इस आर्टिकल में राज्य की प्रकृति का आदर्शवादी सिद्धांत, मध्यममार्गी आदर्शवाद (कांट और ग्रीन), जर्मन दार्शनिकों का आदर्शवादी सिद्धांत, राज्य की प्रकृति के आदर्शवादी सिद्धांत की आलोचना तथा महत्व पर विस्तार से चर्चा की गई है।
राज्य की प्रकृति का आदर्शवादी सिद्धांत कई नामों से जाना जाता है। बोसांके जैसे लेखक इसे ‘दार्शनिक सिद्धांत’ और हॉबहाउस इसे आध्यात्मिक सिद्धांत के नाम से पुकारते हैं।
राज्य की प्रकृति के आदर्शवादी सिद्धांत का जन्म प्लेटो तथा अरस्तु के विचारों से हुआ और इसके अनुसार राज्य एक प्राकृतिक तथा स्वयं पूर्ण संस्था है और व्यक्ति राज्य के अंतर्गत रहकर ही अपने व्यक्तित्व का सर्वोच्च विकास कर सकता है। इस सिद्धांत के अनुसार राज्य स्वयं में ही एक लक्ष्य है।
आदर्शवादी सिद्धांत का प्रतिपादन प्रमुख रूप से कांट, हीगल, ग्रीन, ब्रैडले, बोसांके आदि विचारकों द्वारा किया गया है। इस सिद्धांत का चरमोत्कर्ष हमें हीगल की विचारधारा में मिलता है।
राज्य की प्रकृति के आदर्शवादी सिद्धांत का अध्ययन दो भागों में किया जा सकता है –
- (१) ग्रीन आदि विचारकों द्वारा प्रतिपादित मध्यममार्गी आदर्शवाद।
- (२) हीगल आदि दार्शनिकों द्वारा प्रतिपादित उग्र आदर्शवाद।
मध्यममार्गी आदर्शवाद (कांट और ग्रीन)
इसका प्रतिपादन कांट और प्रमुख रूप से थॉमस हिल ग्रीन के द्वारा किया गया है। ग्रीन एक ब्रिटिश दार्शनिक था और वह ब्रिटेन के उदारवाद से प्रभावित था। इसके साथ ही ग्रीन हीगल द्वारा प्रतिपादित आदर्शवाद से भी प्रभावित था।
इसलिए उसकी विचारधारा में आदर्शवाद और ब्रिटेन के उदारवाद के बीच समन्वय मिलता है और इसी कारण इसे मध्यममार्गी आदर्शवाद के नाम से जाना जाता है। इस मध्यममार्गी आदर्शवाद के प्रमुख सिद्धांत निम्नलिखित है :
(1) राज्य एक नैसर्गिक संस्था है
मध्यममार्गी आदर्शवाद अरस्तु के इस विचार को स्वीकार करता है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। मानव अपनी सामाजिक प्रवृत्ति को संतुष्ट करने के लिए जिस समाज की रचना करता है ; राज्य उसका सर्वोत्कृष्ट रूप है। राज्य मनुष्य के लिए एक अनिवार्य संस्था भी है ; क्योंकि वह उसी के अंतर्गत अपने व्यक्तित्व का सर्वोच्च विकास कर सकता है।
व्यक्ति के लिए राज्य की स्वाभाविकता और अनिवार्यता बतलाते हुए ग्रीन कहते हैं कि, “मानवीय चेतना स्वतंत्रता की मांग करती है, स्वतंत्रता में अधिकार निहित है, और अधिकार राज्य की मांग करते हैं।”
(2) राज्य एक नैतिक संस्था है
मनुष्य सदाचार संबंधी आदेशों का पालन करके ही अपने व्यक्तित्व का विकास कर सकता है और राज्य ऐसी बाह्या परिस्थितियां प्रदान करता है जिनके अंतर्गत रहकर ही सदाचार संबंधी नियमों का पालन किया जा सकता है।
इस प्रकार राज्य एक नैतिक संस्था है जो व्यक्ति को नैतिक जीवन व्यतीत करने हेतु आवश्यक परिस्थितियां प्रदान करता है।
(3) व्यक्ति तथा राज्य परस्पर अन्योन्याश्रित है
आदर्शवादी सिद्धांत के अनुसार राज्य एक जीवित सावयव है और राज्य तथा व्यक्ति में वही संबंध है जो शरीर तथा अंग में होता है।
व्यक्ति के व्यक्तित्व का पूर्ण विकास राज्य में ही संभव है और राज्य तथा व्यक्ति के हित में किसी प्रकार का विरोधाभास नहीं है।
जिस प्रकार शरीर के अंगों का शरीर से पृथक कोई स्वतंत्र अस्तित्व एवं इच्छा नहीं होती उसी प्रकार राज्य का व्यक्तियों से पृथक न तो कोई व्यक्तित्व है और ना ही कोई इच्छा शक्ति।
इसलिए साधारणतया व्यक्ति को राज्य के विरुद्ध कोई अधिकार प्राप्त नहीं हो सकते, लेकिन ग्रीन के द्वारा विशेष परिस्थितियों में व्यक्ति के राज्य के विरुद्ध विद्रोह के अधिकार को स्वीकार किया गया है।
(4) राज्य अपने नागरिकों की सामाजिक इच्छा का प्रतिनिधि
राज्य का आधार व्यक्तियों की सामाजिक और जनकल्याणकारी इच्छा है। ग्रीन के अनुसार , “राज्य शक्ति नहीं वरन मानवीय इच्छा पर आधारित होना है।” व्यक्ति राज्य की आज्ञा का पालन दंड अथवा भय के कारण नहीं वरन् अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति के कारण करते हैं।
राज्य व्यक्तियों की सामाजिक इच्छा का प्रतिनिधि होने के कारण बहुत अधिक महत्वपूर्ण है और अपने आप में एक साध्य है।
जर्मन दार्शनिकों का आदर्शवादी सिद्धांत
जर्मन विद्वान कांट ने तो आदर्शवादी सिद्धांत का प्रतिपादन उदारवादी ढंग पर ही किया था परंतु हीगल ने इस सिद्धांत को अत्यंत उग्र रूप प्रदान किया है।
हीगल के उग्र आदर्शवाद का परिचय उसके इस कथन से प्राप्त किया जा सकता है जिसमें वह कहता है कि, “राज्य पृथ्वी पर परमात्मा का अवतरण है, वह सर्वशक्तिमान है, वह कभी भी कोई त्रुटि नहीं करता और अपने लाभ के लिए बड़े से बड़े बलिदान प्राप्त करने का अधिकारी है।”
अंग्रेज आदर्शवादी बोसांके भी हीगल का अनुयायी है। उग्र आदर्शवाद के प्रमुख सिद्धांतों का प्रतिपादन निम्न प्रकार से किया जा सकता है :
(1) राज्य और व्यक्ति के मध्य संबंध प्राकृतिक होते हैं
राज्य और व्यक्ति का संबंध व्यक्ति के व्यक्तित्व का अभिन्न अंग होता है और इसलिए राज्य और व्यक्ति का संबंध प्राकृतिक है।
व्यक्ति का वर्तमान रूप राज्य के कारण ही है और राज्य के बिना उसका यह स्वरूप स्थिर नहीं रह सकता।
व्यक्ति एकांकी रहकर किसी भी प्रकार का आचरण नहीं कर सकता है और उसने अपना सर्वोच्च रूप राज्य के अंतर्गत ही प्राप्त किया है। व्यक्ति और राज्य को हीगल ने एक रूप माना है और दोनों के हित एक जैसे होते हैं।
(2) राज्य माननीय स्वतंत्रता की प्राप्ति का एकमात्र साधन
राज्य मानवीय स्वतंत्रता का एकमात्र साधन है और इसलिए स्वतंत्रता और कानून एक दूसरे के विरोधी नहीं वरन् एक ही वस्तु के दो भाग हैं।
राज्य के कानून सामान्य इच्छा के प्रतीक होते हैं और इस कारण न तो वे गलत हो सकते हैं और ना ही न्याय के विरुद्ध। कानूनों के पालन के माध्यम से व्यक्ति अपनी ही श्रेष्ठ इच्छाओं का पालन करते हैं।
अतः कानूनों के पालन में ही व्यक्ति की स्वतंत्रता निहित है। हीगल के शब्दों में, “राज्य के बिना वास्तविक स्वतंत्रता की प्राप्ति की ही नहीं जा सकती है।”
(3) राज्य ही नैतिकता का स्त्रोत है
हीगल के अनुसार राज्य अपने कार्यों में नैतिक नियमों से मर्यादित नहीं होता वरन् वह तो स्वयं ही सामाजिक नैतिकता का स्त्रोत है।
हीगल के अनुसार उचित-अनुचित का विचार राज्य ही कर सकता है। उचित-अनुचित, न्याय-अन्याय का बंधन केवल व्यक्तियों के लिए ही है, राज्य के लिए नहीं।
हीगल के अनुयायी बोसांके के शब्दों में, “राज्य विश्वव्यापी नैतिक संगठन का अंग न होकर समस्त नैतिक संसार का अभिभावक है।” राज्य मनुष्य को स्वार्थ के स्थान पर त्याग की भावना का पाठ पढ़ाता है और इस प्रकार नैतिक बनाता है।
(4) व्यक्ति को शासन के विरुद्ध विद्रोह का अधिकार नहीं
उग्र आदर्शवाद के अनुसार राज्य सामान्य इच्छा का प्रतिनिधित्व करता है और सामान्य इच्छा मनुष्य की सद्भावनाओं का प्रतिनिधित्व करती है, अतः राज्य के आज्ञापालन में मनुष्य अपनी ही सद्इच्छाओं का पालन करता है। इसलिए हीगल के अनुसार, राज्य की नीति का विरोध अथवा आलोचना अनुचित ही नहीं वरन् पापपूर्ण कार्य है।
अतः राज्य और शासक की आज्ञाओं का अक्षरशः पालन किया जाना चाहिए और किसी भी परिस्थिति में राज्य का विरोध नहीं किया जाना चाहिए।
(5) युद्ध वांछनीय है
हीगल के अनुसार अंतर्राष्ट्रीय नियमों के बंधनों का पालन करना राज्य के लिए आवश्यक नहीं है। अपने कल्याण के लिए राज्य स्वयं ही सोच विचार कर सकता है। उग्र आदर्शवाद के अनुसार युद्ध वांछनीय है। यह एक पुण्य कार्य है।
हीगल का कथन है कि, “युद्ध की स्थिति से ही राज्य के निजी व्यक्तित्व का ज्ञान होता है।” इस प्रकार उग्र आदर्शवादी सिद्धांत आंतरिक और बाह्य दोनों ही क्षेत्रों में राज्य की निरंकुशता की चरम सीमा है।
राज्य की प्रकृति के आदर्शवादी सिद्धांत की आलोचना
हॉबहाउस, लास्की, जोड़ आदि विचारकों द्वारा राज्य के आदर्शवादी सिद्धांत विशेषतया उग्र आदर्शवाद की बहुत अधिक आलोचना की गई है। इस सिद्धांत की आलोचना के प्रमुख आधार निम्न है :
(1) यह राज्य को निरंकुश बना देता है
आदर्शवादी आंतरिक और बाहरी दोनों ही क्षेत्रों में राज्य की निरंकुशता का प्रतिपादन करते हैं जो उचित नहीं है।
आदर्शवादी राज्य को धर्म अथवा नैतिकता से ऊपर की वस्तु मानते हैं। उनके अनुसार राज्य दोष रहित एवं पवित्र भावना से युक्त है, जिसे धर्म का कोई बंधन अपने घेरे में नहीं ले सकता।
इस सिद्धांत के अनुसार अंतर्राष्ट्रीय कानून की मान्यता भी राज्य के लिए एच्छिक है और उसके द्वारा अपनी इच्छा अनुसार युद्ध का मार्ग अपनाया जा सकता है। इस प्रकार यह धारणा निरंकुशता, संघर्ष एवं हिंसा को प्रोत्साहित करती है।
हिटलर और मुसोलिनी ने हीगल के अनुयायी बनकर सैनिकवाद तथा साम्राज्यवाद को अपनाया, जिसके परिणाम केवल जर्मनी और इटली को ही नहीं वरन संपूर्ण विश्व को भुगतने पड़े।
सी ई एम जोड़ का विचार है कि, “यह सिद्धांत न तो सिद्धांत की दृष्टि से सही है और न तथ्यों के अनुकूल है। इनमें वर्तमान राज्यों के विदेश नीति के क्षेत्र में अविवेकपूर्ण कार्यों का समर्थन करने की प्रवृत्ति भी दिखाई देती है।”
(2) व्यक्तिगत स्वतंत्रता का विनाशक
आदर्शवादी सिद्धांत व्यक्तियों के व्यक्तित्व और उनकी स्वतंत्रता का बहुत बड़ा शत्रु है। इस सिद्धांत के अनुसार व्यक्ति को प्रत्येक परिस्थिति में राज्य की आज्ञा का पालन करना चाहिए और व्यक्ति राज्य द्वारा किए गए कार्यों पर उचित-अनुचित, न्याय-अन्याय की दृष्टि से विचार नहीं कर सकता।
इस तरह यह सिद्धांत व्यक्ति के व्यक्तित्व और उसकी स्वतंत्रता का अंत कर देता है।
(3) राज्य साधन है, साध्य नहीं
इस सिद्धांत के अंतर्गत राज्य को एक साध्य की स्थिति प्रदान की गई है, लेकिन वास्तव में राज्य एक साधन मात्र है जिसका लक्ष्य है मानव कल्याण।
(4) यथार्थ तथा आदर्श इच्छा का अंतर अव्यावहारिक
आदर्शवाद का आधारभूत विचार यह है कि राज्य सामान्य इच्छा का प्रतिनिधित्व करता है जो व्यक्तियों की आदर्श इच्छाओं का सार होती है। किंतु यथार्थ और आदर्श इच्छा का अंतर एवं सामान्य इच्छा की धारणा कल्पना जगत की वस्तु है। व्यवहार में उनका ज्ञान प्राप्त हो सकने के कारण उनका कोई मूल्य नहीं है।
(5) राज्य, समाज और सरकार भिन्न भिन्न संस्थाएं हैं
आदर्शवादी विचार के अंतर्गत राज्य और समाज एवं राज्य और सरकार को एक दूसरे का पर्यायवाची समझ लिया गया है। किंतु वास्तव में राज्य, सरकार और समाज एक ही नहीं है और राज्य के स्वरूप को यथार्थ रूप में समझने के लिए इनमें अंतर करना आवश्यक है।
(6) प्रगति विरोधी और भयानक
कुछ विचारकों का कथन है कि आदर्शवादी धारणा प्रगति विरोधी, दोषपूर्ण और अत्यधिक भयानक है, क्योंकि इसके अंतर्गत आदर्श को अपनाने के स्थान पर दोषपूर्ण यथार्थ स्थिति को ही आदर्श का रूप दे दिया गया है।
प्रमुख आदर्शवादियों में से अरस्तू ने दास्ता, हीगल ने युद्ध और ग्रीन ने पूंजीवाद के प्रति विश्वास व्यक्त किया है। इसी आधार पर हॉब्सन ने कहा है कि, “आदर्शवाद रुढ़िग्रस्तता से भरा हुआ है।”
राज्य की प्रकृति के आदर्शवादी सिद्धांत का महत्व
राज्य की प्रकृति के संबंध में आदर्शवादी धारणा को स्वीकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि इस धारणा के द्वारा राज्य को अत्यधिक एवं अनुचित महत्व प्रदान कर दिया गया है।
लेकिन राज्य की प्रकृति का आदर्शवादी सिद्धांत इस सत्य का प्रतिपादन करता है कि राज्य स्वाभाविक प्राकृतिक संस्था है और व्यक्ति एवं राज्य के बीच उसी प्रकार के संबंध पाए जाते हैं जिस प्रकार के संबंध शरीर और शरीर के अंगों के बीच हैं।
राज्य की प्रकृति के आदर्शवादी सिद्धांत की अधिकांश आलोचनाएं उस व्याख्या के कारण की गई है जो हीगल ने ठीक प्रकार से न समझकर प्रस्तुत की हैं। आदर्शवादी सिद्धांत की उदार व्याख्या उसके विरोधी सिद्धांतों की अपेक्षा सत्यता के अधिक निकट और विषयानुकूल है।
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अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs)
राज्य की प्रकृति के आदर्शवादी सिद्धांत के अनुसार राज्य है?
उत्तर : राज्य एक प्राकृतिक तथा स्वयं पूर्ण संस्था है और व्यक्ति राज्य के अंतर्गत रहकर ही अपने व्यक्तित्व का सर्वोच्च विकास कर सकता है। इस सिद्धांत के अनुसार राज्य स्वयं में ही एक लक्ष्य है।
राज्य के आदर्शवादी सिद्धांत का प्रतिपादन किसके विचारों से हुआ है?
उत्तर : आदर्शवादी सिद्धांत का प्रतिपादन प्रमुख रूप से कांट, हीगल, ग्रीन, ब्रैडले, बोसांके आदि विचारकों द्वारा किया गया है। इस सिद्धांत का चरमोत्कर्ष हमें हीगल की विचारधारा में मिलता है।
“मानवीय चेतना स्वतंत्रता की मांग करती है, स्वतंत्रता में अधिकार निहित है, और अधिकार राज्य की मांग करते हैं।” यह कथन किसका है?
उत्तर : “मानवीय चेतना स्वतंत्रता की मांग करती है, स्वतंत्रता में अधिकार निहित है, और अधिकार राज्य की मांग करते हैं।” यह कथन टी एच ग्रीन का है?