इस आर्टिकल में संप्रभुता की अवधारणा, संप्रभुता का अर्थ, संप्रभुता की परिभाषा के बारे में विस्तार से चर्चा की गई है।
संप्रभुता क्या है (What is Sovereignty)
प्रभुसता या संप्रभुता राज्य का आवश्यक तत्व है। इसके अभाव में हम राज्य की कल्पना ही नहीं कर सकते। राज्य अपने इसी लक्षण के कारण आंतरिक दृष्टि से सर्वोच्च और बाह्य दृष्टि से स्वतंत्र होता है। राज्य के 4 अंगों में से सरकार और संप्रभुता को राज्य का आध्यात्मिक आधार माना जाता है। संप्रभुता को राज्य की आत्मा (Soul of State) कहा जाता है।
संप्रभुता का अर्थ क्या है
संप्रभुता शब्द की उत्पत्ति लेटिन भाषा के ‘Superanus‘ से हुई है जिसका अर्थ है ‘सर्वोच्च सत्ता’। अतः संप्रभुता किसी राज्य की सर्वोच्च सत्ता को कहा जाता है। संप्रभुता शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग फ्रांसीसी विचारक ज्यां बोदा ने 1576 में अपनी कृति ‘Six Book Concerning Republic‘ में किया। इसलिए इसका उद्भव 16 वीं शताब्दी में माना जाता है।
संप्रभुता का मूल यूनान विचारक अरस्तु के विचारों में दिखाई देता है। इसी प्रकार मध्य युग में रोमन न्याय शास्त्री संप्रभुता के लिए राज्य की सर्वोच्च शक्ति (Summa Potestas) अथवा राज्य की परमसत्ता (Plenitudo Potestatis) शब्दावली का प्रयोग किया।
बोंदा ने अपने प्रसिद्ध कृति ‘Republic‘ में संप्रभुता के सिद्धांत का आधुनिक अर्थ में प्रतिपादन किया। वैसे 15 वीं शताब्दी में फ्रांसीसी न्यायशास्त्री संप्रभु तथा संप्रभुता शब्दों का प्रयोग कर चुके हैं।
राज्य की संप्रभुता के पहले प्रतिपादक लूथर थे। इसके पश्चात बोदा ने आंतरिक संप्रभुता का स्पष्ट उल्लेख किया है। ग्रोश्यस ने 17 वीं शताब्दी में बाह्य संप्रभुता की धारणा को अभिव्यक्त किया। आधुनिक काल में मैक्यावली ने अपनी प्रसिद्ध रचना ‘Prince‘ में संप्रभुता की अवधारणा का उल्लेख किया है।
ऐसा माना जाता है कि संप्रभुता के सिद्धांत की उत्पत्ति 16 वीं शताब्दी में हुई। उन दिनों मध्ययुगीन मान्यताएं और संस्थाएं लुप्त होती जा रही थी और राष्ट्रीय एवं राजतंत्रीय राज्य का उदय हो रहा था। प्रभुसत्ता का सिद्धांत इसी राज्य का औचित्य स्थापित करने के उद्देश्य से प्रस्तुत किया गया।
एक सशक्त, राष्ट्रीय राजतंत्र की स्थापना के लिए दो तरह के विचारों का खंडन आवश्यक था ; एक तो यह कि पॉप की सत्ता राष्ट्रीय राज्य के अधिपति के ऊपर होती है; दूसरी यह कि राज्य के भीतर सामंत सरदारों, स्वशासी नगरों, स्वायत्त औद्योगिक श्रेणियों की अपनी अपनी शक्तियां नृपति की शक्तियों को कुछ हद तक सीमित कर देती हैं। इन दोनों मान्यताओं का खंडन करने के लिए प्रभुसत्ता का विचार सर्वथा उपयुक्त था।
राज्य के आंतरिक और बाह्य क्षेत्र में संप्रभुता का अर्थ
आंतरिक क्षेत्र में संप्रभुता के विचार का अर्थ यह है कि राज्य अपने नियंत्रण के अधीन क्षेत्र में सर्वोच्च सत्ताधारी है। सभी लोग तथा उनके संघ, राज्य के नियंत्रण के अधीन है।
बाह्य क्षेत्र में संप्रभुता के विचार का अर्थ है कि राज्य का किसी विदेशी आधिपत्य या नियंत्रण से मुक्त होना है। अधिनस्थ जातियों को राज्य नहीं कहा जा सकता है क्योंकि उन्हें किसी अन्य राज्य की इच्छा के अनुसार रहना एवं कार्य करना पड़ता है। परंतु यदि कोई राज्य किसी अंतर्रष्ट्रीय संधियां, समझौते का पालन करते हुए अपने कार्य की स्वतंत्रता पर सीमाओं को स्वीकार करें तो इसे उसकी संप्रभुता की क्षति या विनाश नहीं मानना चाहिए। उन्हें स्वारोपित प्रतिबंध समझना चाहिए।
चूंकि प्रभुसत्ता की संकल्पना प्रभुसत्ताधारी की इच्छा को सर्वोच्च शक्ति के रूप में मान्यता देती है, इसलिए प्रभुसत्ता एक असीम और स्थाई शक्ति है। इसका अर्थ यह नहीं कि प्रभुसत्ता का प्रयोग करते समय विवेक से काम नहीं लिया जाता, या प्रचलित रीति-रिवाजों, सामाजिक मूल्यों, न्याय या सामान्य हित के विचार को ध्यान में नहीं रखा जाता।
इसका अर्थ केवल यह है कि इन सब बातों का अर्थ लगाते समय प्रभु सत्ताधारी को किसी दूसरी सत्ता या संगठन से सलाह नहीं लेनी पड़ती। प्रभुसत्ताधारी जब न्याय या नैतिकता का पालन करता है तो वह स्वयं यह निर्णय करता है कि न्याय क्या है, वह उचित अनुचित का निर्णय अपने विवेक से करता है, किसी दूसरे के निर्देश से नहीं।
प्रभुसत्ता को ‘निरंकुश शक्ति’ (Arbitrary) मानना युक्ति संगत नहीं होगा। गार्नर की Introduction To Political Science (राजनीति विज्ञान की रूपरेखा) के अनुसार प्रभुसत्ता राज्य की ऐसी विशेषता है जिसके कारण वह कानून की दृष्टि से केवल अपनी इच्छा से बंधा होता है। अन्य किसी की इच्छा से नहीं, कोई अन्य शक्ति उसकी अपनी शक्ति को सीमित नहीं कर सकती।
प्रभुसत्ताधारी चाहे कोई मुकुटधारी नरेश (Crowned Prince) हो, मुख्य कार्यकारी हो या कोई सभा, वह केवल अपनी इच्छा से कानून की घोषणा कर सकता है, आदेश जारी कर सकता है और राजनीतिक निर्णय कर सकता है। ये कानून, आदेश और निर्णय उसके अधिकार क्षेत्र में आने वाले सब लोगों या समूह और संगठनों के लिए बाध्यकर होते हैं।
वास्तव में राज्य की सर्वोच्च कानूनी सत्ता के इस विचार को प्रभुसत्ता की संकल्पना के आधार पर ही स्थापित किया जा सकता है।
संप्रभुता की परिभाषा
फ्रांस में राष्ट्रीय राज्य का उदय होने पर ज्यां बोदा ने अपनी प्रसिद्ध कृति द रिपब्लिका (The Republica) (राज्य) 1576 के अंतर्गत राज्य को परिवारों और उसकी मिली-जुली संपदा का ऐसा संगठन बताया जहां एक सर्वोच्च शक्ति और विवेक का शासन चलता है। उसने प्रभुसत्ता की यह परिभाषा दी “यह नागरिकों और प्रजाजनों के ऊपर एक ऐसी सर्वोच्च शक्ति का संकेत देती है जो कानून के बंधनों से नहीं बँधी होती।”
ऑस्टिन के अनुसार, “यदि किसी समाज का अधिकांश भाग किसी निश्चित प्रधान व्यक्ति की आज्ञाओं का आदतन पालन करता हो और वह निश्चित व्यक्ति किसी अन्य प्रधान की आज्ञा पालन करने का आदी ना हो तो उस निश्चित प्रधान व्यक्ति सहित वह समाज राज्य है।”
जेलिनेक के अनुसार, “प्रभुसत्ता राज्य का वह गुण है जिसके कारण वह अपनी इच्छा के अलावा किसी दूसरी इच्छा या बाहरी शक्ति के आदेश से बंधे नहीं है।”
- विलोबी के अनुसार, “संप्रभुता राज्य की सर्वोच्च इच्छा है।”
- बोंदा के अनुसार, “संप्रभुता नागरिकों तथा प्रजाजनों पर विधि द्वारा अमर्यादित सर्वोच्च शक्ति है।”
- दुग्वी के अनुसार, “संप्रभुता राज्य की आदेशकारी शक्ति है।”
- रूसो के अनुसार, “सार्वजनिक संकल्प ही संप्रभु है।”
- (रूसो को संप्रभुता के उच्च धर्माध्यक्ष के रूप में जाना जाता है।)
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अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs)
संप्रभुता की अवधारणा का जन्मदाता कौन है?
उत्तर : संप्रभुता की अवधारणा का जन्मदाता ज्या बोंदा को माना जाता है। संप्रभुता शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग फ्रांसीसी विचारक ज्यां बोदा ने 1576 में अपनी कृति ‘Six Book Concerning Republic’ में किया। इसलिए इसका उद्भव 16 वीं शताब्दी में माना जाता है।
संप्रभुता का अर्थ क्या है?
उत्तर : संप्रभुता शब्द की उत्पत्ति लेटिन भाषा के ‘Superanus’ से हुई है जिसका अर्थ है ‘सर्वोच्च सत्ता’। अतः संप्रभुता किसी राज्य की सर्वोच्च सत्ता को कहा जाता है।
संप्रभुता के उच्च धर्माध्यक्ष के रूप में जाना जाता है?
उत्तर : रूसो संप्रभुता के उच्च धर्माध्यक्ष के रूप में जाना जाता है।