासन का रूप धारण कर लेता है।"
• संविधान सभा के अनेक सदस्यों ने राष्ट्रपति के इन अधिकारों की तुलना जर्मनी के वाईमर गणतंत्र के सविधान (1919) की धारा 148 से की थी, जिसके माध्यम से हिटलर एक तानाशाह बनाने में सफल हुआ था।
• अमरनंदी, "राष्ट्रीय संकट का सामना करने के लिए केंद्रीय कार्यपालिका को प्रदान की गई सकती एक भरी हुई बंदूक की भांति है जिसका उपयोग नागरिकों की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए भी किया जा सकता है और उन्हें समाप्त करने के लिए भी। अतः इस बंदूक का प्रयोग अत्यधिक सावधानी से किया जाना चाहिए।"
राष्ट्रपति की संकटकालीन शक्तियों के पक्ष में तर्क
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि संकटकालीन उपबंधों की जो उपयुक्त आलोचना की गई है, उनमें सत्य का अंश है लेकिन इसके साथ ही यह भी कहा जा सकता है कि आलोचनाएं अतिशयोक्ति पूर्ण है और इन शक्तियों के पक्ष में व्यवहारिक तर्क भी दिए जा सकते हैं -
(1) संकटकालीन उपबंध विशेष परिस्थितियों के लिए
सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि संविधान के ये उपबंध सामान्य परिस्थितियों के लिए नहीं वरन केवल विशेष परिस्थितियों के लिए है और यह बात निर्विवाद है कि संकटकाल में व्यक्ति की पूर्ण राजभक्ती की अधिकारिणी केंद्रीय सरकार ही हो सकती है, राज्य सरकारें नहीं।
संकटकालीन उपबंध संघात्मक व्यवस्था को समाप्त नहीं करते, वरन् केवल सीमित करते हैं और संकटकाल समाप्त हो जाने पर संघात्मक व्यवस्था पुनः अपनी सामान्य स्थिति को प्राप्त कर लेती है।
(2) राष्ट्रपति या अन्य कोई पदाधिकारी तानाशाह नहीं बन सकता
इस आधार पर संकटकालीन उपबंधो की आलोचना करना कि इसके आधार पर राष्ट्रपति अधिनायक बन जाएगा, बाल की खाल निकालना ही है।
संसदात्मक शासन व्यवस्था में कोई भी राष्ट्रपति अधिनायक बनने की बात सोचेगा, ऐसी कल्पना नहीं की जा सकती। न ही कोई प्रधानमंत्री या केबिनेट इन मुद्दों के आधार पर अधिनायक बनने में सफल हो सकती है। क्योंकि जैसा कि टी.टी. कृष्णामाचारी ने संविधान सभा में कहा था,
"अगर कार्यपालिका अपनी संकटकालीन शक्तियों का दुरुपयोग करती है तो संसद उसे सबक दे सकती है।"
44 में संविधान संशोधन द्वारा मूल संविधान की व्यवस्था में जो परिवर्तन किए गए हैं उनमें राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री या मंत्रीमंडल के तानाशाह बनने की आशंका और भी निराधार हो गई है।
(3) संकटकाल में नागरिक अधिकारों की अपेक्षा राज्य की सुरक्षा अधिक महत्वपूर्ण है
जहां तक संकटकालीन घोषणा के अंतर्गत मौलिक अधिकारों के स्थगन का प्रश्न है, इस संबंध में संविधान निर्माताओं के सामने व्यक्ति की स्वतंत्रता एवं राज्य की सुरक्षा तथा राज्य के अंतर्गत व्यवस्था के बीच उचित संबंध स्थापित करने की समस्या थी और संकटकाल में मौलिक अधिकारों के स्थगन की व्यवस्था कर एक संतुलित मार्ग अपनाने का ही प्रयत्न किया गया है। व्यक्ति की दृष्टि से मौलिक अधिकारों का स्थगन चाहे कितना ही अनुचित क्यों ना हो राज्य की सुरक्षा और व्यवस्था की दृष्टि से संकटकाल में मौलिक अधिकारों का स्थगन कुछ सीमा तक आवश्यक ही है।
(4) सशस्त्र विद्रोह या वित्तीय संकट की स्थिति भी भयावह
जहां तक युद्ध के कारण उत्पन्न आपात और अन्य परिस्थितियों के कारण उत्पन्न आपात में भेद करने का प्रश्न है, इस संबंध में यह कहा जा सकता है कि सशस्त्र विद्रोह या वित्तीय संकट की स्थिति भी उतनी ही भयानक हो सकती है जितनी कि युद्ध के कारण उत्पन्न स्थिति।
संविधान में दिए गए इन संकटकालीन उपबंधो का अरुचिकर प्रतीत होना नितांत स्वाभाविक है किंतु साथ ही यह स्वीकार करना होगा कि संकटकाल के संबंध में की गयी यह व्यवस्था नवजात राष्ट्र की स्वतंत्रता, एकता और प्रजातंत्र की रक्षा के लिए अत्यंत आवश्यक है।
टी.टी. कृष्णमाचारी ने संविधान सभा में ठीक ही कहा था कि
"संविधान के अंतर्गत की गई संकटकालीन व्यवस्था को एक आवश्यक बुराई के रूप में स्वीकार करना होगा, क्योंकि इन प्रबंधों के बिना संविधान निर्माण के हमारे सभी प्रयत्न ही अंततः असफल हो जाएंगे।"
यह तथ्य है कि 1975 में लागू किए गए 19 माह के आपातकाल में आपातकालीन शक्तियों का बहुत अधिक दुरूपयोग किया गया। इस स्थिति को देखकर आपातकालीन शक्तियों के दुरुपयोग पर अंकुश लगाने की आवश्यकता अनुभव की गई। अतः 44 में संविधान संशोधन 1979 द्वारा ऐसी व्यवस्था की गई है कि भविष्य में शासक वर्ग के द्वारा निजी स्वार्थों की रक्षा के लिए आपातकाल लागू नहीं किया जा सके और आवश्यक होने पर जब आपातकाल लागू किया जाए, तब भी शासक वर्ग द्वारा शक्तियों का मनमाना प्रयोग न किया जा सके।
यदि जनता के प्रतिनिधि और स्वयं जनता राजनीतिक जागरूकता की स्थिति को अपना लें तो संविधान के संकटकालीन प्रावधानों का दुरुपयोग संभव नहीं है।
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