प्रधानमंत्री की शक्तियां और कार्य, योग्यता, नियुक्ति, प्रधानमंत्री और मंत्रिपरिषद
भारत में प्रधानमंत्री के पद को संविधान द्वारा मान्यता प्रदान की गई है, लेकिन ब्रिटिश संविधान में प्रधानमंत्री का पद परंपरा पर आधारित है। भारतीय संविधान का Article 74 प्रधानमंत्री पद की व्यवस्था करता है।
• प्रधानमंत्री की नियुक्ति कौन करता है
संविधान में उपबंधित है कि प्रधानमंत्री की नियुक्ति राष्ट्रपति करेगा, लेकिन व्यवहार में सामान्य परिस्थितियों में प्रधानमंत्री की नियुक्ति के संबंध में राष्ट्रपति की शक्ति नग्णय है।संसदात्मक प्रणाली के मूलभूत सिद्धांत के अनुसार राष्ट्रपति लोकसभा के बहुमत दल के नेता को प्रधानमंत्री पद पर नियुक्त करने के लिए बाध्य है। फिर भी कुछ ऐसी परिस्थितियां हो सकती है जिनमें राष्ट्रपति प्रधानमंत्री की नियुक्ति के संबंध में विवेक का प्रयोग कर सके।
यद्यपि संविधान के अनुसार भारत में संसद के किसी भी सदन का सदस्य प्रधानमंत्री हो सकता है और श्रीमती इंदिरा गांधी प्रथम बार प्रधानमंत्री पद ग्रहण करने के समय राज्यसभा की सदस्य थीं तथा पी वी नरसिंह राव और एच डी देवेगौड़ा प्रधानमंत्री पद ग्रहण करते समय संसद के किसी भी सदन के सदस्य नहीं थे फिर भी अधिक उपयुक्त यही है कि प्रधानमंत्री लोकसभा का सदस्य हो।
विधान के अनुसार तो कोई व्यक्ति 6 महीने तक संसद का सदस्य बने बिना ही प्रधानमंत्री पद पर आसीन रह सकता है लेकिन मंत्रिमंडलीय उत्तरदायित्व के सिद्धांत के क्रियान्वयन के लिए आवश्यक है कि प्रधानमंत्री तथा अन्य मंत्री संसद के सदस्य अवश्य हो। प्रधानमंत्री के लिए लोकसभा का सदस्य होना अधिक उपयुक्त होगा।
Article 75 के अनुसार प्रधानमंत्री की नियुक्ति राष्ट्रपति करेगा। नियुक्ति का आधार परंपरा के अनुसार रहेगा। लोकसभा में बहुमत प्राप्त दल के नेता को प्रधानमंत्री पद पर नियुक्त किया जाएगा। बहुमत प्राप्त न करने की स्थिति में लोकसभा के सबसे बड़े दल के नेता को या ऐसे व्यक्ति को जिससे यह अपेक्षा की जाती है कि एक माह के अंदर अपना बहुमत सिद्ध करें।
जैसे 1979 में चरण सिंह 1989 में वी पी सिंह, 1991 में पी वी नरसिम्हा राव को। अविश्वास प्रस्ताव के कारण मंत्री परिषद् के त्यागपत्र की स्थिति में लोकसभा के विपक्ष के नेता को आमंत्रित किया जाएगा जिसे अनेक दलों का समर्थन प्राप्त हो। राष्ट्रीय संकट के समय लोकसभा भंग कर काम चलाऊ सरकार का नेता मनोनीत कर सकता है।
प्रधानमंत्री की नियुक्ति होती है या निर्वाचन से संबंधित डॉ. ए. के. वर्मा का वीडियो 👇
• प्रधानमंत्री बनने की योग्यता क्या है
प्रधानमंत्री पद के लिए योग्यता का भारतीय संविधान में कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं है। बस इतना कहा गया है कि वह लोकसभा में बहुमत प्राप्त दल का नेता हो।• उप प्रधानमंत्री का पद
भारत में समय-समय पर उप प्रधानमंत्री पद की व्यवस्था भी की गई है। सर्वप्रथम 1947 से 50 के काल में उप प्रधानमंत्री पद की व्यवस्था की गई थी जबकि पंडित जवाहरलाल नेहरू प्रधानमंत्री और सरदार वल्लभ भाई पटेल उप प्रधानमंत्री थे। दिसंबर 1950 में सरदार पटेल की मृत्यु के साथ ही उप प्रधानमंत्री पद समाप्त हो गया।
इसके बाद आम चुनाव के बाद 1967-69 के काल में उप प्रधानमंत्री पद की व्यवस्था की गई जब श्रीमती इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री और मोरारजी देसाई उप प्रधानमंत्री थे। अगस्त 1969 में श्री देसाई के पद त्याग के साथ ही उप प्रधानमंत्री पद समाप्त हो गया। इसके उपरांत जनवरी 1979 में उप प्रधानमंत्री पद की व्यवस्था की गई और दो उप प्रधानमंत्री बनाए गए - श्री चरण सिंह और श्री जगजीवन राम।
1989-91 के वर्षों में पहले वी पी सिंह मंत्रिमंडल में लगभग 7 माह तक और पुनः चंद्रशेखर मंत्रिमंडल में उप प्रधानमंत्री पद पर देवीलाल आसीन रहे।
उप प्रधानमंत्री पद का संविधान में कोई उल्लेख नहीं है, यह तो व्यावहारिक राजनीतिक सुविधा का परिणाम है। अतः उप प्रधानमंत्री को भी मंत्री के रूप में ही शपथ लेनी होती है। उप प्रधानमंत्री पद को मंत्रिमंडल के अन्य सदस्यों की तुलना में कोई भी विशेष शक्ति प्राप्त नहीं है।
व्यवहार में देखा गया है कि उप प्रधानमंत्री, प्रधानमंत्री का मुख्य सहायक होने के स्थान पर उसका प्रतिद्वंदी हो जाता है। इस दृष्टि से उप प्रधानमंत्री पद की व्यवस्था न तो प्रधानमंत्री पद के हित में है और ना ही भारतीय राजव्यवस्था के।
• प्रधानमंत्री की शक्तियां और कार्य
संसदात्मक शासन व्यवस्था के अंतर्गत प्रधानमंत्री ही संविधान की आधारशिला होता है। ब्रिटेन के प्रधानमंत्री के संबंध में Greaves का कथन है की, "उसकी शक्तियां किसी एकाधिकार पूर्ण सम्राट से कम नहीं है" और रैम्जे म्योर लिखते हैं कि "उसको इतनी अधिक शक्तियां प्राप्त है जो विश्व के किसी भी संवैधानिक प्रधान को प्राप्त नहीं है, यहां तक कि अमेरिका के राष्ट्रपति को भी नहीं है।" Greaves and Ramje Mure के कथन भारतीय प्रधानमंत्री पर भी पूर्ण रूप से लागू होते है।वर्तमान समय में ब्रिटेन और भारत जैसे देशों में प्रधानमंत्री की शक्तियां इतनी अधिक बढ़ गई है कि कुछ लोगों के अनुसार इन देशों की शासन व्यवस्था को संसदीय शासन के 'मंत्रिमंडलात्मक शासन' नहीं वरन् 'प्रधानमंत्री का शासन' (Prime Ministerial Governance) कहां जाना चाहिए।
भारतीय शासन को प्रधानमंत्री का शासन कहा जाए या नहीं इस पर विवाद किया जा सकता है। लेकिन यह सत्य है कि व्यवहारिक रूप से भारत का प्रधानमंत्री शासन का सर्वोच्च प्रधान है। प्रधानमंत्री के कार्य तथा शक्तियां निम्न है -
1. मंत्रिपरिषद का निर्माता
अपना पद ग्रहण करने के बाद प्रधानमंत्री का सर्वप्रथम कार्य मंत्रिपरिषद का निर्माण करना होता है। अपने साथियों को चुनने के संबंध में प्रधानमंत्री को पर्याप्त छूट रहती है।
प्रधानमंत्री ही निर्णय करता है कि मंत्रिपरिषद में कितने मंत्री हो और कौन-कौन मंत्री हों। प्रधानमंत्री यदि चाहे तो अपने राजनीतिक दल और संसद के बाहर के व्यक्तियों को भी मंत्रिपरिषद में शामिल कर सकता है।
2. मंत्रियों में विभागों का बंटवारा और परिवर्तन
मंत्रियों में विभागों का बंटवारा करते समय भी प्रधानमंत्री स्वविवेक के अनुसार ही कार्य करता है और प्रधानमंत्री द्वारा किए गए अंतिम विभाग वितरण पर साधारणतया कोई आपत्ति नहीं की जाती है। अपने साथियों में एक बार विभाग वितरण कर चुकने के बाद भी प्रधानमंत्री पदों में जिस प्रकार चाहे और जब चाहे परिवर्तन कर सकता है।
उसका यह अधिकार और कर्तव्य है कि वह किसी ऐसे मंत्री को त्यागपत्र देने के लिए कह दे जिसकी उपस्थिति से मंत्रिमंडल की ईमानदारी, कार्यकुशलता या शासन की नीति पर आघात पहुंचता हो।
सामूहिक उत्तरदायित्व के सिद्धांत के पालन हेतु प्रधानमंत्री को इस प्रकार की शक्ति प्राप्त होना नितांत आवश्यक है। जुलाई 1969 में कांग्रेस में तीव्र मतभेद उत्पन्न होने पर प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा अपने मंत्रिमंडल में महत्वपूर्ण परिवर्तन किए गए। प्रधानमंत्री को मंत्रिमंडल में परिवर्तन का पूर्ण अधिकार होता है।
मंत्रिपरिषद का अंत भी प्रधानमंत्री की इच्छा पर ही निर्भर करता है। संसदीय शासन में प्रधानमंत्री के त्यागपत्र को संपूर्ण मंत्री परिषद् का त्यागपत्र समझा जाता है।
इस प्रकार जैसा की लास्की ने कहा है कि
"मंत्रिपरिषद के निर्माण, उसके कार्य संचालन तथा अंत में प्रधानमंत्री को केंद्रीय स्थिति प्राप्त होती है।"
3. मंत्रिपरिषद का कार्य संचालन
प्रधानमंत्री मंत्रीमंडल की बैठकों का सभापतित्व और मंत्रिमंडल की समस्त कार्यवाही का संचालन करता है। मंत्रिपरिषद की बैठक में उन्हीं विषयों पर विचार किया जाता है जिन्हें प्रधानमंत्री कार्य सूची या एजेंडा में रखे।
यद्यपि मंत्रिपरिषद में विभिन्न बातों का निर्णय पारस्परिक सहमति के आधार पर किया जाता है, लेकिन व्यवहार में सामान्यतया प्रधानमंत्री का परामर्श ही निर्णायक होता है।
4. शासन के विभिन्न विभागों में समन्व
प्रधानमंत्री शासन के समस्त विभागों में समन्वय स्थापित करता है जिससे की समस्त शासन एक इकाई के रूप कार्य कर सके। इस उद्देश्य से उसके द्वारा विभिन्न विभागों को निर्देश दिए जा सकते हैं और मंत्रियों के विभागों तथा कार्यों में हस्तक्षेप किया जा सकता है।
5. लोकसभा का नेता
प्रधानमंत्री संसद का, मुख्यतया था लोकसभा का, नेता होता है और कानून निर्माण के समस्त कार्य में प्रधानमंत्री ही नेतृत्व प्रदान करता है। वार्षिक बजट सहित सभी सरकारी विधेयक उसके निर्देशानुसार ही तैयार किए जाते हैं। दलीय संचेतक द्वारा वह अपने दल के सदस्यों को आवश्यक आदेश देता है और लोकसभा में व्यवस्था रखने में वह अध्यक्ष की सहायता करता है।
इस संबंध में उसकी एक अन्य महत्वपूर्ण शक्ति लोकसभा को भंग करने की है। अपनी इस शक्ति के आधार पर प्रधान मंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा राष्ट्रपति को परामर्श देखकर 27 दिसंबर 1970 को (सामान्य कार्यकाल के लगभग 14 माह पूर्व) लोकसभा को भंग कराया गया।
6. राष्ट्रपति तथा मंत्रिमंडल के बीच संबंध स्थापितकर्ता
सार्वजनिक महत्व के मामलों पर राष्ट्र के प्रधान से केवल प्रधानमंत्री के माध्यम से ही संपर्क स्थापित किया जा सकता है। वहीं राष्ट्रपति को मंत्रिमंडल के निश्चयों से परिचित कराता है और वही राष्ट्रपति के परामर्श को मंत्रिमंडल तक पहुंचाता है।
राष्ट्रपति तथा प्रधानमंत्री के बीच जो विचार-विमर्श होता है उसे पूर्णतया गुप्त ही रखा जाता है। इस प्रकार प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति तथा मंत्रिमंडल के बीच कड़ी का कार्य करता है।
7. विभिन्न पद प्रदान करना
संविधान द्वारा राष्ट्रपति को जिन उच्च पदाधिकारियों की नियुक्ति का अधिकार दिया गया है, व्यवहार में उनकी नियुक्ति राष्ट्रपति स्वविवेक से नहीं वरन प्रधानमंत्री के परामर्श से ही करता है।
8. उपाधियां प्रदान करना (To Give Tithes)
भारतीय संविधान द्वारा राष्ट्रीय सेवा के उपलक्ष्य में भारत रत्न, पद्म विभूषण, पद्म भूषण और पदम श्री आदि उपाधियां और सम्मान की व्यवस्था की गई है, व्यवहार में वें उपाधियां प्रधानमंत्री के परामर्श पर ही राष्ट्रपति द्वारा प्रदान की जाती है।
9. अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में भारत का प्रतिनिधित्व
अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में भारतीय प्रधानमंत्री का स्थान अत्यंत महत्वपूर्ण है। चाहे विदेश विभाग प्रधानमंत्री के हाथ में न हो फिर भी अंतिम रूप में विदेश नीति का निर्धारण प्रधानमंत्री के द्वारा ही किया जाता है। यह महत्वपूर्ण अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में राष्ट्र के प्रतिनिधि के रूप में अंतर्राष्ट्रीय समस्याओं पर विचार-विमर्श में भाग लेता है।
10. शासन का प्रमुख प्रवक्ता
संसद, देश तथा विदेश में शासन की नीति का प्रमुख तथा अधिकृत प्रवक्ता प्रधानमंत्री ही होता है। यदि कभी संसद में किन्ही दो मंत्रियों के परस्पर विरोधी वक्तव्यों के कारण भ्रम और विवाद उत्पन्न हो जाए तो प्रधानमंत्री का वक्तव्य ही इस स्थिति को समाप्त कर सकता है।
11. आम चुनाव प्रधानमंत्री का चुनाव
जिस बात ने प्रधानमंत्री की स्थिति को अधिक महत्वपूर्ण बना दिया है, वह यह है कि भारत में भी आम चुनाव प्रधानमंत्री का चुनाव होता है। प्रधानमंत्री अपने राजनीतिक दल का नेता होता है अतः आम चुनाव उसी के नाम से ही लड़े जाते हैं। राजनीतिक दल चुनाव में बहुमत मिलने पर उनकी तरफ से कौन प्रधानमंत्री होगा, इसकी घोषणा कर देते हैं।
इस प्रकार के चुनाव स्वाभाविक रूप से प्रधानमंत्री की प्रतिष्ठा और शक्ति में बहुत वृद्धि कर देते हैं।
12. देश का सर्वोच्च नेता तथा शासक
एक पंक्ति में प्रधानमंत्री देश का सर्वोच्च नेता तथा शासक होता है। सिद्धांत रूप में न सही, लेकिन व्यवहार में देश का समस्त शासन उसी की इच्छा अनुसार संचालित होता है। यह व्यवस्थापिका से अपनी इच्छानुसार कानून बनवा सकता है और संविधान में आवश्यक संशोधन करवा सकता है। मंत्रिपरिषद में उसकी स्थिति सर्वोपरि होती है।
देश की जनता हो या संसद, राज्य सरकारें हो या प्रधानमंत्री का अपना राजनीतिक दल, हर कोई नेतृत्व के लिए प्रधानमंत्री की ओर देखता है। व्यवहार के अंतर्गत प्रधानमंत्री पदधारी व्यक्तियों ने इस पद की शक्तियों और सम्मान में सामान्यतः वृद्धि की है।
भारतीय संविधान और शासन के अंतर्गत प्रारंभ से ही मंत्रिपरिषद में प्रधानमंत्री को बहुत अधिक महत्वपूर्ण स्थिति प्राप्त थी और संविधान लागू किए जाने के बाद से लेकर अब तक मंत्रिपरिषद में उसकी स्थिति और अधिक महत्वपूर्ण हुई है।
जिन बातों ने प्रधानमंत्री को मंत्रिपरिषद में बहुत अधिक महत्वपूर्ण स्थिति तथा मंत्रिपरिषद पर लगभग पूर्ण नियंत्रण प्रदान किया है, वह इस प्रकार है -
* प्रधानमंत्री मंत्रिपरिषद का निर्माण बहुत अधिक सीमा तक स्वविवेक से ही करता है। वह ऐसे व्यक्तियों को भी मंत्रिपरिषद में ले सकता है जिन्हें दल में कोई महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त न हो और देश में जिनका नाम बहुत थोड़े व्यक्ति जानते हो।
श्री टी एन सिंह, श्री लाल बहादुर शास्त्री की ओर गोपाल स्वरूप पाठक, डॉ कर्ण सिंह, टी ए पई, मोहन कुमार मंगलम और दुर्गा प्रसाद धर, श्रीमती इंदिरा गांधी की व्यक्तिगत पसंद से ही मंत्रिपरिषद के सदस्य बने थे। 1985 से लेकर 1988 तक राजीव मंत्रिमंडल के अधिकांश सदस्यों को प्रधानमंत्री राजीव गांधी की व्यक्तिगत पसंद ही कहा जा सकता था। 1991 में गठित मंत्रिमंडल में मनमोहन सिंह पी वी नरसिंह राव की व्यक्तिगत पसंद ही थे। इसी प्रकार 1999 में गठित मंत्रिपरिषद में जसवंत सिंह प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई की व्यक्तिगत पसंद कहे जा सकते हैं।
* मंत्रिपरिषद के सदस्यों में विभागों का वितरण प्रधानमंत्री के द्वारा ही किया जाता है।
* प्रधानमंत्री मंत्रियों के विभागों में परिवर्तन कर सकता है और उन से त्यागपत्र भी मांग सकता है। 1966 में नंदा, 1969 में देसाई, 1980 में श्री कमलापति त्रिपाठी, 1986 में श्री अरुण नेहरू, 1987 में श्री विश्वनाथ प्रताप सिंह का त्याग पत्र तथा 1990 में श्री देवीलाल की बर्खास्तगी प्रधानमंत्री की शक्ति का परिचय देते हैं। मंत्रिपरिषद के पुनर्गठन में प्रधानमंत्री बहुत अधिक सीमा तक अपनी इच्छा अनुसार कार्य कर सकता है।
* प्रधानमंत्री मंत्रियों को उनके विभागीय कार्यों के संबंध में निर्देश दे सकता है और आवश्यक होने पर उनके कार्यों में हस्तक्षेप कर सकता है। 'कैबिनेट सचिवालय' और 'प्रधानमंत्री सचिवालय' के माध्यम से भी प्रधानमंत्री सभी विभागों पर पूर्ण नियंत्रण रखता है।
* प्रधानमंत्री शासन के विभिन्न विभागों में समन्वय स्थापित करता है। वह मंत्रियों के मतभेदों को दूर कर उनमें सामंजस्य बनाए रखता है।
* प्रधानमंत्री मंत्रिपरिषद की बैठकों की अध्यक्षता करता है और मंत्रिमंडल की समस्त कार्य विधि पर उसका पूर्ण नियंत्रण होता है।
* मंत्रिपरिषद की ओर से संसद में घोषणा का कार्य प्रधानमंत्री के द्वारा ही किया जाता है।
मंत्रिपरिषद में प्रधानमंत्री की स्थिति को स्पष्ट करते हुए संविधान सभा में डॉक्टर भीमराव अंबेडकर ने कहा था, "प्रधानमंत्री वास्तव में मंत्रीमंडल रूपी भवन के वृत्त खंड की मुख्य शीला है और जब तक हम इस पदाधिकारी को इतनी अधिकारपूर्ण स्थिति प्रदान न करें कि वह स्वेच्छा से मंत्रियों की नियुक्ति या पदच्युति कर सके, तब तक मंत्रिमंडल का सामूहिक उत्तरदायित्व प्राप्त नहीं किया जा सकता।"
प्रधानमंत्री तथा उसके सहयोगियों के पारस्परिक संबंध को स्पष्ट करने के लिए विविध प्रकार की उक्तियों का प्रयोग किया जाता रहा है।
इस संबंध में लॉर्ड मार्ले की शब्दावली "समकक्षों में प्रथम" (Primus inter pares) तो बहुत बीते हुए समय की बात हो चुकी है। अब तो सर विलियम हारकोर्ट उसे "नक्षत्रों के बीच चंद्रमा" और डॉक्टर जिनिंग्ज ऐसा सूर्य बतलाते हैं जिसके चारों और समस्त ग्रह घूमते रहते हैं। मंत्रिपरिषद में भारतीय प्रधानमंत्री की स्थिति पर हारकोर्ट और जैनिंग्ज के ये कथन पूर्ण रूप से लागू होते हैं।
पंडित जवाहरलाल नेहरू को प्रधानमंत्री के रूप में अपनी मंत्रिपरिषद पर पूर्ण नियंत्रण प्राप्त था और श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा अपने प्रधानमंत्री काल में मंत्रिपरिषद में बहुत अधिक महत्वपूर्ण और प्रभावपूर्ण स्थिति का उपयोग किया गया।
मंत्रिमंडल और समस्त राज व्यवस्था में प्रधानमंत्री की स्थिति व्यवहारिक राजनीति की कुछ परिस्थितियों पर निर्भर करती है। प्रमुख रूप से ये स्थितियां है - प्रधानमंत्री के दल की लोकसभा और राज्यसभा में स्थिति अर्थात् प्रधानमंत्री एक दलीय सरकार का नेतृत्व कर रहा है या बहुदलीय सरकार का ; स्वयं प्रधानमंत्री का व्यक्तित्व, राष्ट्र के प्रति उसकी सेवा, अपने राजनीतिक दल में उनका स्थान और प्रधानमंत्री को व्यवहार में प्राप्त सफलताएं-असफलताएं।
एकदलीय सरकार प्रधानमंत्री को शक्तिशाली बनाती है। लेकिन मिली जुली सरकार प्रधानमंत्री (Prime Minister) पद की शक्तियों को सीमित कर देती है।
प्रधानमंत्री मंत्रीमंडल की बैठकों का सभापतित्व और मंत्रिमंडल की समस्त कार्यवाही का संचालन करता है। मंत्रिपरिषद की बैठक में उन्हीं विषयों पर विचार किया जाता है जिन्हें प्रधानमंत्री कार्य सूची या एजेंडा में रखे।
यद्यपि मंत्रिपरिषद में विभिन्न बातों का निर्णय पारस्परिक सहमति के आधार पर किया जाता है, लेकिन व्यवहार में सामान्यतया प्रधानमंत्री का परामर्श ही निर्णायक होता है।
4. शासन के विभिन्न विभागों में समन्व
प्रधानमंत्री शासन के समस्त विभागों में समन्वय स्थापित करता है जिससे की समस्त शासन एक इकाई के रूप कार्य कर सके। इस उद्देश्य से उसके द्वारा विभिन्न विभागों को निर्देश दिए जा सकते हैं और मंत्रियों के विभागों तथा कार्यों में हस्तक्षेप किया जा सकता है।
5. लोकसभा का नेता
प्रधानमंत्री संसद का, मुख्यतया था लोकसभा का, नेता होता है और कानून निर्माण के समस्त कार्य में प्रधानमंत्री ही नेतृत्व प्रदान करता है। वार्षिक बजट सहित सभी सरकारी विधेयक उसके निर्देशानुसार ही तैयार किए जाते हैं। दलीय संचेतक द्वारा वह अपने दल के सदस्यों को आवश्यक आदेश देता है और लोकसभा में व्यवस्था रखने में वह अध्यक्ष की सहायता करता है।
इस संबंध में उसकी एक अन्य महत्वपूर्ण शक्ति लोकसभा को भंग करने की है। अपनी इस शक्ति के आधार पर प्रधान मंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा राष्ट्रपति को परामर्श देखकर 27 दिसंबर 1970 को (सामान्य कार्यकाल के लगभग 14 माह पूर्व) लोकसभा को भंग कराया गया।
6. राष्ट्रपति तथा मंत्रिमंडल के बीच संबंध स्थापितकर्ता
सार्वजनिक महत्व के मामलों पर राष्ट्र के प्रधान से केवल प्रधानमंत्री के माध्यम से ही संपर्क स्थापित किया जा सकता है। वहीं राष्ट्रपति को मंत्रिमंडल के निश्चयों से परिचित कराता है और वही राष्ट्रपति के परामर्श को मंत्रिमंडल तक पहुंचाता है।
राष्ट्रपति तथा प्रधानमंत्री के बीच जो विचार-विमर्श होता है उसे पूर्णतया गुप्त ही रखा जाता है। इस प्रकार प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति तथा मंत्रिमंडल के बीच कड़ी का कार्य करता है।
7. विभिन्न पद प्रदान करना
संविधान द्वारा राष्ट्रपति को जिन उच्च पदाधिकारियों की नियुक्ति का अधिकार दिया गया है, व्यवहार में उनकी नियुक्ति राष्ट्रपति स्वविवेक से नहीं वरन प्रधानमंत्री के परामर्श से ही करता है।
8. उपाधियां प्रदान करना (To Give Tithes)
भारतीय संविधान द्वारा राष्ट्रीय सेवा के उपलक्ष्य में भारत रत्न, पद्म विभूषण, पद्म भूषण और पदम श्री आदि उपाधियां और सम्मान की व्यवस्था की गई है, व्यवहार में वें उपाधियां प्रधानमंत्री के परामर्श पर ही राष्ट्रपति द्वारा प्रदान की जाती है।
9. अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में भारत का प्रतिनिधित्व
अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में भारतीय प्रधानमंत्री का स्थान अत्यंत महत्वपूर्ण है। चाहे विदेश विभाग प्रधानमंत्री के हाथ में न हो फिर भी अंतिम रूप में विदेश नीति का निर्धारण प्रधानमंत्री के द्वारा ही किया जाता है। यह महत्वपूर्ण अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में राष्ट्र के प्रतिनिधि के रूप में अंतर्राष्ट्रीय समस्याओं पर विचार-विमर्श में भाग लेता है।
10. शासन का प्रमुख प्रवक्ता
संसद, देश तथा विदेश में शासन की नीति का प्रमुख तथा अधिकृत प्रवक्ता प्रधानमंत्री ही होता है। यदि कभी संसद में किन्ही दो मंत्रियों के परस्पर विरोधी वक्तव्यों के कारण भ्रम और विवाद उत्पन्न हो जाए तो प्रधानमंत्री का वक्तव्य ही इस स्थिति को समाप्त कर सकता है।
11. आम चुनाव प्रधानमंत्री का चुनाव
जिस बात ने प्रधानमंत्री की स्थिति को अधिक महत्वपूर्ण बना दिया है, वह यह है कि भारत में भी आम चुनाव प्रधानमंत्री का चुनाव होता है। प्रधानमंत्री अपने राजनीतिक दल का नेता होता है अतः आम चुनाव उसी के नाम से ही लड़े जाते हैं। राजनीतिक दल चुनाव में बहुमत मिलने पर उनकी तरफ से कौन प्रधानमंत्री होगा, इसकी घोषणा कर देते हैं।
इस प्रकार के चुनाव स्वाभाविक रूप से प्रधानमंत्री की प्रतिष्ठा और शक्ति में बहुत वृद्धि कर देते हैं।
12. देश का सर्वोच्च नेता तथा शासक
एक पंक्ति में प्रधानमंत्री देश का सर्वोच्च नेता तथा शासक होता है। सिद्धांत रूप में न सही, लेकिन व्यवहार में देश का समस्त शासन उसी की इच्छा अनुसार संचालित होता है। यह व्यवस्थापिका से अपनी इच्छानुसार कानून बनवा सकता है और संविधान में आवश्यक संशोधन करवा सकता है। मंत्रिपरिषद में उसकी स्थिति सर्वोपरि होती है।
देश की जनता हो या संसद, राज्य सरकारें हो या प्रधानमंत्री का अपना राजनीतिक दल, हर कोई नेतृत्व के लिए प्रधानमंत्री की ओर देखता है। व्यवहार के अंतर्गत प्रधानमंत्री पदधारी व्यक्तियों ने इस पद की शक्तियों और सम्मान में सामान्यतः वृद्धि की है।
• प्रधानमंत्री और मंत्रिपरिषद में क्या संबंध है / मंत्रिपरिषद में प्रधानमंत्री का स्थान
भारतीय संविधान सभा में लगभग एकमत से इस बात को स्वीकार किया गया था कि भारतीय राजव्यवस्था में प्रधानमंत्री की स्थिति वही है जो ब्रिटेन की राजव्यवस्था में वहां के प्रधानमंत्री की है। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद ब्रिटेन की संसदीय मंत्रिमंडलात्मक व्यवस्था में जो परिवर्तन हुए हैं उनमें सबसे अधिक महत्वपूर्ण परिवर्तन यह है कि मंत्रिपरिषद पर प्रधानमंत्री की पूर्ण सत्ता स्थापित हो गई है।भारतीय संविधान और शासन के अंतर्गत प्रारंभ से ही मंत्रिपरिषद में प्रधानमंत्री को बहुत अधिक महत्वपूर्ण स्थिति प्राप्त थी और संविधान लागू किए जाने के बाद से लेकर अब तक मंत्रिपरिषद में उसकी स्थिति और अधिक महत्वपूर्ण हुई है।
जिन बातों ने प्रधानमंत्री को मंत्रिपरिषद में बहुत अधिक महत्वपूर्ण स्थिति तथा मंत्रिपरिषद पर लगभग पूर्ण नियंत्रण प्रदान किया है, वह इस प्रकार है -
* प्रधानमंत्री मंत्रिपरिषद का निर्माण बहुत अधिक सीमा तक स्वविवेक से ही करता है। वह ऐसे व्यक्तियों को भी मंत्रिपरिषद में ले सकता है जिन्हें दल में कोई महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त न हो और देश में जिनका नाम बहुत थोड़े व्यक्ति जानते हो।
श्री टी एन सिंह, श्री लाल बहादुर शास्त्री की ओर गोपाल स्वरूप पाठक, डॉ कर्ण सिंह, टी ए पई, मोहन कुमार मंगलम और दुर्गा प्रसाद धर, श्रीमती इंदिरा गांधी की व्यक्तिगत पसंद से ही मंत्रिपरिषद के सदस्य बने थे। 1985 से लेकर 1988 तक राजीव मंत्रिमंडल के अधिकांश सदस्यों को प्रधानमंत्री राजीव गांधी की व्यक्तिगत पसंद ही कहा जा सकता था। 1991 में गठित मंत्रिमंडल में मनमोहन सिंह पी वी नरसिंह राव की व्यक्तिगत पसंद ही थे। इसी प्रकार 1999 में गठित मंत्रिपरिषद में जसवंत सिंह प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई की व्यक्तिगत पसंद कहे जा सकते हैं।
* मंत्रिपरिषद के सदस्यों में विभागों का वितरण प्रधानमंत्री के द्वारा ही किया जाता है।
* प्रधानमंत्री मंत्रियों के विभागों में परिवर्तन कर सकता है और उन से त्यागपत्र भी मांग सकता है। 1966 में नंदा, 1969 में देसाई, 1980 में श्री कमलापति त्रिपाठी, 1986 में श्री अरुण नेहरू, 1987 में श्री विश्वनाथ प्रताप सिंह का त्याग पत्र तथा 1990 में श्री देवीलाल की बर्खास्तगी प्रधानमंत्री की शक्ति का परिचय देते हैं। मंत्रिपरिषद के पुनर्गठन में प्रधानमंत्री बहुत अधिक सीमा तक अपनी इच्छा अनुसार कार्य कर सकता है।
* प्रधानमंत्री मंत्रियों को उनके विभागीय कार्यों के संबंध में निर्देश दे सकता है और आवश्यक होने पर उनके कार्यों में हस्तक्षेप कर सकता है। 'कैबिनेट सचिवालय' और 'प्रधानमंत्री सचिवालय' के माध्यम से भी प्रधानमंत्री सभी विभागों पर पूर्ण नियंत्रण रखता है।
* प्रधानमंत्री शासन के विभिन्न विभागों में समन्वय स्थापित करता है। वह मंत्रियों के मतभेदों को दूर कर उनमें सामंजस्य बनाए रखता है।
* प्रधानमंत्री मंत्रिपरिषद की बैठकों की अध्यक्षता करता है और मंत्रिमंडल की समस्त कार्य विधि पर उसका पूर्ण नियंत्रण होता है।
* मंत्रिपरिषद की ओर से संसद में घोषणा का कार्य प्रधानमंत्री के द्वारा ही किया जाता है।
मंत्रिपरिषद में प्रधानमंत्री की स्थिति को स्पष्ट करते हुए संविधान सभा में डॉक्टर भीमराव अंबेडकर ने कहा था, "प्रधानमंत्री वास्तव में मंत्रीमंडल रूपी भवन के वृत्त खंड की मुख्य शीला है और जब तक हम इस पदाधिकारी को इतनी अधिकारपूर्ण स्थिति प्रदान न करें कि वह स्वेच्छा से मंत्रियों की नियुक्ति या पदच्युति कर सके, तब तक मंत्रिमंडल का सामूहिक उत्तरदायित्व प्राप्त नहीं किया जा सकता।"
प्रधानमंत्री तथा उसके सहयोगियों के पारस्परिक संबंध को स्पष्ट करने के लिए विविध प्रकार की उक्तियों का प्रयोग किया जाता रहा है।
इस संबंध में लॉर्ड मार्ले की शब्दावली "समकक्षों में प्रथम" (Primus inter pares) तो बहुत बीते हुए समय की बात हो चुकी है। अब तो सर विलियम हारकोर्ट उसे "नक्षत्रों के बीच चंद्रमा" और डॉक्टर जिनिंग्ज ऐसा सूर्य बतलाते हैं जिसके चारों और समस्त ग्रह घूमते रहते हैं। मंत्रिपरिषद में भारतीय प्रधानमंत्री की स्थिति पर हारकोर्ट और जैनिंग्ज के ये कथन पूर्ण रूप से लागू होते हैं।
पंडित जवाहरलाल नेहरू को प्रधानमंत्री के रूप में अपनी मंत्रिपरिषद पर पूर्ण नियंत्रण प्राप्त था और श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा अपने प्रधानमंत्री काल में मंत्रिपरिषद में बहुत अधिक महत्वपूर्ण और प्रभावपूर्ण स्थिति का उपयोग किया गया।
मंत्रिमंडल और समस्त राज व्यवस्था में प्रधानमंत्री की स्थिति व्यवहारिक राजनीति की कुछ परिस्थितियों पर निर्भर करती है। प्रमुख रूप से ये स्थितियां है - प्रधानमंत्री के दल की लोकसभा और राज्यसभा में स्थिति अर्थात् प्रधानमंत्री एक दलीय सरकार का नेतृत्व कर रहा है या बहुदलीय सरकार का ; स्वयं प्रधानमंत्री का व्यक्तित्व, राष्ट्र के प्रति उसकी सेवा, अपने राजनीतिक दल में उनका स्थान और प्रधानमंत्री को व्यवहार में प्राप्त सफलताएं-असफलताएं।
एकदलीय सरकार प्रधानमंत्री को शक्तिशाली बनाती है। लेकिन मिली जुली सरकार प्रधानमंत्री (Prime Minister) पद की शक्तियों को सीमित कर देती है।
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