इस आर्टिकल में जलवायु का अर्थ, भारत में मानसूनी प्रकार की जलवायु क्यों है, भारत की जलवायु को प्रभावित करने वाले कारक, उत्तर पूर्वी या शीतकालीन मानसून, दक्षिणी पश्चिमी या ग्रीष्मकालीन मानसून, ग्रीष्मकालीन मानसून की शाखाएं आदि टॉपिक पर चर्चा की गई है।
जलवायु का अर्थ
किसी क्षेत्र में लंबे समय तक जो मौसम की स्थिति होती है उसे उस स्थान की जलवायु कहते हैं।
भारत में मानसूनी प्रकार की जलवायु क्यों है
अत्यधिक विस्तार व भू आकारों की भिन्नता के कारण भारत के विभिन्न भागों में जलवायु संबंधी विविधताएं पाई जाती है लेकिन मानसूनी प्रभाव के कारण देश की जलवायु संबंधी विविधताओं में भी एकता दिखलाई देती है।
इसी कारण भारत की जलवायु को मानसूनी जलवायु कहा गया है। इस प्रकार भारत में उष्णकटिबंधीय मानसूनी प्रकार की जलवायु पाई जाती है।
भारत की जलवायु को प्रभावित करने वाले कारक
जलवायु को प्रभावित करने वाला मुख्य कारक मानसून है। इसके अलावा प्रभावित करने वाले अन्य प्रमुख कारक निम्न हैं –
(1) समुद्र तल से ऊंचाई : समुंद्र तल से ऊंचाई एवं तापमान में विपरीत संबंध होता है। सामान्यतया प्रति 165 मीटर की ऊंचाई पर 1 डिग्री सेल्सियस तापमान कम हो जाता है इसी कारण हिमालय के उच्च ढालानों पर हमेशा बर्फ जमी रहती है।
एक ही अक्षांश पर स्थित होते हुए भी ऊंचाई की भिन्नता के कारण ग्रीष्मकालीन औसत तापमान मंसूरी में 24 डिग्री सेल्सियस, देहरादून में 32 डिग्री सेल्सियस तथा अंबाला में 40 डिग्री सेल्सियस तक पाया जाता है।
(2) समुंद्र से दूरी : समुंद्र का जलवायु पर नम व सम प्रभाव पड़ता है। इसी कारण समुंद्र तट पर स्थित नगरों में तापांतर अति न्यून पाया जाता है तथा जलवायु सम रहती है। जैसे-जैसे समुंद्र से दूरी बढ़ती जाती है वैसे-वैसे विषमता अर्थात तापांतर एवं शुष्कता बढ़ती जाती है।
समुंद्र से दूरी के प्रभाव के कारण पश्चिमी तटीय क्षेत्रों में वर्षा का वार्षिक औसत 200 सेंटीमीटर से अधिक रहता है जबकि जैसलमेर में यह औसत घटते घटते 5 सेंटीमीटर रह जाता है।
(3) भूमध्य रेखा से दूरी : भूमध्य रेखा से दूरी तापमान को प्रभावित करने वाला आधारभूत कारक है। बढ़ते हुए अक्षांश के तापमान में कमी आती जाती है क्योंकि सूर्य की किरणों का तिरछापन बढ़ता जाता है। इससे सूर्यताप की मात्रा प्रभावित होती है।
इसी कारण हिमालय के दक्षिणी ढालों पर हिम रेखा की ऊंचाई अधिक है लेकिन तिब्बत की तरफ अर्थात उतरी ढालों पर इसकी ऊंचाई कम है। कर्क रेखा भारत के लगभग मध्य से गुजरती है। अतः उत्तरी भारत शीतोष्ण प्रदेश में तथा दक्षिणी भारत उष्ण प्रदेश में शामिल किया जाता है।
(4) पर्वतों की स्थिति : जलवायु को प्रभावित करने वाले कारकों में पर्वतों की स्थिति भी एक महत्वपूर्ण कारक है। पश्चिमी घाट की स्थिति प्रायद्वीपीय भारत के पश्चिमी तट के निकट है।
इसी कारण दक्षिण-पश्चिमी मानसून से इनके पश्चिमी ढालों पर प्रचुर मात्रा में वर्षा होती है जबकि इसके विपरीत ढाल एवं प्रायद्वीपीय पठार दक्षिणी-पश्चिमी मानसून की वृष्टि छाया क्षेत्र में आते हैं।
वृष्टि छाया प्रदेश क्या है : वर्षा ऋतु में अरब सागरीय मानसून की शाखा का वेग पश्चिमी घाट व पश्चिमी तटीय मैदान में ही समाप्त हो जाता है। पश्चिमी तट पर लगभग 250 सेंटीमीटर तथा पश्चिमी घाट के उच्च भागों में 500 सेंटीमीटर से भी अधिक वर्षा होती है।
पश्चिमी घाट पार करने पर न केवल इनमें जल की कमी आती है जबकि पूर्वी ढालों पर उतरते समय गर्म होकर यह शुष्क भी हो जाती है। इस प्रकार पूर्वी ढालों व पठार पर कम वर्षा होती है। इसे वृष्टि छाया प्रदेश कहते हैं।
(5) पर्वतों की दिशा : हिमालय पर्वत की स्थिति व दिशा के कारण ही भारत की जलवायु उत्तम पाई जाती है हिमालय साइबेरिया से आने वाली ठंडी पवन ओं से देश की रक्षा करते हैं साथ ही ग्रीष्मकालीन मानसून को रोककर भारत में ही वर्षा करने के लिए बाध्य करते हैं।
पश्चिमी राजस्थान में 100 सप्ताह का एक कारण यह भी है कि अरावली श्रेणी की दिशा दक्षिणी पश्चिमी मानसून के समानांतर है अतः यह पवनों के मार्ग में अवरोध उपस्थित करने में असमर्थ रहती है। इस प्रकार भारत की जलवायु पर हिमालय के प्रभाव स्पष्ट हैं।
(6) पवनों की दिशा : पवनें अपनी उत्पत्ति के स्थान व मार्ग के गुण लाती है। ग्रीष्मकालीन मानसून हिंद महासागर से चलने के कारण उष्ण एवं आर्द्र होते हैं। अतः इनसे वर्षा होती है। शरद कालीन मानसून स्थली व शीत क्षेत्रों से चलते हैं। अतः ये सामान्यतः शीत व शुष्कता लाते हैं।
(7) उच्च स्तरीय वायु संचरण : नवीनतम शोध के अनुसार ज्ञात हुआ है कि उच्च स्तरीय वायु संचरण का मानसून के साथ गहरा संबंध है।
भारत की जलवायु मानसूनी होने के कारण काफी हद तक क्षोभ मंडल की गतिविधियों से प्रभावित होती है। मानसून की कालिक व मात्रात्मक अनिश्चितता भी उच्च स्तरीय वायु संचरण की दशाओं पर निर्भर करती है।
उपरोक्त कारकों के अलावा मेघाच्छादन की मात्रा, वानस्पतिक आवरण, समुद्री धाराएं आदि कारक भी भारत की जलवायु को आंशिक रूप से प्रभावित करते हैं।
उत्तर पूर्वी या शीतकालीन मानसून
भारत में उत्तर-पूर्वी या शीतकालीन मानसून काल को निम्नलिखित ऋतुओं के अंतर्गत विभाजित किया जा सकता है :
(1) शीत ऋतु : भारत में शीत ऋतु दिसंबर से फरवरी माह तक रहती है। इस ऋतु में आकाश स्वच्छ रहता है। इस ऋतु की यह विशेषता है कि इसमें हवाएं धीमी गति से चलती है तथा इसमें आद्रता की कमी रहती है। भारत में शीत ऋतु की दशाएं निम्न है –
(१) तापमान : शीत ऋतु में उत्तर से दक्षिण की तरफ तापमान में वृद्धि होती जाती है। उत्तरी भारत में औसत तापमान 8 डिग्री सेल्सियस से 21 डिग्री सेल्सियस तथा दक्षिण भारत में तापमान 21 डिग्री सेल्सियस से 26 डिग्री सेल्सियस तक रहता है। पश्चिमी राजस्थान में रात्रि समय विकिरण के कारण तापमान में गिरावट तीव्र गति से होती है।
इसी कारण इन क्षेत्रों में अनेक बार तापमान हिंमाक अर्थात जमाव बिंदु से नीचे गिर जाता है। हिमालय के पर्वतीय ढालों तथा जम्मू-कश्मीर, पंजाब व हिमाचल प्रदेश में शीतकालीन तापमान न्यूनतम रहते हैं।
(२) वायुदाब : भारतीय उपमहाद्वीप में सामान्यतः शीत ऋतु में तापमान काफी कम हो जाता है जिसके परिणाम स्वरुप स्थल पर उच्च दाब विकसित होता है।
संपूर्ण एशिया महादीप के वायुदाब तंत्र में सबसे अधिक वायुदाब का एक केंद्र बैकाल झील के पास, दूसरा पाकिस्तान में पेशावर के निकट तथा तीसरा उत्तरी-पश्चिमी राजस्थान में विकसित होता है।
इस ऋतु में जलीय क्षेत्र अपेक्षाकृत उष्ण रहते हैं। अतः हिन्द महासागर में निम्न दाब विकसित होता है।
(३) पवनें : पवनें उच्च दाब से निम्न दाब की तरफ चलती है। अतः भारत में इस ऋतु में पवनें स्थल से जल की तरफ चलने लगती है। ये पवने भारत में उत्तरी-पश्चिमी दिशा से गंगा-सतलज के मैदान की तरफ चलती है।
मैदानी भाग को पार करने के उपरांत ये पवने उत्तरी-पूर्वी दिशा से चलने लग जाती है। इन पवनों को उत्तरी-पूर्वी मानसून के नाम से जाना जाता है। चूंकि पवनों का यह विशिष्ट क्रम शीत ऋतु में विकसित होता है।
इसी कारण इनको शीतकालीन मानसून के नाम से जाना जाता है। इस ऋतु में पश्चिमी यूरोप में भी जीभ के आकार का उच्च दाब क्षेत्र विकसित होता है। यह नुकीला उच्च दाब क्षेत्र वहां प्रचलित पछुआ पवनों और उनसे संबंधित चक्रवातों को दो शाखाओं में विभाजित कर देता है।
इनमें से एक शाखा भूमध्य सागर, इजराइल, सीरिया, जॉर्डन, इराक, ईरान, अफगानिस्तान व पाकिस्तान होती हुई भारत के उत्तरी पश्चिमी भाग तक पहुंचती है।
(४) वर्षा : स्थल से जल की ओर चलने के कारण शीत ऋतु में पवनें शुष्क होती है। परिणाम स्वरूप इन पवनों से भारत में बहुत कम वर्षा होती है।
इस ऋतु में भूमध्य सागर से उत्पन्न होकर आने वाले चक्रवातों से अल्प मात्रा में वर्षा जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, उत्तरांचल, राजस्थान तथा उत्तर प्रदेश में होती है। इस वर्षा को मावट कहते हैं। यह वर्षा फसलों के लिए अत्यंत लाभदायक होती है।
उत्तरी पूर्वी मानसून से अल्प मात्रा में वर्षा उत्तरी पूर्वी भारत के पर्वतीय क्षेत्रों में भी होती है। जैसे-जैसे यह पवन आगे बढ़ती है वैसे-वैसे शुष्क हो जाती है, लेकिन बंगाल की खाड़ी के ऊपर चलते समय यह पुनः आद्रता ग्रहण कर लेती है।
इसका लाभ तमिलनाडु को शीतकालीन वर्षा के रूप में प्राप्त होता है। अतः शीतकालीन वर्षा का अधिकतम भाग तमिलनाडु राज्य को प्राप्त होता है।
(2) ग्रीष्म ऋतु : भारत में ग्रीष्म ऋतु की अवधि मार्च से मध्य जून तक मानी जाती है। इस ऋतु में मई व जून सबसे अधिक गर्म महीने होते हैं। यह ऋतु शुष्क एवं गर्म होती है। इस ऋतु में प्राय धूल भरी आंधियां चला करती हैं। इन गर्म व शुष्क हवाओं को लू के नाम से जाना जाता है। उत्तरी पश्चिमी राजस्थान में इस ऋतु में प्रतिदिन आंधियां चलती रहती है। भारत में ग्रीष्म ऋतु की दशाएं निम्न है :
(१) तापमान : भारत में मार्च माह के उपरांत सूर्य की उत्तरायण स्थिति के कारण तापमान धीरे-धीरे बढ़ने लगता है। इस अवधि में तापमान बढ़ते बढ़ते जून तक उत्तरी पश्चिमी भारत में 45 डिग्री सेल्सियस से अधिक हो जाते हैं।
भारत के मैदानी क्षेत्र में भी तापमान काफी उच्च रहते हैं। तटीय क्षेत्रों की तरफ तापमान अपेक्षाकृत कम रहते हैं। दक्षिण भारत में सागरीय प्रभाव के कारण तापमान उतरी भारत की अपेक्षा कम रहते हैं।
हिमालय पर्वतीय क्षेत्र में भी समुद्र तल से ऊंचाई के कारण तापमान काफी कम रहते हैं। इसी कारण इस क्षेत्र में अनेक पर्वतीय नगरों का विकास हुआ है। इन नगरों में शिमला, मसूरी, नैनीताल, दार्जिलिंग तथा अरावली पर्वत श्रेणी में माउंट आबू आदि है।
(२) वायुदाब : ग्रीष्म ऋतु में उच्च तापमान के कारण उत्तरी भारत में निम्न वायुदाब विकसित हो जाता है। सबसे अधिक तापमान थार के मरुस्थल में होने के कारण न्यूनतम वायुदाब भी इसी क्षेत्र में विकसित हो जाता है।
दक्षिण भारत में तापमान अपेक्षाकृत कम रहने के कारण वायु दाब अधिक रहता है। अतः इस ऋतु में सबसे अधिक वायुदाब हिंद महासागर के जलीय क्षेत्र में पाया जाता है।
(३) पवनें व वर्षा : ग्रीष्म ऋतु में उतरी भारत में तापमान तेजी से बढ़ते हैं जिसके कारण वायुदाब तेजी से कम होने लगता है। यह न्यून वायुदाब चारों तरफ से पवनों को आकर्षित करता है।
अतः इस ऋतु में धूल भरी गर्म और शुष्क हवा चलने लगती है। इन पवनों को लू के नाम से जाना जाता है। राजस्थान, हरियाणा तथा पंजाब में इन धूल भरी आंधियों का सबसे अधिक प्रभाव रहता है। आंधियों से अनेक बार स्थानीय वर्षा हो जाती है।
तटीय क्षेत्रों तथा दक्षिण भारत में भी पवनों का क्रम जल से स्थल की और होने लगता है। अतः दक्षिण भारत में इस ऋतु में अल्प मात्रा में वर्षा हो जाती है, जिसे यहां आम की बौछार तथा विशेष रूप से कहवा उत्पादक क्षेत्रों में फूलों की बौछार के नाम से जाना जाता है।
दक्षिणी पश्चिमी या ग्रीष्मकालीन मानसून
(1) वर्षा ऋतु : भारत में वर्षा ऋतु की अवधि मध्य जून से मध्य सितंबर तक पाई जाती है। कृषि प्रधान भारत के संदर्भ में इस ऋतु का सबसे अधिक महत्व है क्योंकि इस ऋतु में देश के अधिकांश भागों में व्यापक वर्षा होती है। भारत में वर्षा ऋतु की दशाएं निम्न है :
(१) वायुदाब व पवनें : भारत में ग्रीष्म ऋतु के तापमान, वायुदाब व पवनों की दिशा के परिणाम स्वरुप उत्पन्न परिस्थितियां देश में जल से स्थल की तरफ चलने वाली पवनों के सूत्रपात का आधार बनती है।
इस ऋतु में भूमध्य रेखा के दक्षिण में चलने वाली दक्षिणी पूर्वी व्यापारिक पवनें उत्तरी पश्चिमी भारत में विकसित न्यून दाब की तरफ आकर्षित होकर भूमध्य रेखा को पार करती है।
भूमध्य रेखा को पार करने पर फेरल के नियम के अनुसार यह पवने दिशा बदलकर अपने दाहिनी तरफ मुड़ जाती है। अतः इनकी दिशा दक्षिणी पश्चिमी हो जाती है। इसी कारण इनको दक्षिणी पश्चिमी मानसून के नाम से जाना जाता है।
(२) वर्षा : दक्षिणी पश्चिमी मानसूनी पवने जल से स्थल की ओर चलने के कारण अत्यंत आर्द्र होती है। इसी कारण इनसे भारत में व्यापक वर्षा होती है। भारत में कुल वार्षिक वर्षा का लगभग 90% भाग वर्षा ऋतु में प्राप्त होता है।
ग्रीष्मकालीन मानसून की शाखाएं
प्रायद्वीपीय भारत की स्थिति के कारण ग्रीष्मकालीन मानसूनी पवनें निम्न दो शाखाओं में विभाजित हो जाती है :
अरब सागरीय मानसून
मानसून की यह शाखा अत्यंत तीव्रगामी होती है। पश्चिमी घाट के पश्चिमी ढालों पर इसकी तीव्रता के कारण वर्षा की शुरुआत घनघोर रूप से होती है। इसी कारण प्रथम घनघोर वर्षा को मानसून का फटना कहते हैं।
इसका वेग पश्चिमी घाट तथा पश्चिमी तटीय मैदान में ही समाप्त हो जाता है। पश्चिमी तट पर लगभग 250 सेंटीमीटर तथा पश्चिमी घाट के भागों में 500 सेंटीमीटर से भी अधिक वर्षा होती है। पश्चिमी घाट पार करने पर न केवल जल की कमी हो जाती है अपितु पूर्वी ढालों पर उतरते समय गर्म होकर ये पवनें शुष्क भी हो जाती हैं।
अतः पश्चिमी घाट के पूर्वी ढालों और दक्षिण के पठार पर कम वर्षा होती है। पूर्व में चेन्नई तक पहुंचने पर इनसे 38 सेंटीमीटर से भी कम वर्षा होती है। इस प्रकार दक्षिण के पठार का पूर्वी भाग वृष्टि छाया प्रभाव में रहता है।
पश्चिमी घाट को पार करने के उपरांत अरब सागर मानसून की एक शाखा चेन्नई की तरफ जाती है तथा दूसरी शाखा विंध्याचल और सतपुड़ा श्रेणियों के मध्य से होकर छोटा नागपुर के पठार तक जाती है। इस मार्ग में वर्षा का औसत 150 सेंटीमीटर से शुरू होकर दूरी बढ़ने के साथ-साथ 100 सेंटीमीटर तक रह जाता है।
इसी मानसून की तीसरी शाखा कच्छ, राजस्थान, हरियाणा और पंजाब को पार करके पश्चिमी हिमालय तक पहुंचकर हिमाचल प्रदेश में वर्षा करती है। इन पवनों से राजस्थान को अधिक लाभ नहीं मिल पाता है क्योंकि यह अपने अरावली पर्वत श्रंखला के समानांतर गुजर जाती है।
खंभात की खाड़ी के क्षेत्र में औसत रूप से 50 सेंटीमीटर वर्षा होती है। वर्षा की मात्रा दूरी बढ़ने के साथ-साथ कम होती जाती है।
बंगाल की खाड़ी का मानसून
बंगाल की खाड़ी के मानसून की चार प्रमुख शाखाएं हैं :
प्रथम शाखा : बंगाल की खाड़ी से शुरू होकर इसकी एक शाखा हिमालय के पूर्वी भाग में काफी वर्षा करती है। यहां पर खासी की पहाड़ियों में मॉसिनराम नामक स्थान पर 1300 cm से भी अधिक वर्षा होती है। वर्षा का यह औसत विश्व में सबसे अधिक है।
द्वितिय शाखा : इस मानसून की एक अन्य शाखा पूर्व में असम की तरफ जाती है जो कि ब्रह्मापुत्र नदी की घाटी में काफी मात्रा में वर्षा करती है। यहां औसत रूप से 200 सेंटीमीटर से अधिक वर्षा होती है।
तीसरी शाखा : इस मानसून की तीसरी शाखा हिमालय पर्वत के समानांतर पश्चिम की तरफ क्रमशः बिहार, झारखंड, उत्तरप्रदेश, उत्तरांचल, पंजाब, हरियाणा व राजस्थान तक जाती है। समुंद्र से दूरी बढ़ने के साथ-साथ इस शाखा में वर्षा का औसत भी कम होता जाता है।
उदाहरण के लिए कोलकाता में यह औसत 170 सेंटीमीटर रहता है जो कि धीरे-धीरे कम होता हुआ पटना में 120 सैंटीमीटर इलाहाबाद में 85 सेंटीमीटर सेंटीमीटर दिल्ली में 65 सेंटीमीटर, बीकानेर में 28 सेंटीमीटर तथा जैसलमेर में 5 सेंटीमीटर रह जाता है।
चतुर्थ शाखा : इस मानसून की एक शाखा छोटा नागपुर के पठार की तरफ बढ़ती हुई अरब सागर के मानसून की शाखा में मिल जाती है। इस कारण इन दोनों शाखाओं से क्षेत्र में औसत रूप से 100 सेंटीमीटर तक वर्षा होती है।
(2) शरद ऋतु : शरद ऋतु की अवधि मध्य सितंबर से दिसंबर तक रहती है। यह मानसून का प्रत्यावर्तन काल है। भारत में शरद ऋतु की दशाएं निम्न है :
(१) तापमान : शरद ऋतु में सूर्य धीरे-धीरे दक्षिणायन स्थिति में आने लग जाता है जिसके परिणाम स्वरूप भारत में तापमान धीरे-धीरे कम होते जाते हैं।
इस ऋतु में अधिकतम तापमान का औसत 30 डिग्री से 35 डिग्री सेल्सियस के मध्य रहता है जो कि दिसंबर तक धीरे-धीरे घट कर तटीय क्षेत्रों एवं दक्षिणी भारत में औसत रूप से 25 डिग्री सेल्सियस तथा उत्तरी भारत में 5 डिग्री सेल्सियस तक गिर जाते हैं। उच्च पर्वतीय क्षेत्रों में तापमान जमाव बिंदु से नीचे रहता है।
(२) वायुदाब व पवनें : शरद ऋतु में तापमान के अनुरूप वायुदाब में भी परिवर्तन हो जाता है। चूंकि तापमान में धीरे-धीरे गिरावट आती है अतः इसके साथ-साथ कुछ समय तक वायुदाब की अनिश्चित सी स्थिति रहती है।
धीरे-धीरे वायुदाब ग्रीष्म ऋतु के वायुदाब की तुलना में विपरीत विकसित होता जाता है। इन परिस्थितियों के कारण मानसूनी पवनों का प्रत्यावर्तन होने लगता है।
(३) वर्षा : शरद ऋतु में वर्षा की मात्रा एवं उसका क्षेत्रीय वितरण सीमित रहता है। पीछे हटते हुए मानसून के कारण तमिलनाडु क्षेत्रों में अल्प मात्रा में वर्षा होती है।
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अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs)
वृष्टि छाया प्रदेश क्या है?
उत्तर : वर्षा ऋतु में अरब सागरीय मानसून की शाखा का वेग पश्चिमी घाट व पश्चिमी तटीय मैदान में ही समाप्त हो जाता है। पश्चिमी तट पर लगभग 250 सेंटीमीटर तथा पश्चिमी घाट के उच्च भागों में 500 सेंटीमीटर से भी अधिक वर्षा होती है।
पश्चिमी घाट पार करने पर न केवल इनमें जल की कमी आती है जबकि पूर्वी ढालों पर उतरते समय गर्म होकर यह शुष्क भी हो जाती है। इस प्रकार पूर्वी ढालों व पठार पर कम वर्षा होती है। इसे वृष्टि छाया प्रदेश कहते हैं।भारत में मानसूनी प्रकार की जलवायु क्यों है?
उत्तर : अत्यधिक विस्तार व भू आकारों की भिन्नता के कारण भारत के विभिन्न भागों में जलवायु संबंधी विविधताएं पाई जाती है लेकिन मानसूनी प्रभाव के कारण देश की जलवायु संबंधी विविधताओं में भी एकता दिखलाई देती है।
इसी कारण भारत की जलवायु को मानसूनी जलवायु कहा गया है। इस प्रकार भारत में उष्णकटिबंधीय मानसूनी प्रकार की जलवायु पाई जाती है।भारत को उष्णकटिबंधीय मानसून जलवायु क्यों कहा जाता है?
उत्तर : भारत उत्तरी गोलार्द्ध में स्थित है और कर्क रेखा भारत के लगभग मध्य से होकर गुजरती है। अतः यहां का तापमान उच्च रहता है। यही कारण है कि भारत को उष्णकटिबंधीय मानसून जलवायु वाला क्षेत्र कहा जाता है।