1905 में जब ब्रिटेन में उदार दल ने सत्ता संभाली तो लॉर्ड मार्ले नए भारत सचिव (मंत्री) बने और लॉर्ड मिंटो को भारत का गवर्नर जनरल नियुक्त किया गया। भारत की कानून व्यवस्था की बिगड़ी हुई तत्कालीन व्यवस्था में सुधार करने की और इनका ध्यान गया और दोनों ने मिलकर एक सुधार योजना तैयार की।
इस योजना के आधार पर ब्रिटिश संसद ने मार्च 1909 में ‘भारत शासन अधिनियम’ पारित किया, जिसे ‘मार्ले मिंटो सुधार अधिनियम’ भी कहा जाता है।
1909 का भारत शासन अधिनियम |
• 1909 के भारत शासन अधिनियम की प्रमुख विशेषताएं
Salient features of Government of India Act of 1909
मार्ले मिंटो सुधार अधिनियम (भारत शासन अधिनियम 1909) की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित है –
1. विधान परिषदों की सदस्य संख्या में वृद्धि
1909 के भारत शासन अधिनियम के द्वारा केंद्रीय व प्रांतीय विधान परिषदों के आकार में वृद्धि की गई। केंद्रीय विधान परिषद के अतिरिक्त सदस्यों की संख्या 16 से बढ़ाकर 60 कर दी गई। इस प्रकार कुल सदस्यों की संख्या 25 से बढ़कर 69 हो गई।
इस अधिनियम के अंतर्गत प्रांतीय परिषदों का भी विस्तार हुआ। बंगाल, बंबई, संयुक्त प्रांत और मद्रास में अतिरिक्त सदस्यों की संख्या बढ़ाकर 50 कर दी गई। आसाम, बर्मा और पंजाब की अधिकतम संख्या 30 निर्धारित की गई।
2. केंद्रीय विधान परिषद में सरकारी सदस्यों का बहुमत
केंद्रीय विधान परिषद में चार प्रकार के सदस्यों का प्रावधान किया गया था।
१. पदेन सरकारी सदस्य – गवर्नर जनरल तथा उनकी कार्यकारिणी परिषद के सदस्य विधान परिषद के पदेन सदस्य होते थे। इनकी संख्या 9 थी।
२. मनोनीत सरकारी सदस्य – मनोनीत सरकारी सदस्य ऐसे अधिकारी होते थे जिनको सरकार द्वारा विधान परिषद में मनोनीत किया जाता था। इनकी संख्या 28 थी।
इस प्रकार केंद्रीय विधान परिषद में उक्त दोनों प्रकार के सरकारी सदस्यों की संख्या कुल 69 रखी गई। इनमें से 37 सरकारी एवं 32 गैर सरकारी सदस्य थे। 37 सरकारी सदस्यों में से गवर्नर जनरल 28 सदस्यों को मनोनीत करता था तथा 9 सदस्य पदेन रखें गए। जिनमें स्वयं गवर्नर जनरल था उनकी कार्यकारिणी के 8 सदस्य सम्मिलित थे।
३. गैर सरकारी मनोनीत सदस्य – केंद्रीय विधान परिषद के लिए 1909 के अधिनियम के अंतर्गत है 32 गैर सरकारी सदस्यों में से पांच गैर सरकारी सदस्य मनोनीत किए जाते थे। ये पांचों सदस्य समाज के विशेषाधिकार प्राप्त वर्गों के होते थे और सरकार के पिट्ठू होते थे।
४. निर्वाचित सदस्य – केंद्रीय विधान परिषद के शेष 27 सदस्य निर्वाचित होते थे। इनमें से 5 मुसलमानों द्वारा, 6 हिंदू जमीदारों द्वारा, एक मुस्लिम जमींदार द्वारा, एक बंगाल के चेंबर ऑफ कॉमर्स के द्वारा, एक मुंबई के चेंबर ऑफ कॉमर्स के द्वारा तथा शेष 13 सदस्य प्रांतीय विधान परिषद द्वारा चुने जाते थे।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि 1909 के भारत शासन अधिनियम में केंद्रीय विधान परिषद में सरकारी सदस्यों का बहुमत रखा गया था।
3. प्रांतीय विधान परिषदों में गैर सरकारी सदस्यों का बहुमत
इस अधिनियम में प्रांतों की विधान परिषदों में गैर सरकारी बहुमत की व्यवस्था की गई थी। किंतु इसका तात्पर्य यह नहीं था कि विधान परिषदों में निर्वाचित सदस्यों का बहुमत था। गैर सरकारी सदस्यों के अंतर्गत यहां निर्वाचित सदस्य और मनोनीत गैर सरकारी सदस्यों को सम्मिलित किया गया है।
व्यवहार में यह मनोनीत गैर सरकारी सदस्य सरकारी सदस्यों का साथ देते थे और सरकारी और गैर सरकारी दोनों प्रकार के सदस्यों की संख्या निर्वाचित सदस्यों से अधिक रखी गई थी।
व्यवहार में यह मनोनीत गैर सरकारी सदस्य सरकारी सदस्यों का साथ देते थे और सरकारी और गैर सरकारी दोनों प्रकार के सदस्यों की संख्या निर्वाचित सदस्यों से अधिक रखी गई थी।
इस प्रकार व्यवहार में गैर सरकारी निर्वाचित सदस्य प्राय: अल्पमत में ही रह जाते थे और प्रांतीय विधान परिषदों में आ भी सरकार का वर्चस्व बना रहा।
4. विधान परिषदों के क्षेत्राधिकार में वृद्धि
इस अधिनियम द्वारा केंद्रीय तथा प्रांतीय विधान परिषदों की शक्तियों तथा अधिकारों में वृद्धि की गई। जैसे –
१. इस अधिनियम द्वारा विधान परिषद के सदस्यों को बजट पर बहस करने तथा उनकी मदद में कटौती का प्रस्ताव पेश करने का अधिकार दिया गया।
२. इस अधिनियम द्वारा सदस्यों को पूरक प्रश्न का अधिकार प्रदान किया गया।
३. इस अधिनियम द्वारा सदस्यों को सार्वजनिक महत्व के विषयों पर बहस करने, प्रस्ताव पारित करने का और मतदान करने का अधिकार प्रदान किया गया।
5. सांप्रदायिक एवं विशिष्ट वर्गों के निर्वाचन प्रणाली का प्रारंभ
1909 के भारत शासन अधिनियम द्वारा सांप्रदायिक आधार पर पृथक निर्वाचन प्रणाली को अपनाया गया। इसके द्वारा मुसलमानों को पृथक सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व प्रदान किया गया। विधान परिषदों में मुसलमानों के लिए स्थान सुरक्षित कर दिए गए थे और इन स्थानों को केवल मुस्लिम मतदाताओं द्वारा चुने हुए मुस्लिम प्रतिनिधि ही भर सकते थे।
दूसरे, मुसलमानों को उनके राजनीतिक महत्व तथा ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति उनकी विशेषताओं के कारण उनकी जनसंख्या के अनुपात में अधिक भारित प्रतिनिधि भी प्रदान किया गया। इसके अतिरिक्त इस अधिनियम द्वारा प्रेसीडेंसी निगमों, विश्वविद्यालयों, चैम्बर्स ऑफ कॉमर्स तथा जमीदारों को भी पृथक प्रतिनिधित्व प्रदान किया गया था।
6. सीमित व भेदभाव पर आधारित मताधिकार
1909 के भारत शासन अधिनियम द्वारा जो मताधिकार दिया गया था वह एक तरफ तो अत्यंत सीमित था। दूसरी तरफ वह अत्यंत पक्षपात पूर्ण था और तीसरे प्रत्येक प्रांत में इसका स्वरूप भिन्न-भिन्न था।
उदाहरण के लिए केंद्रीय विधान परिषद के चुनाव के लिए निर्वाचन क्षेत्र में उन जमींदारों को ही मत देने का अधिकार दिया गया था, जिसकी आय बहुत अधिक थी। मद्रास में इस अधिकार का आधार ₹15000 वार्षिक आय या जो ₹10000 भूमि कर देते थे, था। बंगाल में यह अधिकार उन लोगों को दिया गया था जो राजा या नवाब की उपाधि धारण किए हुए थे। मध्यप्रदेश में जो मजिस्ट्रेट की मानद उपाधि रखते थे उन्हें यह अधिकार दिया गया था।
इस प्रकार मुसलमानों में भी मताधिकार की योग्यताएं प्रत्येक प्रांत में भिन्न-भिन्न थी।
7. कार्यकारिणी के पदों का विस्तार
भारतीय प्रशासन से भारतीयों को अधिक मात्रा में संबंधित करने के लिए कार्यकारिणी परिषद का विस्तार किया गया।
१. सपरिषद भारत सचिव को मद्रास और मुंबई की कार्यकारिणी में 2 से लेकर 4 सदस्य बढ़ाने की अनुमति दी गई।
२. सपरिषद गवर्नर जनरल को बंगाल की कार्यकारिणी में 4 सदस्य बढ़ाने की अनुमति दी गई।
४. सपरिषद गवर्नर जनरल को लेफ्टिनेंट गवर्नरों के प्रांतों में भी कार्यकारिणी परिषद की स्थापना का अधिकार दिया गया।
इस अधिनियम के अंतर्गत भारत सचिव मार्ले ने श्री एस पी सिन्हा को गवर्नर जनरल की कार्यकारिणी परिषद में विधि सदस्य के रूप में नियुक्ति की। गवर्नर जनरल की कार्यकारिणी परिषद में किसी भारतीय की नियुक्ति बहुत बड़ी बात थी।
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• 1909 के भारत शासन अधिनियम की आलोचना
Criticism of the Government of India Act of 1909
1. उत्तरदाई शासन की स्थापना का अभाव
1. उत्तरदाई शासन की स्थापना का अभाव
1909 के भारत शासन अधिनियम की एक प्रमुख आलोचना यह कि जाती है कि इसमें भारतीयों की उत्तरदाई शासन की मांग की पूर्णता अवहेलना कर दी गई। इस अधिनियम के द्वारा केवल विधान परिषदों का विस्तार किया गया उत्तरदाई शासन नहीं दिया गया।
कार्यपालिका पहले की भांति ही निरंकुश बनी रही। इस प्रकार इस अधिनियम का उद्देश्य ‘उदार निरंकुश तंत्र’ की स्थापना करना था।
2. सांप्रदायिक निर्वाचन की दूषित व्यवस्था
1909 के मार्ले मिंटो सुधार अधिनियम की एक प्रमुख आलोचना संप्रदायिक निर्वाचन की दूषित व्यवस्था के आधार पर की जाती है। इस अधिनियम में सांप्रदायिक निर्वाचन मुस्लिम मतदाताओं द्वारा मुस्लिम उम्मीदवारों के निर्वाचन की व्यवस्था का सूत्रपात किया था।
इसके साथ ही साथ इस मार्ले मिंटो सुधार अधिनियम में मुसलमानों को उनकी जनसंख्या के अनुपात में अधिक प्रतिनिधि चुनने का भी अधिकार दिया गया था।
निर्वाचन की पद्धति एवं गुरुभार की व्यवस्था ने जहां एक और भारत के विभाजन की आधारशिला रखी, वहीं दूसरी ओर सिक्खों, हरिजनों, भारतीय ईसाइयों आदि में भी पृथक निर्वाचन की मांग का मार्ग खोल दिया।
3. सीमित एवं भेदभाव पर आधारित मताधिकार
1909 के भारत शासन अधिनियम में जो मताधिकार दिया गया था, वह त्रुटिपूर्ण था। यह मताधिकार सीमित एवं वर्गीय हितों पर आधारित था। जैसे –
१. मताधिकार में समानता का अभाव था। मत देने का अधिकार प्रत्येक प्रांत, प्रत्येक वर्ग, प्रत्येक धर्मावलंबी को योग्यताएं प्रदान की गई थी।
२. इसमें मतदाताओं की संख्या अत्यंत सीमित रखी गई थी।
३. स्त्रियों को मताधिकार नहीं दिया गया था।
४. जमीदारों और वाणिज्य मंडल जैसे विशिष्ट हितों तथा वर्गो को अनावश्यक रूप से महत्व दिया गया था।