इस आर्टिकल में स्वामी दयानंद सरस्वती और आर्य समाज, स्वामी दयानंद सरस्वती के बारे में, आर्य समाज की स्थापना, आर्य समाज के सिद्धांत तथा नियम, आर्य समाज और शुद्धि आन्दोलन, स्वामी दयानंद सरस्वती पुस्तकें, सत्यार्थ प्रकाश की रचना कब हुई, दयानंद सरस्वती का राजनीतिक, शिक्षा, राष्ट्रीय क्षैत्र में योगदान आदि टॉपिक पर चर्चा की गई है।
स्वामी दयानंद सरस्वती के बारे में
स्वामी दयानंद सरस्वती का मूल नाम मूल शंकर था जो प्राय: दयानंद के नाम से जाने जाते हैं, का जन्म 1824 में गुजरात की मोरवी रियासत (टंकारा) के निवासी एक ब्राह्मण कुल में हुआ।
दयानंद सरस्वती संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे। उनके पिता जो स्वयं वेदों के महान विद्वान थे। उन्होंने उन्हें वैदिक वांग्मय, न्याय दर्शन इत्यादि पढ़ाया।
दयानंद सरस्वती सार्वजनिक स्थानों पर भाषणों में संस्कृत भाषा का इस्तेमाल किया करते थे, परंतु केशवचंद्र सेन के आग्रह करने पर उन्होंने हिंदी भाषा में भाषण देने शुरू किए थे।
दयानंद की जिज्ञासा ने उन्हें योगाभ्यास आदि करने पर बाध्य किया तथा उन्हें गृह त्याग दिया। 15 वर्ष तक स्थान स्थान पर घूमते रहे। 1860 में वे मथुरा पहुंचे और स्वामी विरजानंद जी से वेदों के शुद्ध अर्थ तथा वैदिक धर्म के प्रति अगाध श्रद्धा प्राप्त की।
स्वामी दयानंद के चिंतन का मूल आधार वेद है। 1863 में उन्होंने धर्मों का खंडन करने के लिए ‘पाखंड खण्डिनी पताका’ लहराई।
आर्य समाज की स्थापना
आर्य समाज आन्दोलन का प्रसार प्राय: पाश्चात्य प्रभावों की प्रतिक्रिया के रूप में हुआ। स्वामी दयानंद सरस्वती ने 10 अप्रैल 1875 को बंबई में आर्य समाज की स्थापना की।
आर्य समाज का मुख्य उद्देश्य प्राचीन वैदिक धर्म की शुद्ध रूप से पुनः स्थापना करना था। जो झूठे धार्मिक विश्वास तथा सामाजिक कुरीतियां कालांतर में हिंदू समाज में आ गई थी उन्हें उन्होंने जड़ से उखाड़ फेंकने का प्रण किया।
1877 में आर्य समाज लाहौर की स्थापना हुई जिसके उपरांत आर्य समाज का अधिक प्रचार हुआ। पंजाब एवं उत्तर भारत में आर्य समाज का ज्यादा प्रचार प्रसार हुआ।
स्वामी दयानंद का उद्देश्य था कि भारत को धार्मिक सामाजिक तथा राष्ट्रीय रूप से एक कर दिया जाए। लोगों में देशभक्ति की भावनाओं को जगाने तथा हिंदू धर्म के सुधार के लिए आर्य समाज ने “भारत भारतीयों के लिए है” (India is for Indians), “वेदों की और लोटों” (न की वैदिक काल की और) (Back to the Vedas) का नारा दिया।
1892-93 में आर्य समाज के दो दल हो गए थे। एक दल पाश्चात्य शिक्षा का विरोधी था। वह दल जिसने पाश्चात्य शिक्षा का विरोध किया प्राचीन वैदिक शिक्षा प्राचीन वैदिक पद्धति में प्रदान करने की वकालत की। ऐसे ही एक परंपरावादी स्वामी श्रद्धानंद ने 1902 में हरिद्वार में एक गुरुकुल स्थापित किया।
आर्य समाज के सिद्धांत तथा नियम
आर्य समाज के सिद्धांत तथा नियम सबसे पूर्व में मुंबई में गठित किए गए। पुनः उनको लाहौर में 1877 में संपादित किया गया तथा निश्चित रूप दिया गया और वे आज तक परिवर्तित नहीं किए गए। वे नियम ये है :
- सब सत्य विद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं उन सबका आदि मूल परमेश्वर है।
- वेद सब सत्य विद्याओं की पुस्तक है। वेद का पढ़ना पढ़ना और सुनना सुनाना सब आर्यों का परम धर्म है।
- सत्य को ग्रहण करने और असत्य को त्यागने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिए।
- सब काम धर्मानुसार अर्थात सत्य और असत्य को विचार करके करना चाहिए।
- संसार का उपकार करना आर्य समाज का मुख्य उद्देश्य है अर्थात शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति करना।
- सबसे प्रीतिपूर्वक, धर्मानुसार यथायोग्य बरतना चाहिए।
- अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि करनी चाहिए।
- प्रत्येक को अपनी ही उन्नति में संतुष्ट नहीं रहना चाहिए। किंतु सब की उन्नति में अपनी उन्नति समझनी चाहिए।
- सब मनुष्यों को सामाजिक सर्वहितकारी नियम पालने में परतंत्र रहना चाहिए, और प्रत्येक हितकारी नियम में सब स्वतंत्र हैं।
- ईश्वर सच्चिदानंद स्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनंत, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वांतर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टि करता है। उसी की उपासना करनी चाहिए।
आर्य समाज और शुद्धि आन्दोलन
आर्य समाज ने शुद्धि आंदोलन भी आरंभ किया जिसके अंतर्गत लोगों को अन्य धर्मों से हिंदू धर्म में लाने का प्रयत्न किया गया। इसके अतिरिक्त लगभग 60,000 मलकाने राजपूतों को और उन हिंदुओं को जिन्हें माप्पिला विद्रोह के दिनों में (1923) अथवा 1947 में भारत विभाजन के समय बलपूर्वक मुसलमान बना लिया गया था, उन्हें पुनः हिंदू धर्म में लौटने का अवसर दिया।
स्वामी दयानंद सरस्वती पुस्तकें
दयानंद की दो पुस्तकों के नाम जो मुख्य थी – १. सत्यार्थ प्रकाश २. ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका।
दयानंद की अन्य पुस्तकें – वेदांग प्रकाश, अष्टाध्यायी भाष्य, दि लाईट ऑफ ट्रुथ।
दयानंद जन्म से गुजराती थे एवं संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे। उन्होंने सत्यार्थ प्रकाश हिंदी में लिखा। उन्होंने वेदों का भी हिंदी में भाष्य किया तथा हिंदी को संपर्क भाषा के रूप में मान्यता दी। उनके सभी विचार उनकी प्रसिद्ध पुस्तक सत्यार्थ प्रकाश में वर्णित है।
दयानंद ने अपने ग्रंथ सत्यार्थ प्रकाश के छठे समुल्लास में निर्भीकता पूर्वक लिखा कि, “विदेशी राज्य से चाहे वह कितना भी अच्छा क्यों न हो, स्वदेशी राज चाहे उसमें कितनी ही त्रुटियां क्यों न हो अच्छा है।”
दयानंद ने 13 वें समुल्लास में ईसाई मत की और सत्यार्थ प्रकाश अध्याय 14 वें समुल्लास में इस्लाम मत की समीक्षा की है।
सत्यार्थ प्रकाश की रचना कब हुई
सत्यार्थ प्रकाश’ ग्रंथ स्वामी दयानंद सरस्वतीे द्वारा उदयपुर में लिखा गया था। ‘सत्यार्थ प्रकाश’ लेखन स्थल पर आज भी सत्यार्थ प्रकाश भवन बना है। दुनियाभर से आने वाले पर्यटक इसे देखते हैं।
वे इसे आर्य समाज के संस्थापक और धर्म सुधार आंदोलन के प्रमुख व्यक्ति दयानंद सरस्वती के ग्रंथ के रूप में देखते हैं। स्वामी दयानंद सरस्वती ने वैसे 1873 के आसपास सत्यार्थ प्रकाश का लेखन शुरू किया था, लेकिन इसे पूरा उदयपुर आकर किया।
स्वामी दयानंद सरस्वती को उदयपुर के महाराणा सज्जन सिंह ने बुलवाया था। उन्हें एक अलग भवन में ठहराया था। स्वामी जी ने यहीं सत्यार्थ प्रकाश लिखा। वे यहां 10 अगस्त 1882 से 27 फरवरी 1883 तक ठहरे थे। इसके बाद वह जोधपुर होते हुए पुष्कर चले गए थे।
सत्यार्थ प्रकाश का प्रथम प्रकाशन संवत् 1931 के अन्त में अथवा सन् 1875 के आरम्भ में हुआ था। प्रथम प्रकाशन के मुदर्णकर्त्ता लाला हरवंशलाल, स्टार प्रेस, काशी थे। प्रथम प्रकाशन के प्रकाशक थे मुरादाबाद (उत्तर प्रदेश) के राजा जयकृष्णदास।
प्रारम्भ में उसकी मूल प्रति राजा जी के घर सुरक्षित रही हैं। संवत् 2004 में परलोकगमन के बाद श्री हरबिलास शारदाजी ने उसकी फोटो-प्रति ले ली थी। यह अब परोपकारिणी सभा के कार्यलय में सुरक्षित हैं।
प्रारम्भ में जब सत्यार्थ प्रकाश प्रकाशित हुई तब उसमें 12 समुल्लास छपे हुए थे। बाद के दो समुल्लास किसी कारण वश नहीं छापे गये थे। इस प्रकार सत्यार्थ प्रकाश में कुल 14 समुल्लास है।
सत्यार्थ प्रकाश प्रथम समुल्लास में ईश्वर के ओङ्कारादि 100 नामों की व्याख्या सप्रमाण की गई है। प्राचीन ऋषियों द्वारा प्रयुक्त मंगलाचरण का प्रकाश किया गया है।
स्वामी दयानंद सरस्वती के राजनीतिक विचार
दयानंद सरस्वती ने वेदों में वर्णित राजनीतिक सूत्रों एवं मनुस्मृति के राजनीतिक विचारों को अपने चिंतन का आधार बनाया है। दयानंद के राजनीतिक विचारों को निम्नलिखित बिंदुओं के अंतर्गत स्पष्ट किया गया है –
(1) मर्यादित शासन का समर्थन
स्वामी दयानंद ने शासन की सभी शक्तियां किसी एक व्यक्ति को प्रदान करने का विरोध करते हुए इसके संस्थागत स्वरूप का समर्थन किया है।
स्वामी दयानंद के अनुसार ‘दंड’ राज्य शक्ति का प्रतीक है। प्रजा और धर्म की रक्षा करने की सामर्थ्य उसे दंड से प्राप्त होती है। जब दंड सद्विचार से धारण किया जाता है तब वह जनकल्याण करता है और जब बिना विचारे राज कार्य किया जाता है तो दुष्चरित्र राजा श्रम दंड से मारा जाता है।
जनता के कल्याण तथा शासक पर नियंत्रण के लिए उन्होंने तीन निर्वाचित संस्थाओं का विचार प्रस्तुत किया है – विद्या सभा, धर्म सभा एवं राज सभा।
दयानंद सरस्वती ने जनहित पर आधारित जिस मर्यादित शासन का समर्थन किया, उसे आज संविधानवाद कहा जाता है।
(2) राज्य के लोक कल्याणकारी स्वरूप का प्रतिपादन
स्वामी दयानंद ने स्पष्ट किया कि शासक प्रजा के कल्याण और उनकी सुरक्षा के प्रति समर्पित रहकर ही प्रजा की स्वभाविक आज्ञाकारिता प्राप्त कर सकता है तथा शासन की प्रभावशीलता के प्रति आश्वस्त हो सकता है।
(3) सत्ता का विकेंद्रीकरण एवं ग्राम-प्रशासन
स्वामी दयानंद सरस्वती ने मनुस्मृति के समान ही ग्राम प्रशासन में सत्ता के विकेंद्रीकरण के सिद्धांत को अपनाया है। उनके अनुसार ग्राम के शासन के लिए इस प्रकार अधिकारी नियुक्त होने चाहिए। 1 गांव का प्रधान, 10 गांवों का प्रधान, 20 गांवों का प्रधान, 100 गांवों का प्रधान, हजार गांवों का प्रधान।
प्रत्येक श्रेणी के प्रधान का यह कर्तव्य होगा कि वह अपने अधिकार क्षेत्र में होने वाले अपराधों की सूचना नियमित रूप से अपने उच्च प्रधान को देगा एवं इस प्रकार अंत में सूचना राजा तक पहुंचेगी।
(4) न्याय, दंड एवं कर व्यवस्था
स्वामी दयानंद सरस्वती के अनुसार, न्याय की शक्ति केवल राजा में नहीं वरन सुयोग्य विद्वानों द्वारा गठित ‘धर्म सभा’ में निहित होनी चाहिए। दयानंद के अनुसार धर्म सभा ही न्याय का सर्वोच्च निकाय है। न्यायिक शक्ति का दुरुपयोग करने वाले तथा पक्षपात करने वाले न्यायाधीशों को दंड दिया जाना चाहिए। प्रजा पर अनावश्यक कर नहीं लगाने चाहिए।
(5) परराष्ट्र नीति एवं युद्ध
स्वामी दयानंद सरस्वती के अनुसार अन्य राज्यों के साथ शांति एवं मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित करने चाहिए जिससे अनावश्यक से बचा जा सके। अतः राज्य की सुरक्षा के लिए समुचित सैन्य व्यवस्था आवश्यक है। आक्रामक युद्ध का मार्ग नहीं अपनाना चाहिए एवं युद्ध के समय भी मानवीय मूल्यों का पालन करना चाहिए।
(6) सार्वभौम मानववाद
दयानंद का विचार था कि सभी धर्मों का शांतिपूर्ण सहअस्तित्व संभव है, इसी उद्देश्य से उन्होंने 1883 में एक धर्म सभा का आयोजन किया था। इस सभा में उन्होंने हिंदू मुस्लिम एकता का समर्थन किया।
स्वामी दयानंद सरस्वती का शिक्षा में योगदान
स्वामी दयानंद सरस्वती शिक्षा के अभाव में विकास असंभव मानते थे, इसलिए उन्होंने शिक्षा के क्षेत्र में निम्नलिखित महत्वपूर्ण योगदान दिया :
(1) स्त्री पुरुष समान शिक्षा पर बल : उन्होंने नारी शिक्षा पर, पुरुष शिक्षा के समान ही बल दिया, लेकिन वे सह शिक्षा के पक्ष में नहीं थे।
(2) राष्ट्रीय शिक्षा का समर्थन : वे ऐसी शिक्षा के समर्थक थे, जो राष्ट्रीय हो एवं ऐसे नागरिक उत्पन्न करें, जिनमें समाज के प्रति कर्तव्य का भाव हो। इस दृष्टि से उन्होंने गुरुकुलों की स्थापना का समर्थन किया।
(3) दयानंद एंग्लो वैदिक कॉलेजों (DAV College) की स्थापना : उन्होंने हिंदी के साथ-साथ अंग्रेजी भाषा और पाश्चात्य शिक्षा एवं अंग्रेजी भाषा के शिक्षण का भी समर्थन किया।
आर्य समाज ने दयानंद सरस्वती की मृत्यु के बाद 1886 में इस उद्देश्य से संपूर्ण भारत में दयानंद एंग्लो वैदिक कॉलेज (DAV College) स्थापित किए। सारे देश में इस तरह के कॉलेजों को खोलने में लाला हंसराज का महत्वपूर्ण योगदान रहा है।
स्वामी दयानंद सरस्वती का राष्ट्रीय क्षेत्र में योगदान
(1) हिंदू पुनरुत्थानवाद के समर्थक : दयानंद का मत था कि कोई भी देश स्वाधीनता के लिए तभी संघर्ष कर सकता है जब देशवासियों में स्वदेश एवं धर्म के प्रति स्वाभिमान का भाव हो।
उनके प्रयत्नों के कारण भारतीयों में अपने धर्म, इतिहास, देश और संस्कृति के प्रति गौरव का उदय हुआ। भारतीय यह सोचने लगे “हम कम श्रेष्ठ नहीं आवश्यकता केवल आगे बढ़ने की है।”
(2) अंधविश्वासों और कुप्रथाओं के विरुद्ध संघर्ष : उन्होंने बाल विवाह, दहेज प्रथा, विधवा विवाह निषेध, स्त्री-अशिक्षा, पर्दा प्रथा, समुद्री यात्रा निषेध का विरोध किया।
इस प्रकार उन्होंने आक्रामक योद्धा की भूमिका निभाई, इसके पीछे उनका लक्ष्य था एक जागृत और शक्तिशाली समाज का निर्माण।
(3) वैयक्तिक व सामाजिक चरित्र निर्माण का संदेश : उन्होंने भारतीय चरित्र की दुर्बलताओं तथा उदासीनता, प्रमाद, भाग्यवाद, निष्क्रियता आदि को देश के पतन का कारण बताया। उन्होंने वैयक्तिक चरित्र और सामाजिक पुनर्निर्माण की आवश्यकता पर बल दिया।
(4) देश की स्वाधीनता : वे कहते थे कि इस देश में पहले मानसिक पराधीनता आई और उसके बाद राजनीतिक पराधीनता आई। अतः राजनीतिक स्वतंत्रता की प्राप्ति के लिए वे मानसिक स्वतंत्रता अनिवार्य मानते थे।
(5) दलितोद्धार एवं जाति प्रथा का खंडन : उन्होंने यह विचार प्रस्तुत किया कि जाति प्रथा और छूआछूत ने ही हमें विभाजित किया है।
वर्ण व्यवस्था का आधार कर्म एवं गुण है जबकि जाति का आधार जन्म है। वे वर्ण व्यवस्था जन्म से नहीं मानते थे, कर्म से मानते थे। अर्थात केवल व्यवसाय के अनुसार ही कोई व्यक्ति ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र हो सकता है। परंतु यह चारों वर्ण समान है और इनमें कोई अस्पृश्य नहीं।
उन्होंने स्पष्ट किया कि शूद्रों और स्त्रियों को वेद पढ़ने से वंचित करना धर्म एवं न्याय संगत नहीं है। अस्पृश्यता के विरुद्ध उनका युद्ध भारत के लिए महान देन है।, जिसे महात्मा गांधी ने आगे बढ़ाया इसलिए आर्य समाज के द्वार सबके लिए खुले हैं।
लाला लाजपत राय, तिलक एवं अरविंद घोष पर स्वामी जी के विचारों का गहरा प्रभाव पड़ा। प्रसिद्ध क्रांतिकारी श्यामजी कृष्ण वर्मा उनके मित्र थे।
इस प्रकार स्वामी दयानंद भारतीय राष्ट्रवाद के उत्थान में चिरस्मरणीय भूमिका निभाई। उनके विचारों और कार्यों ने स्वाधीनता के लिए नैतिक एवं बौद्धिक पृष्ठभूमि तैयार की। “सुशासन कभी स्वशासन का स्थान नहीं ले सकता” दयानंद के इस कथन के कारण उन्हें स्वराज का संदेशवाहक माना जाता है।
(6) देशी भाषाओं को प्रोत्साहन एवं हिंदी को संपर्क भाषा बनाने पर बल : यद्यपि वे जन्म से गुजराती थे, एवं संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे। उन्होंने ‘सत्यार्थ प्रकाश’ हिंदी में लिखी। उन्होंने वेदों का भी हिंदी में भाष्य किया तथा हिंदी को संपर्क भाषा के रूप में मान्यता प्रदान की।
स्वामी दयानंद सरस्वती की मृत्यु कैसे, कब और कहां हुई
जोधपुर के महाराज यशवंत सिंह ने स्वामी दयानंद सरस्वती को आमंत्रित किया। स्वामीजी वहां गए। जोधपुर उनके लिए नई जगह थी। और उनके शुभचिंतकों ने नई जगह जाने के लिए इसी कारण रोकना चाहा था। लेकिन स्वामीजी मे कहा कि फिर तो जाना और भी जरूरी है।
स्वामी दयानंद जोधपुर गए और एक दिन वहां के दरबार में महाराज की वेश्या नन्हींजान को समीप देखकर उसकी कड़ी आलोचना कर दी।
नन्हींजान आलोचना सुन कर स्वामीजी की दुश्मन बन गई। उसने अन्य विरोधियों से मिलकर स्वामीजी के रसोइए जगन्नाथ को बहकाया। उसने दूध में विष मिलाकर स्वामी जी को पिला दिया। स्वामीजी पर उसका तुरंत असर दिखाई दिया। उनके पेट में भयंकर कष्ट होने लगा।
स्वामी जी ने वमन-विरेचन की योग क्रियाओं से दूषित पदार्थ को निकाल देने की चेष्टा की, पर विष तीव्र था और अपना काम कर चुका था। कुछ दिन बाद ही अजमेर प्रवास के दौरान 59 वर्ष की आयु में 30 अक्टूबर 1883 को स्वामीजी की मृत्यु हो गई।
निष्कर्ष (Conclusion) :
स्वामी दयानंद के आर्थिक विचारों में स्वदेशी का विशेष महत्व था। राजनीतिक क्षेत्र में वह कहते थे कि बुरे से बुरा देशी राज्य, अच्छे से अच्छे विदेशी राज्य से अच्छा है। अर्थात उनकी शिक्षा के फलस्वरूप उनके अनुयायियों में स्वदेशी और देशभक्ति की भावना कूट-कूट कर भरी थी और भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में वे लोग अग्रणी रहे।
वैलेंटाइन शिरोल (Valentine Chirol) आर्य समाज को सत्य ही ‘भारतीय अशांति का जन्मदाता’ कहा है। रोमां रोला ने स्वामी दयानंद सरस्वती को गीता का नायक कहा। स्वामी दयानंद सरस्वती को भारत का मार्टिन लूथर भी कहा जाता है।
महात्मा हंसराज, पंडित गुरुदत्त, लाला लाजपत राय और स्वामी श्रद्धानंद इसके विशिष्ट कार्यकर्ताओं में थे। आर्य समाज का प्रचार पंजाब, उत्तर प्रदेश, राजस्थान और बिहार में विशेष रूप से हुआ।
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अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs)
स्वामी दयानंद सरस्वती ने आर्य समाज की स्थापना क्यों की?
उत्तर : आर्य समाज का मुख्य उद्देश्य प्राचीन वैदिक धर्म की शुद्ध रूप से पुनः स्थापना करना था। जो झूठे धार्मिक विश्वास तथा सामाजिक कुरीतियां कालांतर में हिंदू समाज में आ गई थी उन्हें उन्होंने जड़ से उखाड़ फेंकने का प्रण किया।
स्वामी दयानंद सरस्वती द्वारा लिखित पुस्तकें कौन कौन सी है?
उत्तर : दयानंद की दो पुस्तकों के नाम जो मुख्य थी – १. सत्यार्थ प्रकाश २. ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका।
दयानंद की अन्य पुस्तकें – वेदांग प्रकाश, अष्टाध्यायी भाष्य, दि लाईट ऑफ ट्रुथ।आर्य समाज का प्रचार सर्वाधिक कहां पर हुआ था?
उत्तर : आर्य समाज का प्रचार उत्तर भारत में सर्वाधिक हुआ। पंजाब, उत्तर प्रदेश, राजस्थान और बिहार में विशेष रूप से हुआ।