हिंदी साहित्य के इतिहास का विकास क्रम आदिकाल से प्रारंभ होता है। आदिकाल ऐसा काल है जिसे विभिन्न इतिहासकारों ने विभिन्न नामों से पुकारा है और इसकी समयावधि को निश्चित किया है।
महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने आदिकाल का नाम सिद्ध सामंत युग दिया है। इसके मतानुसार इस काल में सिद्धों की वाणियां तथा सामंतों की स्तुतियां दो ही प्रमुख प्रवृतियां प्रमुख थी।
विभिन्न विद्वानों के अनुसार आदिकाल के विभिन्न नाम
क्र.सं. | विद्वान | आदिकाल का नामकरण |
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1. | जॉर्ज ग्रियर्सन | चारण काल |
2. | मिश्र बंधु | प्रारंभिक काल |
3. | आचार्य रामचंद्र शुक्ल | वीरगाथा काल |
4. | रामकुमार वर्मा | संधि एवं चारण काल |
5. | आचार्य रामचंद्र शुक्ल | वीरगाथा काल |
6. | आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदई | बीज वपन्न काल |
7. | राहुल सांकृत्यायन | सिद्ध सामंत काल |
8. | बच्चन सिंह | अपभ्रंश काल |
9. | हजारी प्रसाद द्विवेदी | आदिकाल |
10. | रमाशंकर शुक्ल’रसाल’ | बाल्यकाल |
नामकरण की भांति ही इस काल की समयावधि के निर्धारण के संबंध में भी इतिहासकार एकमत नहीं है। सामान्यतः आचार्य शुक्ल के द्वारा निर्धारित समयावधि सं. 1050 से 1375 विक्रमी को ही स्वीकारा गया है। किंतु काशीप्रसाद जायसवाल और राहुल सांकृत्यायन ने कवि सरहपा को हिंदी का प्रथम कवि मानकर इस काल का प्रारंभ 8 वीं शताब्दी माना है। शिव सिंह सेंगर ने पुष्य नामक कवि को हिंदी का प्रथम कवि मानते हुए इस काल को 7 वीं शताब्दी से प्रारंभ हुआ मना है।
आदिकाल हिंदी साहित्य का प्रथम काव्य है। आदिकाल साहित्य कई भागों में बंटा हुआ है, जिसके अंतर्गत इस आर्टिकल में हम सिद्ध साहित्य के बारे में चर्चा करेंगे।
आदिकाल का सिद्ध साहित्य
बज्रयान बौद्धों द्वारा अपने धर्म प्रचार के लिए लिखा गया साहित्य सिद्ध साहित्य कहलाता है। मंत्रों के द्वारा सिद्धि प्राप्ति के इच्छुक बौद्ध तांत्रिक सिद्धि कहलाएं।
भारत के पूर्वी प्रदेशों में बौद्ध धर्म वज्रयान शाखा का प्रचार है। 10 वीं शताब्दी से पूर्व ही बहुत अधिक था। ये एक विशाल भू-भाग में बिहार से असम तक फैले हुए थे। चौरासी सिद्ध इन्हीं में से हुए हैं।
ये बौद्ध तांत्रिक अपने अलौकिक चमत्कारों से सामान्य जन समुदाय को चमत्कृत तथा आतंकित करते रहते थे। ये विभिन्न साधनों में निष्णात, चमत्कारी अति प्राकृतिक शक्तियों से परिपूर्ण तथा अलौकिक सिद्धियों से संपन्न सिद्ध पुरुष थे, ये सभी सिद्धाचार्य वज्रयानी परंपरा में हुए थे। उनकी साधना कृच्छाचार की साधना थी, वास्तव में बौद्ध धर्म अपने अंतिम दिनों में मंत्र तंत्र की साधना में लीन हो गया था।
इन सिद्धों ने संस्कृत के अतिरिक्त अपभ्रंश मिश्रित देश भाषा में भी रचनाएं की थी, जिनके द्वारा उन्होंने सामान्य जनता में अपने मत का प्रचार किया। इन रचनाओं में रहस्यमार्गी एवं योग की प्रवृत्तियों की प्रधानता है। महामहोपाध्याय पं. हरप्रसाद जी शास्त्री ने बौद्धगान और दोहा नाम से इनकी रचनाओं का एक संग्रह बंगाक्षरों में प्रकाशित कराया था। शास्त्री जी ने पूर्वी प्रयोगों की अधिकता को देखकर इसकी भाषा को पुरानी बांग्ला बताया है। वास्तव में यह पुरानी बांग्ला भाषा न होकर साहित्यिक अपभ्रंश भाषा है।
राहुल सांकृत्यायन जी ने भी इन सिद्धों की रचनाओं को अपनी हिंदी काव्यधारा में प्रकाशित करके हिंदी के विद्वानों का ध्यान उनकी ओर आकृष्ट किया था। राहुल जी ने इन सिद्धों की भाषा को हिंदी का प्राचीन रूप माना है क्योंकि यह लोक भाषा के अधिक निकट है।
सिद्धों के द्वारा रचित साहित्य का सर्वप्रथम पता सन् 1907 ईस्वी में हरप्रसाद शास्त्री जी को नेपाल में मिला था। सिद्ध साहित्य मूलतः दो काव्य रूप में मिलता है – दोहा कोश और चर्यापद। दोहाकोश में दोहो से युक्त चतुष्पदियों से युक्त कड़वत शैली का प्रयोग हुआ है तथा चर्यापद में तांत्रिक चर्या के समय गाए जाने वाले पद मिलते हैं।
चर्यापदों के संग्रह में सामूहिक रूप से विभिन्न सिद्धाचार्यों की रचनाएं संकलित हैं। मुनिदत्त ने चर्यापदों का संकलन किया है। सिद्ध साहित्य में सामान्य रूप से महासुख आदि के सांप्रदायिक उपदेश ही अधिक हैं। सिद्धों ने प्रज्ञा और उपाय के योग से महासुख का प्राप्त होना माना है।
सिद्धों ने निर्वाण के शून्य, विज्ञान और महासुख ये तीन विभाग माने हैं। सिद्धों ने निर्वाण सुख को सहवास के समानांतर बताया है। रहस्यात्मक प्रवृत्ति की वृद्धि होने के कारण साधकों का समाज श्री समाज (गुह्या समाज) कहा गया और भैरवीचक्र की श्रीवृद्धि साधना चल पड़ी। इस सिद्धि के लिए किसी नीच स्त्री का सहवास आवश्यक माना गया था। इस प्रकार धर्म के नाम पर दुराचार पनपने लगा।
सिद्धों की रचनाएं अपभ्रंश के साथ लोक भाषा हिंदी में मिलती है। सिद्धों की संख्या 84 मानी गई है, जिसमें से 14 सिद्धों की ही रचनाएं मिलती हैं।
सिद्धों की रचनाओं को तीन भागों में बांटा जा सकता है –
1. नीति अथवा आचार संबंधी रचनाएं
2. उपदेशपरक रचनाएं
3. साधना संबंधी अथवा रहस्यवादी रचनाएं
इन सिद्धों में सरहपा, शबरपा, लुइपा, डोम्बिया, कमरीया, कण्हपा, गौरक्षपा, शान्तिपा, तिलोपा, बिरूपा आदि ने हिंदी में रचनाएं लिखी है।
प्रमुख प्रसिद्ध सिद्ध कवि –
सिद्धों की संख्या 84 मानी जाती है। तांत्रिक क्रियाओं में आस्था तथा मंत्र द्वारा सिद्धि चाहने के कारण इन्हें सिद्ध कहा गया। 84 सिद्धों में सरहपा, शबरपा, लुइपा, कण्हपा, बिरूपा, डोम्भिपा, कुक्कुरिपा आदि प्रमुख हैं। सरहपा सर्वप्रथम सिद्ध है इन्हें सहजयान का प्रवर्तक कहा जाता है।
1. सिद्ध गुरु सरहपा – सिद्धों के गुरु सरहपा को सरहपाद, सरोजब्रज, राहुलभद्र आदि नामों से भी संबोधित किया गया जाता है। राहुल जी ने सरहपा को हिंदी का प्रथम कवि माना है। इनका समय 769 ई. माना है। इनके द्वारा रचे गए 32 ग्रंथों में ‘उपदेश नीति’, ‘कायाकोष’, ‘दोहाकोष’ आदि हिंदी की प्रसिद्ध रचनाएं हैं।
इन्होंने गुरु सेवा को महत्वपूर्ण माना है तथा पाखंड और आडंबर का विरोध किया है। ये सहज भोगमार्ग से जीव को महासुख की ओर ले जाते हैं। इनकी भाषा सरल और गेय हैं। इनकी हिंदी भाषा पर यत्र-तत्र अपभ्रंश का भी प्रभाव दिखाई देता है। हिंदी संत साहित्य में भाव और शिल्प की परंपरा सरहपा के काव्य के आधार पर ही विकसित हुई है।
2. शबरपा – ये सरहपा के शिष्य थे। इनका जन्म क्षत्रिय वंश में सन् 780 ईसवी में हुआ था। ये शबरो का सा जीवन व्यतीत करते थे, अतः शबरपा कहलाये। ‘चर्यापद’ इनका सुप्रसिद्ध ग्रंथ है। इसमें मायामोह का विरोध किया गया है तथा सहज जीवन पर बल दिया गया है।
3. लुइपा – ये शबरपा के शिष्य थे और राजा धर्मपाल के समय में कायस्थ परिवार में उत्पन्न हुए थे। 84 सिद्धों में लुइपा को विशेष स्थान प्राप्त है। इनकी कविता में रहस्य भाव की प्रधानता है।
4. कण्हपा – ये सन् 820 में कर्नाटक में ब्राह्मण वंश में उत्पन्न हुए थे। इनका स्थान बिहार का सोकपुरी नामक स्थान था। इनके गुरु जालंधरपा थे। इन्होंने रहस्य भावना से ओत-प्रोत गीतों की रचना की है। उन्होंने रूढ़ियों का भी खंडन किया है।
सिद्ध साहित्य की सामान्य प्रवृतियां या विशेषताएं –
1. सिद्ध साहित्य हिंदी का प्रथम साहित्य है।
2. सिद्ध साहित्य में दक्षिण मार्ग को छोड़कर वाममार्ग (मान्य परंपराओं का विरोध) पर आधारित पंचमकार की साधना (मांस, मत्स्य, मदिरा, मैथुन, मुद्रा (स्त्री)) को अपनाया। अर्थात योगतंत्र की साधना में मद्य तथा नारी का सेवन किया करते थे।
3. उनकी मान्यता है कि राग (प्रेम) से राग दूर होता है।
4. सिद्धों के जीवन का लक्ष्य महासुख है। इसे ही प्रज्ञापयोत्मिका रति (प्रज्ञा (स्त्री) + उपाय (पुरुष)) कहते हैं। इसे ही कमल (स्त्री) कुलिश (वज्र, पुरुष) साधना कहा गया है।
5. सिद्ध संसार में जले उत्पलवत रहते हैं।
6. ये हिंदी के प्रथम रहस्यवादी कवि हैं। रहस्यवाद का अर्थ है निर्गुण ईश्वर के प्रति दांपत्य प्रेम रहस्यवाद प्रेम कहलाता है।
7. सिद्ध काव्य की भाषा संध्या भाषा (अपभ्रंश एवं हिंदी के संधि काल की भाषा) है और इसमें अलंकार सामान्य है और पदों का प्रयोग किया गया है। सिद्ध साहित्य में मूलतः शान्त और श्रृंगार रस की रचनाएं ही मिलती हैं। सिद्ध साहित्य में सर्वत्र उपदेश की ही प्रधानता है, अतः इसे उपदेश प्रधान साहित्य भी कहा जाता है।
8. सिद्ध साहित्य में सिद्धांत पक्ष की अपेक्षा उसके व्यवहार पक्ष पर विशेष बल दिया है।
9. मंत्रयान, वज्रयान, सहजयान आदि संप्रदायों में देवता, मंत्र एवं तत्व निरूपण की शब्दावली भिन्न होते हुए भी सब की साधना पद्धति समान है। इस साधना पद्धति में शिव शक्ति की मिथुनरत युगबद्धता को मान्यता प्राप्त है। इनका गुहयाचरों पर विश्वास है।
10. उपनिषदों में तो ब्रह्मानंद को सहवास सुख से 100 गुना अधिक बताया गया है। पर सिद्धों ने इसे सहवास सुख के समान ही माना है।
11. ये सिद्ध संप्रदाय योग साधना पर विशेष बल देते हैं। ये ब्रह्मांड में व्याप्त शिव शक्ति को ही शरीर में स्थित सहस्त्रार और कुण्डलिनी मानते हैं।
12. सिद्ध साहित्य में वैदिक धर्म और ब्रह्मांड धर्म का खंडन मिलता है।
13. अपने तंत्र मंत्र के द्वारा चमत्कार प्रदर्शित करके सिद्ध जनता को अपने प्रभाव में लाना चाहते थे।
14. सिद्ध मरने के पश्चात मोक्ष पाने की अपेक्षा अपने जीवनकाल में ही सिद्धियां प्राप्त करना अच्छा मानते थे।
15. सिद्ध कवि और साधक जाति-पांति तथा वर्ण भेद का डटकर विरोध करते थे।
16. सिद्ध साहित्य में अंतः साधना पर बल, वैदिक धर्म और ब्राह्मण धर्म का खंडन मिलता है।
17. सिद्धों की वाणियों में रहस्यवादी भावों को अटपटे रूप में संध्या भाषा के माध्यम से प्रकट किया गया है। इनकी हिंदी पर अपभ्रंश का प्रभाव है।
18. सिद्धों ने पहेलियां/उलटबासी का प्रयोग किया है – सिद्धों ने रहस्यमार्गियों की सामान्य प्रवृत्ति के अनुसार अपनी वाणी को पहेली अथवा उलटबासी के रूप में प्रस्तुत किया है। ये अपनी अटपटी वाणी का सांकेतिक अर्थ भी बताया करते थे। इसी शैली को आगे चलकर निर्गुणमार्गी संतों ने अपनाया था। सिद्धों की अटपटी वाणी का एक उदाहरण अवलोकनीय है –
19. प्रतीकों का प्रयोग – सिद्धों ने अपने साहित्य में प्रतीकों का प्रयोग भी बहुत अधिक किया है। ये प्रतीक मूलतः अर्थ साम्यगत, साधर्म्य मूलक और चर्यागीत होते हैं। प्रतीकों के दो मुख्य प्रकार मिलते हैं – औपम्य मूलक और विरोध मूल्क। औपम्य मूलक प्रतीकों में विभिन्न रूपकों की योजना होती है तथा विरोध मूलक प्रतीकों का पर्यावासान उल्टबासियों में होता है।
सिद्ध साहित्य का हिंदी साहित्य पर प्रभाव
सिद्ध साहित्य भारतीय साहित्य में अपना एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है, वह महत्वपूर्ण होने के साथ प्रभावकारी भी था। परवर्ती साहित्य पर सिद्ध साहित्य का पर्याप्त प्रभाव पड़ा है। संत साहित्य पर सिद्ध साहित्य का प्रभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है।
कबीर इस साहित्य से विशेष प्रभावित थे। कर्मकांड की निंदा, आचरण की शुद्धता, संध्या भाषा, रहस्यमयी उक्तियां, उलटबासियां, रूपक और प्रतीक प्रधान शब्दावली कबीर को सिद्धों से ही मिली थी।
सूर के दृष्टकूट पर भी सिद्ध साहित्य का प्रभाव है। सिद्धों ने दोहा, चौपाई आदि छंदों का प्रयोग किया था। यह छंद पद्धति इतनी अधिक लोकप्रिय हुई की भक्ति काल में जायसी और तुलसी ने भी अपने सुप्रसिद्ध महाकाव्यों पद्मावत और रामचरितमानस की रचना दोहा चौपाई शैली में ही की थी। अधिकांश सूफी कवियों ने तो इसी शैली में अपने ग्रंथ लिखे हैं।
कबीर ने सिद्धों की भांति ही अपनी अटपटी वाणी का प्रकाशन दोहों में ही किया। दोहा शैली रीतिकाल में खूब प्रचलित रही और आधुनिक काल में भी प्रचलित है। सिद्धों ने विभिन्न रागों में अपने चर्यागीत लिखे थे। इन चर्यागीतों से ही गेय पद शैली का विकास हुआ। चर्यागीतों के प्रभाव का ही परिणाम है कि भक्तिकाल में तो गीत शैली फली फूली ही, आधुनिक काल में भी यह पर्याप्त मात्रा में प्रचलित है। कबीर, सूर, तुलसी, मीरा, भारतेंदु आदि ने गेय पदों की भरपूर मात्रा में रचना की है।
इस क्रम में डॉ. शिवकुमार शर्मा ने लिखा है कि “चारण साहित्य तत्कालीन राजनीतिक जीवन की प्रतिच्छाया है, परंतु यह सिद्ध साहित्य सदियों से आने वाली धार्मिक और सांस्कृतिक विचारधारा का एक स्पष्ट उल्लेख है। इसने हमारे धार्मिक विश्वास की श्रंखला को और भी मजबूत किया है। आगे पूर्व मध्यकाल एवं उत्तर मध्यकाल में जो गोपीलीला एवं अभिसार के वर्णन मिलते हैं, सिद्ध साहित्य में उसका पूर्वरूप देखा जा सकता है। सिद्धों की उलझी हुई उक्तियों को कबीर की उल्टबासियों का प्रेरक समझना चाहिए।”
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भाषा की दृष्टि से भी सिद्ध साहित्य अत्यंत महत्वपूर्ण है। क्योंकि वाणी ने हिंदी भाषा को एक निश्चित प्रदान की थी सिद्धों की संध्या भाषा ही नाथों की वाणी से पुष्ट होकर कबीर की उल्टबासियों में संतवाणी का रूप धारण करती है।
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQ)
- Q. 01. राहुल सांकृत्यायन ने आदिकाल का नाम सिद्ध सामंत युग क्यों दिया है?
- Ans. महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने आदिकाल का नाम सिद्ध सामंत युग दिया है। इसके मतानुसार इस काल में सिद्धों की वाणियां तथा सामंतों की स्तुतियां दो ही प्रमुख प्रवृतियां प्रमुख थी।
- Ans. सिद्ध साहित्य आदिकालीन साहित्य हिंदी साहित्य का प्रथम काव्य है।
- Ans. सिद्धों की संख्या 84 मानी गई है, जिसमें से 14 सिद्धों की ही रचनाएं मिलती हैं। इन सिद्धों में सरहपा, शबरपा, लुइपा, डोम्बिया, कमरीया, कण्हपा, गौरक्षपा, शान्तिपा, तिलोपा, बिरूपा आदि ने हिंदी में रचनाएं लिखी है।
- Ans. सिद्धों के द्वारा रचित साहित्य का सर्वप्रथम पता सन 1907 ईस्वी में हरप्रसाद शास्त्री जी को नेपाल में मिला था। सिद्ध साहित्य मूलतः दो काव्य रूप में मिलता है – दोहा कोश और चर्यापद।
- Ans. सिद्ध साहित्य में सिद्धांत पक्ष की अपेक्षा उसके व्यवहार पक्ष पर विशेष बल दिया है। 2. सिद्ध साहित्य में दक्षिण मार्ग को छोड़कर वाममार्ग (मान्य परंपराओं का विरोध) पर आधारित पंचमकार की साधना (मांस, मत्स्य, मदिरा, मैथुन, मुद्रा (स्त्री)) को अपनाया। अर्थात योगतंत्र की साधना में मद्य तथा नारी का सेवन किया करते थे।
- Ans. सरहपा सर्वप्रथम सिद्ध है इन्हें सहजयान का प्रवर्तक कहा जाता है।