इस आर्टिकल में भारत सरकार अधिनियम (1935 act in hindi), भारत सरकार अधिनियम 1935 की प्रमुख विशेषताएं, 1935 के भारत सरकार अधिनियम की मुख्य विशेषताओं का आलोचनात्मक परीक्षण, भारत सरकार अधिनियम 1935 का महत्व आदि टॉपिक पर चर्चा की गई है।
भारत शासन अधिनियम 1935 क्या है
साइमन कमीशन (Simon Commission) ने 1930 में अपना प्रतिवेदन प्रस्तुत किया जिसके आधार पर भारतीय सरकार अधिनियम 1935 अस्तित्व में आया। 1935 का अधिनियम काफी बड़ा एवं जटिलता था। इसमें 321 अनुच्छेद एवं 10 परिशिष्ट थे। इसे 3 जुलाई 1936 को लागू किया।
1935 के भारत सरकार अधिनियम के पारित होने का कारण कांग्रेस ने 1919 के मॉंटफोर्ड सुधारों को अपर्याप्त, असंतोषजनक तथा निराशापूर्ण बतलाया था।
1921 में असहयोग आंदोलन आरंभ किया जिसके फलस्वरूप यह अधिनियम लाया गया। मोतीलाल नेहरू ने 1923 में स्वराज्य पार्टी का गठन करके 1919 के सुधारों का विरोध करना शुरू किया था।
भारत सरकार अधिनियम 1935 की प्रमुख विशेषताएं
(1) अखिल भारतीय संघ का प्रस्ताव
1935 के अधिनियम में यह कहा गया कि ब्रिटिश प्रांतों और देसी राज्यों को मिलाकर भारत में एक अखिल भारतीय संघ स्थापित किया जाए। यह संघ 11 ब्रिटिश प्रांतों और 6 चीफ कमिश्नर और देशी रियासतों से मिलकर बनना था।
इस अधिनियम के अनुसार ब्रिटिश प्रांतों तथा चीफ कमिश्नरों के क्षेत्रों के लिए संघ में शामिल होना अनिवार्य था लेकिन देशी रियासतों के लिए यह ऐच्छिक था। देशी रियासतें सम्मिलित होने के लिए तैयार नहीं हुई और अखिल भारतीय संघ की स्थापना नहीं हो सकी।
(2) प्रांतीय स्वायत्तता (1 अप्रैल 1937 से)
1935 के भारत शासन अधिनियम में प्रांतों में द्वैध शासन को समाप्त कर वहां स्वशासन (Autonomy) की स्थापना की गई थी। प्रांतों के सभी विभागों पर मंत्रियों का नियंत्रण स्थापित कर दिया गया था। मंत्री विधानसभा के बहुमत प्राप्त दल के सदस्य होते थे और वे उसके प्रति संयुक्त रूप से उत्तरदायी थे।
साधारणतया गवर्नर को मंत्रियों की सलाह और सहायता से ही कार्य करना था। किंतु कुछ मामलों में गवर्नर को अपने विवेक और निजी निर्णय के आधार पर भी कार्य करने का अधिकार था। कुछ मामलों में गवर्नर को विशेष उत्तरदायित्व सौंपें गए थे।
इस प्रकार अधिनियम के अनुसार यद्यपि प्रांतों को स्वायत्तता प्रदान की गई थी, लेकिन गवर्नर और गवर्नर जनरल के विवेकाधिकारों तथा विशेष उत्तरदायित्वों के माध्यम से प्रांतों के शासन में हस्तक्षेप की गुंजाइश भी रखी गई थी।
3. केंद्र में द्वैध शासन प्रणाली (Duplex Governance System at the Center)
1935 के अधिनियम में केंद्र में द्वैध शासन (दोहरा शासन) की व्यवस्था लागू की गई थी। संघीय विषयों को आरक्षित और स्थानांतरित दो भागों में विभाजित किया गया था।
आरक्षित विषयों के प्रबंधन की जिम्मेदारी गवर्नर जनरल और उसके सभासदों के हाथों में थी और स्थानांतरित विषयों की जिम्मेदारी गवर्नर जनरल और मंत्रिपरिषद को सौंपी गई थी।
(4) शक्तियों का विभाजन
1935 के अधिनियम द्वारा संघ की स्थापना की जानी थी, इसलिए इसमें केंद्र तथा प्रांतों के मध्य शक्तियों का विभाजन किया गया था। केंद्र और प्रांतों के बीच शक्तियों के विभाजन के लिए तीन सूचियों की व्यवस्था की गई।
संघीय सूची (59 विषय) प्रांतीय सूची (54 विषय) और समवर्ती सूची (36 विषय)।
अवशिष्ट (Residuary) शक्तियां गवर्नर जनरल को प्रदान की गई थी। वह अपनी इच्छा से केंद्रीय या प्रांतीय विधानमंडल को इन विषयों पर कानून बनाने का अधिकार दे सकता था।
5. संघीय व्यवस्थापिका
इस अधिनियम के द्वारा दो सदनों वाली संघीय व्यवस्थापिका की व्यवस्था की गई। जिनमें से एक संघीय विधानसभा और दूसरी राज्य परिषद थी। केंद्र में विधान सभा के सदस्यों की संख्या 375 और राज्य परिषद के सदस्यों की संख्या 260 निर्धारित की गई।
प्रांतों में 11 में से 6 विधान मंडलों (बम्बई, मद्रास, बंगाल, उ.प्र., बिहार और आसाम) को दो सदनों वाला बनाया गया। अधिनियम के द्वारा मताधिकार का विस्तार किया गया और प्रांतों की 10% जनता को वोट देने का अधिकार दिया गया।
संघीय व्यवस्थापिका के संगठन में एक विशेष बात यह थी कि निम्न सदन के निर्माण हेतु अप्रत्यक्ष तथा उच्च सदन के निर्माण हेतु प्रत्यक्ष निर्वाचन पद्धति को अपनाया गया था। यह व्यवस्था संघीय देशों में मान्य दोनों सदनों के संगठन संबंधी सिद्धांतों के विपरीत थी।
(6) संघीय न्यायालय (Federal Court)
भारत शासन अधिनियम के अंतर्गत एक संघीय न्यायालय की व्यवस्था की गई जिसको अधिनियम की व्याख्या का प्राथमिक (Original) तथा अपीलीय (Appellate) क्षेत्राधिकार दिया गया। किंतु इस क्षेत्र में अंतिम निर्णय प्रीवी काउंसिल (Privy Council) का ही होता था।
संघीय न्यायालय में एक मुख्य न्यायाधीश तथा अधिक से अधिक 8 न्यायाधीशों की व्यवस्था की गई थी। परंतु उस समय एक मुख्य न्यायधीश और दो अन्य न्यायाधीशों को ही नियुक्त किया गया था। न्यायाधीशों की नियुक्ति सम्राट द्वारा की जाती थी और 66 वर्ष की आयु तक यह अपने पद पर रह सकते थे।
(7) आरक्षण व्यवस्था एवं संरक्षण (Reservation and Protection)
ब्रिटिश शासन का मानना था कि भारतीयों द्वारा उत्तरदायी शासन का संचालन करने में त्रुटियां की जा सकती है। वे अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा हेतु पहले से ही समुचित व्यवस्था कर लेना चाहते थे।
अधिनियम द्वारा गवर्नर जनरल तथा गवर्नरों को विभिन्न परिस्थितियों में केंद्र तथा प्रांत के उत्तरदायी शासन में हस्तक्षेप करने के व्यापक अधिकार प्रदान किए गए। गवर्नर जनरल और गवर्नरों के ये विस्तृत अधिकार ही अधिनियम के संरक्षण थे।
(8) भारत परिषद (India Council) की समाप्ति
इस अधिनियम में भारत परिषद को समाप्त कर दिया गया और उसके स्थान पर परामर्शदाताओं की व्यवस्था की गई जिनकी संख्या कम से कम 3 और अधिकतम 6 हो सकती थी।
भारत मंत्री परामर्शदाताओं से परामर्श लेने के लिए बाध्य नहीं था और परामर्श लेने पर वह उसे अस्वीकार या स्वीकार करने के लिए स्वतंत्रता था, किंतु सार्वजनिक सेवाओं के संबंध में इनके द्वारा दिए गए परामर्श को स्वीकार करना भारत सचिव (भारत मंत्री) के लिए आवश्यक था।
भारत सचिव का नियंत्रण उन मामलों में कम कर दिया गया जिनका शासन उत्तरदायी मंत्रियों को सौंप दिया गया था।
(9) ब्रिटिश संसद की सर्वोच्चता (Supremacy of the British Parliament)
1935 के अधिनियम के अनुसार भारतीय शासन के संबंध में अंतिम शक्ति ब्रिटिश संसद के पास थी। संघीय व्यवस्थापिका और प्रांतीय विधानमंडलों को अधिनियम में किसी भी प्रकार का परिवर्तन करने का अधिकार नहीं था।
केंद्रीय व्यवस्थापिका के दोनों सदन कुछ विशेष सीमाओं में रहते हुए अधिनियम में संशोधन की सिफारिश ब्रिटिश संसद को कर सकते थे, लेकिन संशोधन की सत्ता ब्रिटिश संसद में ही निहित थी।
(10) बर्मा, बरार, अदन
इस अधिनियम के द्वारा बर्मा (म्यांमार) को भारत से पृथक कर दिया गया। अदन को इंग्लैंड के उपनिवेश कार्यालय के अधीन कर दिया गया तथा बरार को मध्य प्रांत का अंग बना दिया गया। ब्रिटिश प्रांतों की संख्या 11 कर दी गयी।
उत्तरी पश्चिमी सीमा प्रांत को अन्य प्रांतों के समान दर्जा दिया गया।भारत सरकार अधिनियम 1935 के लागू होने के बाद बर्मा (म्यांमार) देश भारत से अलग हुआ था।
(11) प्रस्तावना का अभाव
इस अधिनियम में कोई प्रस्तावना नहीं थी, किंतु ब्रिटिश संसद के सदस्यों द्वारा आलोचना किए जाने पर 1919 के भारत शासन अधिनियम की प्रस्तावना को ही 1935 के अधिनियम के साथ जोड़ दिया गया।
ऐसा इसलिए किया गया जिससे भारतीयों को यह स्पष्ट रहे कि ब्रिटिश सरकार का अंतिम उद्देश्य भारत में औपनिवेशिक स्वराज्य की स्थापना करना है।
(12) उच्चायुक्त का पद
इस अधिनियम में भारतीय उच्चायुक्त के पद को बनाए रखने की व्यवस्था की गई। उसकी नियुक्ति, स्थिति, शक्ति और गवर्नर जनरल (Governor General) के साथ उसके संबंधों में 1919 के अधिनियम में विद्यमान स्थितियों में कोई अंतर नहीं किया गया।
1935 के भारत सरकार अधिनियम की आलोचना
भारत के लगभग सभी राजनीतिक दलों ने इस एक्ट किसी न किसी रूप में निंदा की है। कांग्रेस ने तो इसे पूरी तरह से रद्द कर दिया।
मदन मोहन मालवीय के अनुसार, “यह अधिनियम हम पर थोपा गया है, बाहर से यह कुछ जनतंत्र या शासन व्यवस्था से मिलता-जुलता है, परंतु भीतर से खोखला है।”
पंडित जवाहरलाल नेहरू ने इसे “दास्तां का घोषणा पत्र” की संज्ञा दी। उन्होंने यह भी कहा, “यह अधिनियम एक ऐसी मशीन है जिसमें ब्रेक तो बहुत सुदृढ़ है लेकिन इंजन नहीं था।”
“We are provided with a car, all brakes and no engine” – Jawaharlal Nehru.
मोहम्मद अली जिन्ना ने कहा, “यह पूर्णतया सड़ा हुआ, मौलिक रूप में बुरा और पूर्णरूपेण अस्वीकृत एक्ट है।”
अधिनियम में आरक्षण व संरक्षण की व्यवस्था के कारण ब्रिटिश राजनीतिज्ञ एटली ने इसे “अविश्वास का प्रतीक” कहा।
एटली के अनुसार, “1935 का विधेयक विश्वास का प्रमुख राग था।”
इस अधिनियम के निम्नलिखित आधारों पर आलोचना की गई है –
(1) दोषपूर्ण संघ : इस अधिनियम के अनुसार केंद्र में जिस संघ की स्थापना का सुझाव दिया गया था अत्यंत दोषपूर्ण था। इस संघ में ब्रिटिश प्रांतों को मिलाना अनिवार्य था परंतु देशी रियासतों को स्वेच्छा पर छोड़ दिया गया। ब्रिटिश प्रांतों और देसी रियासतों की जनसंख्या, क्षेत्रफल, महत्व एवं राजनीतिक लक्ष्यों में विषमता थी।
ब्रिटिश प्रांतों में कुछ सीमा तक उत्तरदायी शासन की स्थापना हो चुकी थी और देसी रियासतों में निरंकुशता का साम्राज्य था। ऐसी दो असमान इकाइयों को संघ में मिलाना अत्यंत अनुचित था। इस प्रकार संघ व्यवस्था की क्रियान्विति ही नहीं हुई।
(2) गृह सरकार में परिवर्तन नाम मात्र का।
(3) प्रांतीय स्वायत्तता एक भ्रम : प्रांतीय स्वशासन (autonomy) के आधारभूत तत्व ‘बाहरी नियंत्रण से स्वतंत्रता’ और ‘प्रांत में उत्तरदायी शासन’ विद्यमान नहीं थे। गवर्नर जनरल और गवर्नरों के विशेष और व्यापक उत्तरदायित्व के कारण प्रांतीय स्वायत्तता एक भ्रम बन कर रह गई थी। स्वशासन (Autonomy) केवल भ्रम था।
(4) संप्रदायिक चुनाव प्रणाली का विस्तार : संप्रदायिक चुनाव प्रणाली का विस्तार करके इसे आंग्ल भारतीयों, यूरोपियनों, भारतीय ईसाईयों और हरिजनों पर भी लागू कर दिया गया। जिसके फलस्वरूप भारतीय राजनीतिक वातावरण को कटुता युक्त बना दिया गया। जिससे भा अपरतीय एकता नष्ट हो जाए और भारत में ब्रिटिश साम्राज्य का अस्तित्व बना रहे।
मुस्लिम लीग ने इस व्यवस्था की प्रशंसा की और अपने लिए अलग राज्य की मांग रख दी। 1940 में जिन्ना के द्वि राष्ट्र सिद्धांत (Two Nation Theory) के आधार पर लीग ने पाकिस्तान का प्रस्ताव पारित कर दिया।
(5) संघीय न्यायालय सर्वोच्च नहीं : संघीय न्यायालय सर्वोच्च न्यायालय नहीं था, क्योंकि इसके निर्णय के विरुद्ध अपील लंदन स्थित प्रीवी काउंसिल (Privy Council) में की जा सकती थी। उसे ही संविधान की व्याख्या का अंतिम अधिकार था।
(6) आत्मनिर्णय के अधिकार का अभाव : भारतीयों को अपने भाग्य का निर्णय करने का इस अधिनियम में कोई प्रावधान नहीं था। यह अधिनियम ब्रिटिश संसद द्वारा निर्मित हुआ और उसी को भारत की प्रगति का निर्णायक स्वीकार किया गया। अधिनियम द्वारा भारत पर ब्रिटिश संसद या भारत मंत्री के नियंत्रण में कोई कमी नहीं की गई।
(7) भारतीय आकांक्षाओं की उपेक्षा : इस अधिनियम में भारतीयों की आकांक्षाओं का ध्यान नहीं रखा गया था। 1919 के अधिनियम की प्रस्तावना को ही मान्यता दे दी गई थी। जबकि भारतीयों ने पूर्ण स्वतंत्रता की मांग की थी। भारत पर अंग्रेजों का नियंत्रण पूर्ववत बना रहा।
(8) 1919 के एक्ट के अंतर्गत प्रांतों में द्वैध शासन (Duplex Governance) की विफलता देखी जा चुकी थी इसके उपरांत भी इसे प्रांतों से हटाकर केंद्र में लागू कर दिया गया। गवर्नर जनरल के अधिकारों और शक्तियों के आगे केंद्रीय मंत्री शक्तिहीन हो गए।
इस प्रकार औपनिवेशिक स्वराज्य तो दूर की बात है यह एक्ट भारतीयों को उत्तरदायी शासन ही प्रदान नहीं कर सका।
भारत सरकार अधिनियम 1935 का महत्व
यद्यपि भारत सरकार अधिनियम 1935 की अनेक आलोचनाएं की गई, किंतु इससे इस अधिनियम का महत्व कम नहीं आंका जा सकता है।
प्रांतीय स्वायत्तता की दृष्टि से यह अधिनियम अत्यधिक महत्वपूर्ण था। भारतीयों को प्रशासन तंत्र में प्रवेश करके हस्तक्षेप करने का अवसर प्राप्त हुआ। इस एक्ट से प्रतिनिधि शासन व्यवस्था का सूत्रपात भी हुआ।
- 1919 के अधिनियम की तुलना में यह निश्चय ही एक प्रगतिशील प्रयास था।
- इस अधिनियम के कारण प्रांतों में उत्तरदाई शासन की स्थापना हुई।
- भारत के एकीकरण का मार्ग भी इसी अधिनियम के द्वारा प्रशस्त हुआ। इस अधिनियम के द्वारा देशी रियासतों का अखिल भारतीय संघ में समावेश करना भारत के राजनीतिक एकीकरण का प्रयास था।
- इस अधिनियम में प्रदत्त प्रांतीय स्वायत्तता से संलग्न भारतीयों को प्राप्त राजनीतिक प्रशिक्षण संविधान निर्माण व स्वतंत्रता के पश्चात भारतीय शासन को संचालित करने में सहायक सिद्ध हुआ।
- स्वतंत्रता के पश्चात बनाया गया भारत का वर्तमान संविधान 1935 के अधिनियम का एक प्रमुख आधार है।
Also Read :
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs)
भारत सरकार अधिनियम 1935 कब लागू हुआ?
उत्तर : भारत सरकार अधिनियम, 1935 ब्रिटिश संसद द्वारा 1935 में पारित किया गया और 1937 में लागू हुआ।
1935 के भारत सरकार अधिनियम के अनुसार प्रांतों में मंत्रिमंडल कब स्थापित हुआ?
उत्तर : 1935 मे भारत सरकार अधिनियम के अनुसार प्रांतों में मंत्रिमंडल 1937 में स्थापित हुआ।
“1935 का विधेयक विश्वास का प्रमुख राग था।” यह कहते हुए आलोचना किसने की थी?
उत्तर : “1935 का विधेयक विश्वास का प्रमुख राग था।” यह कहते हुए आलोचना एंट्री ने की थी।