इस आर्टिकल में भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के उदय के प्रमुख कारणों (Reasons for rise of national movement in India) पर चर्चा की गई है।
भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के उद्भव के प्रमुख कारण
Reasons for rise of national movement in India : ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा भारत के आर्थिक शोषण से भारत के प्रत्येक वर्ग में असंतोष बढ़ता गया। जिसने अंतर्राष्ट्रीय आंदोलन का स्वरूप ग्रहण कर लिया। भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के उद्भव के कारण निम्नलिखित माने जाते हैं :
- पश्चिमी शिक्षा का प्रभाव
- भारतीय समाचार पत्र तथा साहित्य का प्रभाव
- भारत की राजनीतिक एकरूपता
- धार्मिक एवं सामाजिक सुधार आंदोलन
- ऐतिहासिक अनुसंधान
- सन 1857 का स्वतंत्रता संग्राम
- भारतीयों के प्रति भेदभाव की नीति
- भारत का आर्थिक शोषण
- विदेशी आंदोलनों का प्रभाव
- राजकीय सेवाओं में भारतीयों के साथ भेदभाव
- यातायात व संचार के साधनों का विकास
- लॉर्ड लिटन की अन्यायपूर्ण नीतियां
- इल्बर्ट विधेयक पर विवाद
- विभिन्न संस्थाओं के माध्यम से जागृति उत्पन्न करना
पश्चिमी शिक्षा का प्रभाव
सन 1835 में लार्ड मैकाले के सुझाव पर भारत में अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा देना प्रारंभ किया। पाश्चात्य शिक्षा ने भारतीयों को तीन प्रकार से लाभान्वित किया –
(१) अंग्रेजी भाषा के ज्ञान के कारण भारतीय विद्वानों ने पश्चिमी देशों के साहित्य का अध्ययन किया। इन विद्वानों को वाल्टेयर, बर्क, हरबर्ट स्पेंसर, रूसो, जे एस मिल, बेन्थम आदि के विचारों का ज्ञान हुआ।
जब भारतीयों ने अमेरिका के स्वतंत्रता संग्राम, फ्रांस की राज्यक्रांति, इटली में विदेशी सत्ता के विरुद्ध संघर्ष, आयरलैंड के स्वतंत्रता संग्राम के संबंध में अध्ययन किया तो उन में राष्ट्रीय चेतना व स्वतंत्रता की भावना जागृत हुई।
राजा राममोहन राय, दादा भाई नौरोजी, फिरोजशाह मेहता, गोपाल कृष्ण गोखले, व्योमेश चंद्र बनर्जी आदि नेता अंग्रेजी शिक्षा की ही देन थे।
(२) उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए अनेक भारतीय विद्वान इंग्लैंड गए तथा वहां के स्वतंत्र एवं उदार वातावरण से इतने अधिक प्रभावित हुए कि भारत आने पर उन्होंने राष्ट्रीय आंदोलन के उद्भव में योगदान दिया।
(३) शिक्षा में अंग्रेजी माध्यम से भारतीयों को एकता के सूत्र में बंधा। परिणाम स्वरूप भारत में राष्ट्रीयता की भावना निरंतर प्रबल होती गई।
इस प्रकार पाश्चात्य शिक्षा का भारत में नींव डालने का अंग्रेजों का उद्देश्य भले ही राष्ट्रीय भावनाओं को रोकना रहा होगा, परोक्ष रूप से वह भारत में राष्ट्रीय आंदोलन के लिए वरदान सिद्ध हुई। इस प्रकार यह भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के उद्भव का कारण रहा।
भारतीय समाचार पत्र तथा साहित्य का प्रभाव
भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के उद्भव के कारणों में भारतीय साहित्य तथा समाचार पत्रों का पर्याप्त योगदान रहा। इनके माध्यम से राष्ट्रवादियों को निरंतर प्रेरणा और प्रोत्साहन मिला।
उस समय के प्रमुख समाचार पत्रों में संवाद कौमुदी, ट्रिब्यून, इंडियन मिरर, हिंदू पेट्रियट, न्यू इंडियन केसरी एवं आर्य दर्शन आदि उल्लेखनीय हैं।1877 तक देश में प्रकाशित होने वाले समाचार पत्रों की संख्या 644 थी। इनमें देशी भाषाओं में छपने वाले समाचार पत्रों की संख्या 169 थी।
इन समाचार पत्रों में ब्रिटिश सरकार की अन्यायपूर्ण नीतियों का पर्दाफाश किया जाता था जिससे जनसाधारण में ब्रिटिश शासन के प्रति असंतोष की भावना उत्पन्न हुई।
इन समाचार पत्रों के बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिए ब्रिटिश सरकार ने सन 1878 में वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट पारित किया। इस प्रकार भारतीय समाचार पत्रों की स्वतंत्रता को पूर्ण रूप से नष्ट कर दिया गया।
दूसरे, भारतीय साहित्यकारों ने भी अपनी रचनाओं द्वारा राष्ट्रीय आंदोलन को आगे बढ़ाने का प्रयास किया। भारतेंदु हरिश्चंद्र जो कि एक साहित्यकार, सुधारक और स्वदेशी आंदोलन के अग्रदूत थे, 1876 में ‘भारत दुर्दशा’ नामक नाटक लिखा। इस नाटक के माध्यम से उन्होंने भारत की दुर्दशा का चित्रण किया।
इसी प्रकार बद्रीनारायण चौधरी, प्रताप नारायण मिश्र, बालकृष्ण भट्ट, मुहम्मद हसन आजाद, ख्वाजा अल्ताफ हुसैन अली, बंकिम चन्द्र चिपलुनकर, नरमद और सुब्रमण्यम भारती आदि की भावना जागृत हुई।
भारत की राजनीतिक एकरूपता
ब्रिटिश सरकार द्वारा संपूर्ण भारत में शासन स्थापित करने के फलस्वरूप भारत राजनीतिक दृष्टि से एक सूत्र में बंध गया। भारत का प्रशासन एक केंद्रीय सत्ता के अंतर्गत आने के कारण यहां एक समान कानून व नियम लागू किए गए।
इससे देश में राजनीतिक एकता स्थापित हुई तथा राष्ट्रीय आंदोलन को प्रोत्साहन मिला तथा भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के उद्भव का कारण बना।
धार्मिक एवं सामाजिक सुधार आंदोलन
भारत में 19वीं शताब्दी में अनेक धार्मिक और समाज समाज सुधार आंदोलन प्रारंभ हुए। इन आंदोलनों ने धार्मिक व सामाजिक क्षेत्र में व्याप्त विकृतियों के निराकरण का प्रयास किया जिससे भारत में राष्ट्रीय एकता की भावना सुदृढ़ हुई और भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का उद्भव हुआ।
राजा राममोहन राय ने ब्रह्मा समाज, स्वामी दयानंद सरस्वती ने आर्य समाज, स्वामी विवेकानंद ने रामकृष्ण मिशन तथा श्रीमती एनीबिसेंट ने थियोसोफिकल सोसायटी की स्थापना की।
राजा राम मोहन राय को आधुनिक भारत का पिता तथा नए युग का अग्रदूत भी कहा जाता है। स्वामी दयानंद सरस्वती ने आर्य समाज के माध्यम से धार्मिक और राष्ट्रीय नवजागरण का कार्य किया।
उन्होंने देशवासियों में राष्ट्रीय चेतना का संचार किया। श्रीमती एनीबिसेंट ने हिंदू धर्म व संस्कृति की श्रेष्ठता की प्रशंसा की, इससे भारतवासी स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए आंदोलन कर को प्रेरित हुए। इन धार्मिक एवं सामाजिक आंदोलनों के परिणामस्वरूप राष्ट्रीयता की भावना जागृत हुई तथा लोग संगठित होने लगे।
ऐतिहासिक अनुसंधान
विदेशी विद्वानों द्वारा की गई खोजों से भी भारतीयों की राष्ट्रीय भावनाओं को बल मिला। सर विलियम जॉन्स, मैक्स मूलर, जैकोबी, कोल ब्रुक, रौथ, ए.बी. कीथ और बुर्नफ आदि विद्वानों ने भारत के संस्कृत भाषा में लिपिबद्ध ऐतिहासिक ग्रंथों का अध्ययन किया और उनका अंग्रेजी में अनुवाद किया।
पाश्चात्य विद्वानों ने यह भी बताया कि यह भारतीय ग्रंथ संसार की सभ्यता की अमूल्य निधि है। उनके मत से भारत की सभ्यता और संस्कृति विश्व की प्राचीन और श्रेष्ठ संस्कृति है।
इससे विश्व के समक्ष प्राचीन भारतीय गौरव स्पष्ट हुआ। भारतीयों को जब अपनी संस्कृति की श्रेष्ठता का ज्ञान हुआ तो उनका आत्मविश्वास जागृत हुआ। वे भारत की स्वतंत्रता के लिए राष्ट्रीय आंदोलन में सम्मिलित हो गए।
सन 1857 का स्वतंत्रता संग्राम
यद्यपि सन 1857 का सैनिक विद्रोह असफल रहा, किंतु ब्रिटिश सरकार ने विद्रोह को कुचलने के बाद जिस प्रकार के अमानवीय अत्याचार किए, उससे भारतीय जनता के असंतोष में अत्यधिक वृद्धि हुई। अंग्रेजों ने गांव के गांव जला दिए, निर्दोष ग्रामीणों का कत्लेआम किया।
इस प्रकार के अत्याचारों से भारतीयों में अंग्रेजों के प्रति भंयकर घृणा की भावना उत्पन्न हुई और अंग्रेजों से बदला लेने की भावना जागृत हुई। इस प्रकार 1857 का स्वतंत्रता संग्राम भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के उद्भव के कारण बन गया।
भारतीयों के प्रति भेदभाव की नीति
सन 1857 के सैनिक विद्रोह के बाद ब्रिटिश शासकों ने जाति विभेद की नीति अपनाई। जैसे –
- अंग्रेजों ने अपने निवास स्थान भारतीयों के निवास स्थान से अलग रखें।
- होटल, क्लब, पार्क आदि स्थानों पर अंग्रेज भारतीयों के साथ दुर्व्यवहार करते थे।
- अंग्रेज अधिकारी भारतीयों के साथ रेल गाड़ी में बैठना भी पसंद नहीं करते थे।
- न्याय के मामलों में भी जाति विभेद अपनाया गया। एक ही अपराध के लिए भारतीयों व अंग्रेजों के लिए पृथक पृथक दंड निर्धारित थे।
अंग्रेजों की जातीय भेदभाव की नीति के कारण भारतीयों पर बुरा प्रभाव पड़ा और उनके हृदय में ब्रिटिश शासन के प्रति विद्रोह भड़क उठा जिससे भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के उद्भव को बल मिला।
भारत का आर्थिक शोषण
ब्रिटिश सरकार की आर्थिक शोषण की नीति ने भारतीय उद्योगों को संपूर्ण रूप से नष्ट कर दिया था। जैसे –
(१) अंग्रेज भारत से कच्चा माल ब्रिटेन ले जाते थे और वहां से मशीनों द्वारा निर्मित माल भारत में लाकर बेचते थे। यह माल भारत में लघु एवं कुटीर उद्योग धंधों से निर्मित माल से बहुत सस्ता होता था।
(२) अंग्रेजों ने भारतीय वस्तुओं पर जो बाहर जाती थी, भारी कर लगा दिया और भारत में आने वाले माल पर आयात कार में अत्यधिक छूट देने के कारण भारतीय बाजार बाहर से आयातित वस्तुओं से भर गए तथा कुटीर उद्योगों का पतन हो गया, जिससे करोड़ों की संख्या में लोग बेरोजगार हो गए तथा यहां के निवासियों के सम्मुख न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति की भी समस्या उत्पन्न हो गई।
(३) कुटीर उद्योगों की समाप्ति पर लोगों का झुकाव कृषि की ओर हुआ किंतु अकालों के कारण उनकी स्थिति और भी दयनीय हो गई। अंग्रेज भूखे और अभावग्रस्त किसानों से भी कर प्राप्त करने में कोई संकोच नहीं करते थे।
अंग्रेजों के इस आर्थिक शोषण के विरुद्ध भारतीय जनता में असंतोष के कारण भारतीयों ने राष्ट्रीय आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लेना प्रारंभ कर दिया।
विदेशी आंदोलनों का प्रभाव
फ्रांस की क्रांतियों ने भारतीयों में भी राष्ट्रीयता की भावना जागृत की। इटली तथा यूनान की स्वाधीनता से भी भारतीयों के उत्साह में वृद्धि हुई।
जर्मनी और सर्बिया के राष्ट्रीय आंदोलन, इंग्लैंड में सुधारवादी कानूनों के पारित होने तथा अमेरिका के स्वतंत्रता संग्राम ने भी भारतीयों को राष्ट्रीय आंदोलन के लिए प्रेरित किया।
निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि विदेशों में हुए विभिन्न आंदोलनों ने भारतीय जनता में देशभक्ति व देशप्रेम की भावना को जागृत किया और वे भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को उद्भव करने में अहम भूमिका निभाई।
राजकीय सेवाओं में भारतीयों के साथ भेदभाव
ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया ने सन 1833 व 1858 में यह घोषणा की कि राजकीय सेवाओं में योग्यता के आधार पर नियुक्तियां दी जाएगी।
भारत में अंग्रेजी शिक्षा के परिणाम स्वरूप नौकरी करने वालों का एक नया वर्ग तैयार हो गया। यह वर्ग सरकारी सेवाओं में भागीदारी चाहता था, दूसरी और ब्रिटिश सरकार इनको नौकरियों से पृथक रखना चाहती थी।
भारतीयों को उच्च पदों से पृथक रखने के लिए ब्रिटिश सरकार द्वारा अनेक प्रयास किए गए। जैसे –
(१) भारत नागरिक सेवा में प्रवेश की आयु 21 वर्ष निर्धारित की गई। यह परीक्षा इंग्लैंड में अंग्रेजी माध्यम से होती थी। यदि कोई भारतीय ऐसी परीक्षा उत्तीर्ण करने में सफल हो जाता तो भी उसे किसी भी आधार पर वंचित कर दिया जाता था। सुरेंद्रनाथ बनर्जी, अरविंद घोष को ऐसे ही छोटे-छोटे आधारों पर सेवा से वंचित किया गया था।
(२) सन 1877 में भारतीय नागरिक सेवा में प्रवेश की आयु 21 से घटाकर 19 वर्ष कर दी, जिससे कोई भारतीय इस प्रतियोगिता में सम्मिलित न हो सके। उच्च सेवाओं में वंचित रखने से सुरेंद्रनाथ बनर्जी ने 1876 में ‘इंडियन एसोसिएशन’ की स्थापना की।
इसके माध्यम से उन्होंने संपूर्ण देश का भ्रमण कर राष्ट्रीय जनमत को जागृत किया।अंग्रेजों की सेवाओं में भेदभाव की नीति तथा भारतीयों के प्रति अविश्वास ने भी अंग्रेजों के विरूद्ध आंदोलन करने के लिए प्रेरित किया। इस प्रकार सरकारी सेवाओं में भेदभाव भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के उद्भव का कारण बना।
यातायात व संचार के साधनों का विकास
ब्रिटिश सरकार ने भारत में रेलों तथा सड़कों का जाल बिछा दिया। अंग्रेजों ने यह सुविधाएं यद्यपि अपने हित के लिए की थी लेकिन इनके कारण भारतीयों के मध्य भौगोलिक दूरियां कम हुई। वे परस्पर एक-दूसरे से संपर्क स्थापित करने लगे। इस प्रकार इन साधनों ने भारतीयों को संगठित कर राष्ट्रीय आंदोलन को गति प्रदान की।
लॉर्ड लिटन की अन्यायपूर्ण नीतियां
लॉर्ड लिटन के शासनकाल (1876 से 1880 ईस्वी) में अनेक अन्यायपूर्ण नीतियों जैसे –
- भारतीय नागरिक सेवा में भर्ती की आयु घटाकर 19 वर्ष कर देना।
- अकाल के समय दिल्ली में विशाल आयोजन कर धन का अपव्यय करना।
- 1876 में भारतीयों के लिए शस्त्र अधिनियम पारित कर उन्हें शस्त्र रखने के लिए लाइसेंस लेना अनिवार्य करना।
- प्रेस की स्वतंत्रता समाप्त करने के लिए 1878 में वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट पारित करना।
- भारत विरोधी आर्थिक नीति लागू करना।
- साम्राज्य विस्तार हेतु अफगानिस्तान पर आक्रमण कर धन का अत्यधिक अपव्यय करना आदि से राष्ट्रीय असंतोष प्रारंभ हुआ और भारतीय जनता ब्रिटिश शासन की विरोधी होने लगी।
इस प्रकार लार्ड लिटन की अन्यायपूर्ण नीतियां भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के उद्भव का कारण बनी।
इल्बर्ट विधेयक पर विवाद
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विभिन्न संस्थाओं के माध्यम से जागृति उत्पन्न करना
अंग्रेजों की शोषण एवं अत्याचार की नीतियों का विरोध करने के लिए भारतीयों ने संगठित होकर अनेक संस्थाओं के माध्यम से इनका प्रतिकार करने का प्रयास किया जिससे भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के उद्भव को बल मिला। इसी क्रम में –
- 1838 में बंगाल के जमींदारों ने भूमि धारकों की समिति बनाई।
- सन 1851 में कोलकाता के जमींदारों ने ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन नामक संस्था का निर्माण किया।
- 1852 में बॉम्बे एसोसिएशन, मद्रास नेटिव एसोसिएशन की स्थापना की। यह संगठन बड़े व्यापारियों व जमींदारों ने गठित किए।
- दादाभाई नौरोजी ने लंदन में ईस्ट इंडिया एसोसिएशन का गठन किया तथा भारत में ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन स्थापित की।
- 1870 में महादेव गोविंद रानाडे ने पुणे सार्वजनिक सभा बनाई।
- 1876 में सुरेंद्रनाथ बनर्जी ने इंडियन एसोसिएशन की स्थापना की।
- 28 दिसंबर 1885 को मुंबई में व्योमेश चंद्र बनर्जी की अध्यक्षता में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना की गई।
इन संस्थाओं की गतिविधियों से राष्ट्रीय एकता को बल मिला व भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के उदय का मार्ग प्रशस्त हुआ।
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अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs)
भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के समय प्रमुख समाचार पत्र कौन कौन से थे?
उत्तर : भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के समय प्रमुख समाचार पत्रों में संवाद कौमुदी, ट्रिब्यून, इंडियन मिरर, हिंदू पेट्रियट, न्यू इंडियन केसरी एवं आर्य दर्शन आदि उल्लेखनीय हैं।1877 तक देश में प्रकाशित होने वाले समाचार पत्रों की संख्या 644 थी। इनमें देशी भाषाओं में छपने वाले समाचार पत्रों की संख्या 169 थी।
समाचार पत्रों के बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिए ब्रिटिश सरकार ने क्या किया था?
उत्तर : समाचार पत्रों के बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिए ब्रिटिश सरकार ने सन 1878 में वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट पारित किया। इस प्रकार भारतीय समाचार पत्रों की स्वतंत्रता को पूर्ण रूप से नष्ट कर दिया गया।
भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के उदय में भारतीय साहित्य की क्या भूमिका रही थी?
उत्तर : भारतीय साहित्यकारों ने भी अपनी रचनाओं द्वारा राष्ट्रीय आंदोलन को आगे बढ़ाने का प्रयास किया। भारतेंदु हरिश्चंद्र जो कि एक साहित्यकार, सुधारक और स्वदेशी आंदोलन के अग्रदूत थे, 1876 में ‘भारत दुर्दशा’ नामक नाटक लिखा। इस नाटक के माध्यम से उन्होंने भारत की दुर्दशा का चित्रण किया।