स्वामी विवेकानंद ने राजनीतिक आंदोलन में कभी सक्रिय भूमिका नहीं निभाई। वे संन्यासी थे और धर्म से जुड़े हुए थे।उन्होंने स्वयं कहा था, "मैं न राजनीतिज्ञ हूं और न राजनीतिक आंदोलन करने वालों में से हूं।" परंतु भारतीयों को जिस शक्ति निर्भयता और कर्म की प्रेरणा उन्होंने दी, वह अप्रत्यक्ष रूप से भारतीय राष्ट्रवाद के लिए अमूल्य सिद्ध हुई।
उनका राजनीतिक क्षेत्र में योगदान अग्रवत् है :
1. राष्ट्रवाद का आध्यात्मिक सिद्धांत : उन्होने इस क्षेत्र में अन्य किसी भी विचारक की अपेक्षा मौलिक कार्य किया, जिसे बाद में विपिन चंद्र पाल एवं अरविंद घोष ने आगे बढ़ाया।
उनका मत था की राष्ट्र की भावी महानता का निर्माण उसके अतीत के गौरव की नींव पर ही किया जा सकता है। उन्होंने राष्ट्रवाद को एक नए स्वरूप में प्रस्तुत करके, धर्म एवं संस्कृति को आधार बनाकर आध्यात्मिक राष्ट्रवाद का प्रतिपादन किया।
2. स्वतंत्रता का सिद्धांत : विवेकानंद ने मानव की संपूर्ण और सर्वव्यापक स्वतंत्रता को महत्व पूर्ण स्थान दिया। स्वतंत्रता की रक्षा के लिए, उन्होंने समस्त प्रकार के अन्याय का विरोध करने की प्रेरणा दी। स्वतंत्रता को उन्होंने मानव का प्राकृतिक अधिकार स्वीकार किया और कहा कि समाज के सभी सदस्यों को यह समान रूप से प्राप्त होने चाहिए।
3. शक्ति एवं निर्भयता या प्रतिरोध का सिद्धांत : उन्होंने 'आत्मा की सबलता' का पाठ पढ़ाया। शक्ति के अभाव में हम न तो अपना अस्तित्व बनाए रख सकते हैं और न हीं अपने अधिकारों की रक्षा ही कर सकते हैं। शक्ति के बिना न तो व्यक्ति निर्भीक बन सकता है और न ही अनुचित कार्यों का प्रतिरोध कर सकता है। अतः वे आत्मा पर आरोपित सभी प्रकार के प्रतिबंधों के विरुद्ध थे। वे युवकों को आह्वान करते हुए कहते थे, "उत्साह से हृदय भर लो....... कम करो........ भारत का भविष्य तुम पर निर्भर करता है।"
4. व्यक्ति के गौरव में विश्वास : राष्ट्र का निर्माण व्यक्तियों से ही होता है,अंत: यदि व्यक्ति में अच्छे गुणों का विकास नहीं होगा तो राष्ट्र भी शक्तिशाली नहीं हो पाएगा। व्यक्ति एक ऐसा प्राणी है, जो मुक्ति प्राप्त करने की क्षमता रखता है, अंत: वह सर्वश्रेष्ठ है। ऐसे गौरवपूर्ण व्यक्तियों को सभी अधिकार, किसी भेदभाव के बिना प्राप्त होने चाहिए।
5. आदर्श राज्य की कल्पना : 1896 में लंदन से कुमारी हेल को लिखे गए पत्र में उन्होंने लिखा था कि पहले ब्राह्मणों का राज आता है, फिर क्षत्रियों का और तब वैश्य-राज्य आता है। अन्त में मजदूरों का राज्य आएगा। उसका लाभ होगा - भौतिक सुखों का शाम समान वितरण।
इस प्रकार आदर्श राज्य की कल्पना के माध्यम से उन्होंने पिछड़े वर्ग के उदय में विश्वास व्यक्त किया है। वे कहते है, "यदि ऐसा राज्य स्थापित करना संभव हो जिसमें ब्राह्मण -काल का ज्ञान, क्षत्रीय काल की सभ्यता, वैश्य-काल का प्रचार-भाव एवं शूद्र काल की समानता रखी जा सके एवं उनके दोषों का त्याग किया जा सके तो वह आदर्श राज्य होगा।"
6. अंतर्राष्ट्रवादी : उन्होंने वेदांत के इस विचार को प्रस्तुत किया कि सब मनुष्यों में समान आत्मा है। शिकागो धर्म सम्मेलन में, जहां अन्य प्रतिनिधि अपने-अपने धर्म के ईश्वर की चर्चा करते रहे, वहां केवल विवेकानंद ने सबके ईश्वर की बात की। यद्यपि उन्हें भारत से असीम प्यार था, परंतु दुनिया के अन्य किसी भी व्यक्ति या राष्ट्र से उन्हें घृणा नहीं थी।
वे मानव-मात्र के कल्याण के समर्थक और विश्व बंधुत्ववादी थे। इसलिए उन्होंने कहा कि हमें पश्चिम से बहुत कुछ सीखना है। वे मानते थे कि जो व्यक्ति और समाज, दूसरों से कुछ नहीं सिखाता, वह मृत्यु के मुंह में पहुंच जाता है।
7. समाजवाद : विवेकानंद ने स्वयं को समाजवादी घोषित किया था। उनके मन में गरीबों के प्रति अपार संवेदना थी। वे पूंजीवादी शोषण के विरोधी थे। वे शोषक निष्ठुर अमीरों का उपहास करते थे।
भारत की निर्धनता और अशिक्षा को वे कलंक मानते थे और भूखे व्यक्ति को धर्म की शिक्षा देना अर्थहीन समझते थे। उन्हें जनसाधारण की भक्ति में असीम विश्वास था। उन्होंने पूंजीपतियों को चेतावनी देते हुए कहा था , "जब जन-साधारण जाग जाएगा तो वह तुम्हारे द्वारा किए गए दमन को समझ जाएगा और उसके मुख की एक फूंक तुमको पूरा उड़ा देगी।"
निष्कर्ष : उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है की स्वामी विवेकानंद ने देश में शक्ति व निर्भयता का संचार किया तथा भारतीयों को हीनता के बोध से मुक्त किया। उन्होंने राष्ट्रीय विचारधारा को नया स्वरूप देने का जो कार्य किया, वह अरविंद, विपिन चंद्र पाल, तिलक एवं गांधी के लिए उपयुक्त आधारभूमि प्रमाणित हुआ।
स्वामी विवेकानंद का सामाजिक क्षेत्र में योगदान
समाज सुधार के प्रति उनके विचार से सुस्पष्ट थे। उन्होंने जाति प्रथा, संप्रदायवाद, छुआछूत तथा सब प्रकार की विषमताओं का विरोध किया। उनके सामाजिक क्षेत्र में योगदान को निम्न रूप से व्यक्त किया जा सकता है :
1. समाज का सावयवी स्वरूप : स्पेन्सर के समान उन्होंने समाज को सावयव स्वीकार करते हुए कहा कि व्यक्ति समाज का ही अंग है। अतः समाज की प्रगति तभी संभव है, जब उसके घटक कुछ बलिदान करें।
2. रूढ़िवाद का विरोध : भारत में व्याप्त छुआछूत का विरोध करते हुए, उन्होंने संकीर्ण भारतीय मानसिकता की आलोचना की। उन्होंने कूप- मंडूक न बनकर, खुली आंखों से विश्व को देखने को कहा।
3. गरीब एवं दलित वर्ग का उद्धार : उन्होंने जो कहा, वह रामकृष्ण मिशन के माध्यम से करके दिखाया। इस प्रकार उन्होंने धर्म को मानवता व समाज से जोड़ने का कार्य किया। इस क्षेत्र में वे सबसे बड़े समाजवादी व गांधी के अग्रगामी थे। गरीबों के उत्थान के लिए उन्होंने शिक्षित वर्ग का आह्वान किया।
4. सामाजिक विषमता का अंत : उन्होनें कहा, "सभी प्राणियों में एक जैसी आत्मा है।" अंत: समाज में सब समान है और ऊच नीच के भेदभाव को समाप्त करके सबको समान अवसर प्रदान किया जाने चाहिए।
5. बाल विवाह का विरोध : वे कहते थे, "जिस प्रथा के अनुसार अबोध बालिकाओं का पानी ग्रहण होता है, उसके साथ में किसी भी प्रकार का संबंध रखने में असमर्थ हूं। उनका मत था कि शिक्षित हो जाने पर जनता इस प्रकार की कुरीतियों को समाप्त करने में समर्थ हो जाएगी।"
6. जाति प्रथा एवं पुरोहितों के अधिकारवाद का विरोध : उन्होंने कहा कि जातिवाद देश और समाज के लिए आत्म-घातक है और आधुनिक युग में इसकी कोई उपयोगिता नहीं है। उन्होंने लोकतांत्रिक अध्यात्मवाद का आदर्श रखते हुए क्रांतिकारी विचार प्रस्तुत किया। उन्होंने परंपरावादी ब्राह्मणों के अधिकारों का खंडन किया।
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