श्रीमती एनीबीसेंट की भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में भूमिका
Mrs. Annibicent’s role in the Indian National Movement
भारत के धार्मिक, शैक्षणिक और सामाजिक पुनर्जागरण के लिए जो कार्य एनीबीसेंट ने किया उसके कारण उनका नाम भारत में अत्यधिक लोकप्रिय हो गया। श्रीमती एनीबीसेंट मूल रूप से आयरलैंड की थी परन्तु वह भारत को अपनी मातृभूमि के रूप में मानती थी। भारत आने से पूर्व श्रीमती एनीबीसेंट इंग्लैंड की ‘फैबियन सोसायटी’ (समाजवादी संस्था) की सदस्य थी।
उनके सहकर्मी प्रख्यात साहित्यकार जॉर्ज बर्नार्ड शॉ ने एनीबीसेंट के बारे में लिखा है कि उस समय इंग्लैंड में उनके समान ओजस्वी भाषण देने वाला कोई व्यक्ति नहीं था। उनके मुख से निकलने वाला प्रत्येक वाक्य उच्च साहित्य का वाक्य होता था।
सन 1914 में वे भारत के राजनीतिक पुनरुत्थान के लिए संघर्ष करने के उद्देश्य से कांग्रेस में शामिल हो गई। इससे भारत के राष्ट्रीय आंदोलन में नयी प्राणधारा का संचार हुआ। भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में एनीबीसेंट की भूमिका निम्न प्रकार रही –
1. होमरूल आंदोलन (Home Rule Movement)
होमरूल आंदोलन का विवेचन निम्न बिंदुओं के अंतर्गत किया जा सकता है-
१. होम रूल आंदोलन का प्रेरणा स्त्रोत – श्रीमती एनीबीसेंट ने आयरलैंड के होमरूल आंदोलन के नेता रेडमांड से प्रभावित होकर भारत में भी होमरूल (स्वशासन) आंदोलन चलाने का निश्चय किया। इस दृष्टि से उन्होंने सन 1914 में दैनिक पत्र ‘न्यू इंडिया’ और साप्ताहिक पत्र ‘कॉमनवील’ और ‘लूसिफेर’ का प्रकाशन प्रारंभ किया।
एनीबीसेंट ने 1915 के बंबई कांग्रेस अधिवेशन में होमरूल आंदोलन को स्वीकार करने का प्रयास किया, किंतु कांग्रेस के उदारवादी नेताओं ने इसे समय के प्रतिकूल बताते हुए अस्वीकार कर दिया।
२. भारत में होम रूल लीग की स्थापना – बाल गंगाधर तिलक ने अप्रैल 1916 में बेलगांव (पुणे) में होमरूल लीग की स्थापना की तथा एनीबीसेंंट ने सितंबर 1916 में मद्रास (चेन्नई) में इंडियन होमरूल लीग की स्थापना की। दोनों नेताओं ने परस्पर सहयोग से कार्य किया।
३. होमरूल आंदोलन का अर्थ तथा उद्देश्य – आंदोलन के अर्थ और उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए अपने पत्र कॉमनवील के प्रथम अंक (जनवरी 1914) में लिखा – “राजनीतिक क्षेत्र में हमारा उद्देश्य ग्राम पंचायतों से लेकर जिला और नगरपालिकाओं, बोर्ड तथा प्रांतीय विधानसभाओं और राष्ट्रीय संसद तक शासन की स्थापना करना है। इस राष्ट्रीय संसद के अधिकार स्वशासित उपनिवेशों की विधानसभाओं के समान होने चाहिए। जब ब्रिटिश साम्राज्य की संसद में राज्यों के प्रतिनिधि भाग ले तब भारत को भी इसमें प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए।”
इस प्रकार होमरूल आंदोलन का उद्देश्य अंग्रेजों को भारत से बाहर निकालना नहीं, अपितु ब्रिटिश साम्राज्य के अंतर्गत स्वशासन का अधिकार प्राप्त करना था। यह एक वैधानिक आंदोलन था।
४. आंदोलन का उत्कर्ष व दमन – सभाओं, भाषणों और राजनीति की यात्राओं और ‘न्यू इंडिया’ तथा ‘कॉमनवील’ में होमरूल संबंधी विचारोत्तेजक लेखों के प्रकाशन से सारे भारत में ब्रिटिश सत्ता विरोधी लहर उत्पन्न हो गई। श्रीमती एनीबीसेंट ने एक स्थान पर कहा, “मैं तो एक भारतीय टम-टम हूं जिसका कार्य सोते हुए भारतीयों को जगाना है ताकि वे उठे और अपनी मातृभूमि के लिए कुछ कार्य करें।”
अत्यंत ओजस्वी स्वरों में उन्होंने होमरूल (स्वशासन) की मांग के समर्थन में कहा- “भारतवर्ष ने अपने पुत्रों और पुत्रियों के रक्त को इसलिए नहीं बहाया है कि उसके बदले में उसे स्वतंत्रता मिले, अधिकार मिले। यह सौदेबाजी नहीं है। भारत एक राष्ट्र की हैसियत से साम्राज्य की जनता के बीच न्याय पाने के अधिकार का दावा करता है। भारतवर्ष इसे एक पारितोषिक के रूप में नहीं, अधिकार के रूप में मांगता है।”
सरकार ने आंदोलन को कुचलने के लिए दमनचक्र चलाया। एनीबीसेंट का अपने दोनों पत्रों न्यू इंडिया और कॉमनवील के लिए कुल मिलाकर ₹20,000 की जमानत देनी पड़ी और वह जब्त कर ली गई।
अक्टूबर 1916 में उन्होंने बोम्बे प्रेसीडेंसी (महाराष्ट्र) और मध्यभारत (मध्य प्रदेश) से निष्कासित कर दिया गया और उसके दो साथियों (जी.एस. अरुंण्डले और वी.पी. वाडिया) को नजरबंद कर दिया गया, परंतु सरकारी दमनचक्र के बावजूद होमरूल आंदोलन की चिंगारी फैलती रहीं।
अन्तत: जनता और राष्ट्रीय नेताओं के दबाव के कारण ब्रिटिश सरकार को एनीबीसेंट और उनके साथियों को 17 सितंबर 1917 को मुक्त करना पड़ा।
2. कोलकाता कांग्रेस की अध्यक्ष के रूप में भूमिका
सन 1917 में एनीबीसेंट का यश राजनीति के सर्वोच्च शिखर पर पहुंच गया था और उन्हें 1917 के कोलकाता कांग्रेस अधिवेशन का सभापति निर्वाचित किया गया। उन्होंने अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में बताया कि स्वतंत्रता प्रत्येक देश का जन्मसिद्ध अधिकार होता है। ब्रिटिश सरकार भारतीय धन और संसाधनों का भारत के विकास के बजाय साम्राज्यवादी उद्देश्यों की रक्षा के लिए प्रयोग कर ही है।
उन्होंने राष्ट्रवाद के आध्यात्मिक सिद्धांत का प्रतिपादन करते हुए कहा – “राष्ट्र क्या है ? वह ईश्वरीय अग्नि की चिंगारी है, इश्वरीय जीवन का एक अंश है, जिसे विश्व में नि:श्वसित कर दिया गया है जो अपने चतुर्दिक व्यक्तियों (पुरुषों, स्त्रियों और बालकों) के पुंज को एकत्र करके उन्हें एक समग्र के रूप में परस्पर आबद्ध कर देता है। राष्ट्र का जादू उसकी एकता की भावना है और राष्ट्र का प्रयोजन अपनी जातीय विशेषताओं के अनुरूप विशिष्ट पद्धति से विश्व की सेवा करना है। यह कर्तव्य है जो ईश्वर उसके जन्म के समय ही उस को सौंप देता है।”
3. राष्ट्र के विकास में अन्य भूमिका
आयरिश महिला एनीबीसेंट ने थियोसोफिकल सोसायटी (ब्रह्म विद्या समाज) के माध्यम से भारतीय संस्कृति और हिंदुत्व के उत्थान के लिए अपना जीवन अर्पित कर दिया। एनीबीसेंट थियोसोफिकल सोसायटी की संस्थापक मैडम ब्लैवट्स्की के संपर्क में सन 1889 में इंग्लैंड में आई। परिणामस्वरूप वे थियोसोफिकल सोसायटी के सदस्य बनने के साथ-साथ भारतीय संस्कृति की भक्त भी बन गई।
कर्नल औल्काट और मैडम ब्लैवट्स्की ने सितंबर 1875 में न्यूयॉर्क में थियोसोफिकल सोसायटी की स्थापना की थी। जब ये दोनों फरवरी 1879 में भारत आए तब उन्होंने यहां पर थियोसोफिकल सोसायटी की स्थापना की और 1882 में इसका प्रधान कार्यालय अडयार (मद्रास) में स्थापित किया। एनीबीसेंट सन 1907 से 1933 तक थियोसोफिकल सोसायटी की अध्यक्ष रही।
एनीबीसेंट भारत की थियोसोफिकल सोसायटी के आमंत्रण पर सन 1893 में भारत आई और जीवन पर्यंत भारत में रही। अपनी अद्वितीय वाक् पटुता और हिंदुत्व के आदर्शों तथा भारत के सामाजिक, राजनीतिक एवं शैक्षिक उन्नति के प्रति अपूर्व उत्साह के कारण वे बहुत लोकप्रिय बन गई।
1898 में उन्होंने बनारस में सेंट्रल हिंदू कॉलेज तथा सेंट्रल हिंदू स्कूल की स्थापना की। बाद में इन संस्थाओं को उन्होंने पंडित मदन मोहन मालवीय को हिंदू विश्वविद्यालय बनारस की स्थापना के संदर्भ में सौंप दिया।
भारतीय संस्कृति के प्रति भक्ति – एनीबीसेंट को भारतीय संस्कृति एवं धर्म में अगाध श्रद्धा थी। भारतीय धरती पर पदार्पण के साथ ही उन्होंने स्वीकार किया कि वह पूर्व जन्म में हिंदू थी। वह पूर्णतया भारतीय वेशभूषा और भारतीय शाकाहारी भोजन का प्रयोग करती थी।
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उन्होंने सन 1916 में कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन में उदारवादी तथा तिलक आदि उग्र राष्ट्रवादी नेताओं में समझौता करवाया और सन 1916 के कांग्रेस-मुस्लिम लीग समझौते में भी उन्होंने रचनात्मक भूमिका निभाई।
एनीबीसेंट ने धार्मिक असहिष्णुता, सांप्रदायिक मतवाद के उन्मूलन पर बल देते हुए सार्वभौम सामंजस्य के आदर्शों का उपदेश दिया। सन 1919 से राष्ट्रीय आंदोलन में गांधी युग के प्रारंभ होने के साथ ही उनकी भारतीय राजनीति में सक्रिय भूमिका लगभग समाप्त हो गई। उनका देहांत सन 1933 में मद्रास में हुआ।