आदिकाल की राजनीतिक परिस्थितियां
आठवीं शताब्दी से लेकर 15 वीं शताब्दी तक भारतीय इतिहास की राजनीतिक परिस्थिति ऐसी रही जिसमें धीरे-धीरे हिंदू सत्ता का क्षय हो गया और मुस्लिम सत्ता का उदय होता गया। वस्तुत: यह युग राजनीतिक पराजय और ग्रहकलह का युग था। एक और विदेशी आक्रमणकारी अपने आक्रमणों से देश को अपने अधिकार में लेने का प्रयास कर रहे थे, दूसरी ओर राजा और सामन्त पारस्परिक फूट से इर्ष्या और द्वेष की आग में जल रहे थे।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के शब्दों में 'हर्षवर्धन' के उपरांत ही साम्राज्य भावना देश में अन्तर्हित हो गई थी और खंड-खंड होकर गहरवार, चौहान, चंदेल, परिहार आदि राजपूत राज्य अपने प्रभाव की वृद्धि के लिए परस्पर लड़ा करते थे। लड़ाई किसी आवश्यकता पर नहीं होती थी, कभी-कभी तो मात्र शौर्य प्रदर्शन के लिए ही मोल ले ली जाती थी। बीच-बीच में मुसलमानों के हमले होते रहते थे।
सारांश यह है कि जिस समय से हमारे हिंदी साहित्य का अभ्युदय होता है, वह लड़ाई का समय था।
हर्ष की मृत्यु के पश्चात उत्तरी भारत में मिहिर भोज ने तथा दक्षिण में राष्ट्रकूट वंश के सम्राटों ने राजशक्ति के बिखरे हुए सूत्रों को एकत्र करने का प्रयास किया था। किंतु उसी समय भारत के पश्चिमी द्वार पर मुस्लिम आक्रमणकारियों ने दस्तक देना शुरू कर दिया था।
प्रथम मुस्लिम आक्रांता मोहम्मद बिन कासिम ने जब आठवीं शताब्दी में सिन्ध पर आक्रमण किया था, तब वहां के ब्राह्मण राजा दाहिर ने घरेलू फूट और कलह के होते हुए भी घमासान युद्ध किया, किंतु पराजित होने के कारण उसने आग में जलकर आत्मोत्सर्गं कर दिया। विजय मद में मस्त होकर जब मुस्लिम सेना आगे बढ़ी तो चालुक्य सेना ने उसे बुरी तरह पराजित कर दिया।
10वीं शताब्दी में गजनी के सुल्तान महमूद गजनवी ने भारत पर अट्ठारह बार आक्रमण किये और वह देश की अपार धनराशि को लूटकर ले गया। गजनी के ही दूसरे सुल्तान मोहम्मद गोरी ने भारत के अंतिम हिंदू सम्राट पृथ्वीराज चौहान को पराजित कर भारत को दासता की बेड़ियां पहना दी ।
वास्तव में हर्ष के पश्चात उत्तरी भारत में प्रबल केंद्रीय सत्ता के अभाव में अनेक छोटे-छोटे राज्य स्थापित हो चुके थे। वे राज्य परस्पर तो लड़ा ही करते थे, साथ ही मुसलमानों के आक्रमणों का सामना भी करते। राजा-महाराजा छोटी-छोटी बातों पर ही परस्पर युद्ध छेड़ दिया करते थे। व्यर्थ का शौर्य प्रदर्शन, मिथ्याभिमान की भावना, अपने आपको सर्वोपरि समझने का भ्रम राजाओं के युद्ध के बहाने थे।
सुंदरी राजकुमारीयों का अपहरण युद्ध के लिए अग्नि में घी की आहुति का काम किया करता था, किंतु तत्कालीन राजा-महाराजाओं का यह बल- विक्रम अपने घर वालों तक ही सीमित रहा। उनकी मूंछे अपने भाइयों के सामने ही ऊंची रही।मुसलमान आक्रमणकारियों ने अपने गृह कलह, पारस्परिक वैमनस्य एवं फूट से लाभ उठाकर उनको एक-एक करके पराजित कर दिया।
लखनऊ के मिर्जा और मीर जैसे शतरंज के खिलाड़ियों की भांति उनकी वीरता अपने देश के लिए,अपने भाइयों के लिए काम नहीं आ सकी। वह तो पहले ही आपस में लड़ने में समाप्त हो चुकी थी। ऐसे भीषण समय में तत्कालीन एक जयचन्द ने देश को गुलामी की जंजीरों में जकड़ा कर आगे के लिए अनेक जयचंदों का रास्ता साफ कर दिया।
आदिकाल की धार्मिक परिस्थितियां
इस काल में धर्म के क्षेत्र में भी राजनीति की भांति अराजकता और स्वेच्छाचारिता का बोलबाला रहा। दसवीं शताब्दी तक आते-आते बौद्ध धर्म का पतन हो गया था। परंपरागत वैदिक धर्म उससे पहले ही अपना प्रभुत्व खो चुका था और अब जैन धर्म और शैव मत का उत्कर्ष हो रहा था।
किंतु धीरे-धीरे वैदिक और पौराणिक धर्मों की भांति जैन धर्म और बौद्ध धर्म भी विकारों के शिकार हो गए थे। बौद्ध धर्म हिनयान, महायान, वज्रयान, मंत्रयान आदि अनेक संप्रदायों में विभक्त होकर अपनी अंतिम सांसे गिन रहा था। बौद्धों के ये विभिन्न संप्रदाय अलौकिक शक्तियों और सिद्धियों की प्रगति के लिए गुप्त मत्रों का जाप, आचार विहीन गुप्त क्रियाएं, नारी संभोग और सुरा-पान करते थे।
धूर्त बौद्ध संन्यासी अपने चमत्कार प्रदर्शन के द्वारा देश की भोली-भाली जनता को ठगते थे। इस प्रकार उस युग में धर्म के आवरण में अधर्म पल रहा था।
इस युग में हिंदू धर्म भी अनेक संप्रदायों में बंट चुका था। सिद्ध नाथ, योगी कापालिक, अघोर, पाशुपत, कालमुख, शाक्त आदि अनेक संप्रदाय तन्त्र-मंन्त्र भरी साधनाओं और चमत्कारों से भरे उपदेशों में सिमट गए थे। चौरासी सिद्धों का वामाचार योगियों की हठ साधना, रहस्यपरक बातें जन सामान्य तक पहुंच गई थी। इनके माध्यम से धर्म के नाम पर पाखंड और दुराचार व्यापक होते जा रहे थे।
बौद्धों के अनुकरण पर ही पांच रात्र, शैल, कालमुख, कापालिक आदि अनेक संप्रदाय वाम मार्ग की ओर उन्मुख हो रहे थे। शाक्त संप्रदाय आनंद भैरवी और त्रिपुर सुंदरी को रिझाने में संलग्न था। इस वाम मार्गी उपासना पद्धति का प्रभाव जैन संप्रदाय पर भी पड़ा।
इस प्रकार बौद्ध, जैन और वैष्णव संप्रदाय धर्म के विकृत रूप को साधारण जनता में प्रोत्साहन दे रहे थे। फलस्वरूप समाज का निम्न वर्ग वामचारियों के चुंगल में फंसता जा रहा था। नाथपंथी योगियों ने भी वज्र यानी बौद्धों की तांत्रिक उपासना को स्वीकार कर लिया था। उस प्रतिक्रिया स्वरूप आगे चलकर नाथ संप्रदाय में संयम, नियम और अचार की प्रतिष्ठा हुई थी।
इसी समय दक्षिणी भारत से शंकर, रामानुज, निम्बार्क आदि आचार्यों के दर्शन धर्म को वितंडावाद से बचाने के लिए प्रकट हुए। उन्होंने शिव और नारायण की उपासना के द्वारा समस्त लोक के लिए खोल दिए। इसी समय भारत में विजेता के रूप में इस्लाम धर्म का प्रवेश हुआ, जो तलवार के जोर पर फलने -फूलने लगा।
कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि आदिकाल की धार्मिक परिस्थितियों अत्यंत विषम और असंतुलित थी। वे किसी भी प्रकार से मेल नहीं खाती थी।
आदिकाल की सामाजिक परिस्थितियां
इस काल की सामाजिक परिस्थिति भी राजनैतिक और धार्मिक विषमता का ही प्रतिबिंब थी, यह युग अराजकता अशांति युद्धों और धर्मान्धता का युग था। धर्म और राजनीति की दृष्टि एकांगी हो जाने के कारण समाज में भी अनेक प्रकार की विकृतियां घर कर रही थी, साधारण जनता धर्म और राज्य से त्रस्त और व्यथित थी।
विदेशी आक्रमणकारियों तथा स्वदेशी राजाओं के अत्याचारों का शिकार जनता को ही बनना पड़ता था। समाज में जाति- पांति के बंधन कठोर होते जा रहे थे। व्यक्ति के गुण, कर्म की समाज में कोई पूछ नहीं थी। जातिगत श्रेष्ठता ही उच्चता का एकमात्र मानदण्ड था। उच्च जाति के लोग सुखोंपभोग के लिए तथा निम्न जाति के लोग दु:ख पाने के लिए ही जन्म लेते थे।
छुआछूत की प्रथा ने सामाजिक मस्तिष्क को विकृत कर दिया था। हिंदू समाज की पाचन शक्ति को नष्ट कर दिया था। एक बार समाज से बहिष्कृत हो जाने पर, फिर वह हिन्दू भावी पीढ़ियों तक भी पुनः अपने धर्म में प्रवेश नहीं पा सकता था।
सामंतों की वीरता और उच्चता का दम्भ समाज को नष्ट करता जा रहा था। राजपूत वीरता और बलिदान की परंपरा का पालन करने में कभी पीछे नहीं हटते थे। नारियां भी आत्म बलिदान और शौर्य प्रदर्शन में पुरुषों से पीछे नहीं थी। स्वयंवर की प्रथा प्रचलित थी। परंतु इन सभी स्वंयवरों में वीरता और सम्मान के नाम पर नारियों का बलात् अपहरण होता था। फलस्वरूप परिणय के मांगलिक अवसर पर भी इस युग में रक्तपात होना सामान्य एवं सहज बात समझी जाती थी।
वास्तव में नारी उस युग में मात्र भोग्या मानी जाती थी, इसलिए उस काल में नारी क्रय-विक्रय और अपहरण की वस्तु बनाकर जीवन यापन कर रही थी।
शिक्षा के अभाव में सामान्य जन शास्त्र ज्ञान से वंचित थे। फलत: उनमें अनेक अंधविश्वास घर कर चुके थे। वे साधु -संन्यासियों के श्राप और वरदानों पर ही जीवन के दु:खों- सुखों का होना न होना मानते थे। गृहस्थ जन पूजा-पाठ, मंत्र -तंत्र, जप-तप के द्वारा युद्ध, अकाल और महामारियों से मुक्ति पाने की कामना किया करते थे।
राजपूत सामंतो में जहां एक और शूरवीरता, स्वामी भक्ति, कर्तव्य एवं सत्य निष्ठा जैसे सद्गुणों की भरमार थी, वहां दूसरी ओर भोग विलास और रंगरेलियां मनाने की प्रवृत्ति जैसे दुर्गुण भी विद्यमान थे। उनमें कूटनीति का भी अभाव था। राजा लोग बहू विवाह को अपना गौरव और शान की बात समझते थे।इसलिए अनेक अन्त:पुरों में रानियों, रखैलों और दासियों का मेला-सा लगा रहता था।
राजकुमारों को राजनीति, तर्क-शास्त्र, व्याकरण, साहित्य आदि की शिक्षा के साथ कामशास्त्र की शिक्षा भी दी जाती थी।सामान्य जन्म मनोबल से रहित तथा पतन की ओर उन्मुख था वस्तुत: तत्कालीन उत्तर भारतीय समाज नाना कुरीतियों, अंधविश्वासों, पाखंडों, दिग्भ्रमित स्थितियों से परिपूर्ण था। सामंतवाद पतनोन्मुखी था।
आदिकाल की आर्थिक परिस्थितियां
युद्धों के कारण जन सामान्य की आर्थिक दशा अत्यन्त शोचनीय एवं दयनीय थी। कृषि एवं व्यापार दोनों ही क्षेत्रों में अस्थिरता तथा अस्त-व्यस्तता के कारण धन-धान्य की अब उतनी प्रचुरता नहीं रही थी, तत्कालीन समाज स्पष्टत: दो वर्गों में विभक्त था - एक उच्च वर्ग या शासक, जो सर्व साधन संपन्न और शोषक था। दूसरा निम्न वर्ग, सामान्य जन या शासित, जो सर्वथा विपन्न एवं शोषित था। शासक वर्ग निर्मम बनकर शासितों का निर्बाध शोषण करता था।
आदिकाल की सांस्कृतिक परिस्थितियां
हिंदी साहित्य के आदिकाल को एक समृद्ध एवं समुन्नत, उच्च तथा परिपक्व संस्कृति विरासत में प्राप्त हुई थी। हर्ष के समय में ही हिंदू धर्म और हिंदू संस्कृति को राष्ट्रव्यापी आधार मिल गया था। फलत: स्वाधीनता राष्ट्रीयता के भाव सुदृढ़ होने लगे थे।
संगीत, स्थापत्य, मूर्ति, चित्रकला आदि सभी कलाओं में राष्ट्रीय गौरव को अभिव्यक्ति मिलने लगी थी। स्थापत्य कला में मंदिरों के निर्माण की प्रचुरता तत्कालीन धार्मिक सद्भाव की परिचायक थी।
पुरी, भुवनेश्वर, खजुराहो, कांची, तंजौर, वेल्लोर, सोमनाथपुर आदि स्थानों पर विशाल एवं भव्य मंदिरों का निर्माण हुआ, आबू का जैन मंदिर भारतीय स्थापत्य कला का अद्भुत, अनुपम एवं अद्वितीय उदाहरण है।
इस संबंध में अरब के सुप्रसिद्ध इतिहासकार अलबरूनी का कथन दृष्टव्य है - वे कला के अत्यंत उच्च सोपान पर आरोहण कर चुके हैं। हमारे लोग जब उन्हें देखते हैं तो आश्चर्य चकित रह जाते है। वे न तो उनका वर्णन कर सकते है, न वैसा निर्माण कर सकते हैं।
महमूद गजनवी भी भारतीय संस्कृति के इस उत्कर्ष पर अत्यंत मुग्ध था। पर इसे विडम्बना ही समझिए कि उसने अपार धन-सम्पत्ति के लोभ में फंसकर, विजय मद में अंधा होकर तथा मूर्ति भंजक के रूप में उनका कुख्यात होने की कुटिल कामना वंश कला के अनेक कला केन्द्रों को ध्वस्त कर दिया।
इसी युग में इस्लाम के प्रवेश के साथ-साथ इस्लामी संस्कृति का भी भारत में प्रवेश हुआ। उसने आते ही तलवार के बल से भारतीय संस्कृति को क्षत-विक्षत तथा ध्वस्त करने का श्री गणेश कर दिया। उसकी कुटिल दृष्टि से न यहां के खेत-खलिहान बचे, न सोमनाथ का विशाल एवं भव्य मंदिर बचा। उसने नालंदा जैसे पुस्तकालय से भी खुलकर होली खेली। फलस्वरुप हिंदू मुसलमानों से अत्यंत त्रस्त एवं भयभीत होकर उसने घृणा करने लगे, इस प्रकार वह युग हिंदू मुस्लिम संस्कृतियों के टकराव का युग बन गया।
आदिकाल की साहित्यिक परिस्थितियां
इस युग का साहित्य तीन प्रकार के आश्रय प्राप्त करके निर्मित हुआ था - राजा, धर्म और लोक। राजाश्रय प्राप्त साहित्य मुख्यतः वीर और श्रृंगार परक था।
इस संबंध में आचार्य रामचंद्र शुक्ल का प्रस्तुत कथन उल्लेखनीय है - 'राजा भोज की सभा में खड़े होकर राजा की दानशीलता का लंबा -चौड़ा वर्णन करके लाखों रुपये पाने वाले कवियों का समय बीत चुका था। राज दरबारों में शास्त्रार्थों कि वह धूम नहीं रह गई थी। पांडित्य के चमत्कार पर पुरस्कार का विधान भी ढिला पड़ गया था। इस समय तो जो-जो भाटी या चारण किसी राजा के पराक्रम, विजय, शत्रु- कन्या हरण आदि का अत्युक्ति पूर्ण आलाप करता था, रण क्षेत्रों में जाकर वीरों के हृदय में उत्साह की उमगें भरा करता था, वही सम्मान पाता था। उस समय तो केवल वीर गाथाओं की उन्नति संभव थी।'
समस्त रासो काव्य इसी वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है। धर्म के आश्रय से प्रेरित रचनाओं में मुख्यतः अपभ्रंश आदि की वे धार्मिक सांप्रदायिक रचनाएं आती है, जिनका मूल उद्देश्य साम्प्रदायिक प्रचार- प्रसार और खण्डन-मण्डन था। शुक्ल जी के शब्दों में तो उनकी रचनाएं तांत्रिक विधान, योग साधना, आत्मा- निग्रह, श्वास विरोध, भीतरी चक्रों और नाड़ियों की स्थिति, अंतर्मुख साधना के महत्व इत्यादि की सांप्रदायिक शिक्षा मात्र है।
जीवन की स्वाभाविक अनुभूतियां और दशाओ से उनका कोई संबंध नहीं। अतः वे शुद्ध साहित्य के अंतर्गत नहीं आती। किंतु शुक्ल जी के पश्चात अनेक महत्वपूर्ण रचनाएं शुद्ध साहित्य में स्थान पाने वाली प्रकाश में आयी है। ये रचनाएं प्रबंधन और मुक्तक दोनों ही काव्य रूपों में है। लोकश्रय प्राप्त रचनाओं में अमीर खुसरो की पहेलियां, जगनिक का आल्हा खंड तथा नाथ कवियों की खन्नात्मक मुक्तक कविताएं आती है।
भाषा की दृष्टि से भी इस काल में साहित्य की तीन धाराएं प्रचलित थी। पहली संस्कृत साहित्य की दूसरी प्राकृत अपभ्रंश की और तीसरी हिंदी साहित्य की। संस्कृत साहित्य के क्षेत्र में इस काल में आर्य दर्शन, अभिनव गुप्ता, कुन्ती, क्षेमेन्द्र, भोज देव, मम्मट, राजशेखर, विश्वनाथ, भवभूति, श्री हर्ष, जयदेव आदि आचार्य, नाटककार कवि और गद्य लेखक हुए।
शंकराचार्य, कुमारिल भट्ट, भास्कर रामानुज आदि आचार्य भी इसी काल की देन है। कल्हण की राजतरंगिनी भी इस युग में लिखी गई थी। जैनाचार्यों ने प्राकृत अपभ्रंश के साथ पुरानी हिंदी को भी अपनी रचनाओं का माध्यम बनाया। इसी प्रकार देश के पूर्वी सीमांत पर सिद्धों की रचनाएं भी अपभ्रंश के साथ लोक भाषा हिंदी में मिलती है।
निष्कर्ष - उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि हिंदी साहित्य के आदिकाल की परिस्थितियां अत्यंत विषम थी। राजनीति, धर्म, समाज और संस्कृति के क्षेत्र में मुसलमानो के आगमन ने एक विचित्र हलचल उत्पन्न कर दी थी। युद्धों का युग होने के कारण आर्थिक परिस्थिति भी अत्यंत शोचनीय थी। मुसलमानों के निंरकुश व्यवहार और अत्याचारों नें समाज में अशांति, अराजकता, भय और घृणा उत्पन्न कर दी थी। ऐसी परिस्थितियों में ही आदिकालीन रचनाओं का निर्माण हुआ।
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