इस आर्टिकल में शासन प्रणाली के प्रकार संसदीय शासन प्रणाली क्या है, संसदात्मक शासन व्यवस्था वाले देश, संसदीय शासन प्रणाली की विशेषताएं, संसदीय शासन प्रणाली के गुण-दोष, संसदात्मक शासन की सफलता के लिए आवश्यक शर्तें या परिस्थितियां आदि टॉपिक पर चर्चा की गई है।
संसदीय शासन प्रणाली क्या है
What is Parliamentary Governance : व्यवस्थापिका और कार्यपालिका के संबंध के आधार पर शासन व्यवस्थाओं का संसदात्मक और अध्यक्षात्मक शासन रूप में वर्गीकरण किया जाता है।
संसदीय शासन प्रणाली (Parliamentary Governance) शासन की वह व्यवस्था है जिसके अंतर्गत व्यवस्थापिका और कार्यपालिका परस्पर संबंधित होती है और कार्यपालिका व्यवस्थापिका के प्रति उत्तरदायी होती है।
गार्नर के अनुसार, “संसदात्मक शासन वह शासन प्रणाली है जिसमें वास्तविक कार्यपालिका अर्थात मंत्रिमंडल अपनी राजनीतिक नीतियों तथा कार्यों के लिए वैधानिक और तात्कालिक रुप में व्यवस्थापिका के प्रति और अंतिम रूप से निर्वाचक मंडल के प्रति उत्तरदायी होती है।”
संसदीय शासन प्रणाली को मंत्रिमंडलात्मक शासन या उत्तरदायी शासन के नाम से भी पुकारा जाता है। इसके अंतर्गत कार्यपालिका शक्ति किसी एक व्यक्ति में निहित न होकर मंत्रिमंडल नामक एक समिति में निहित होती है, इसलिए इसे मंत्रिमंडलात्मक शासन या केबिनेट शासन (Cabinet Governance) कहते हैं और कार्यपालिका व्यवस्थापिका के प्रति उत्तरदायी होने के कारण उत्तरदायी शासन कहा जाता है।
आइवर जेनिंग्स ने इसे ‘मंत्रिमंडलीय सरकार’ तथा आर एच एस क्रॉसमैन ने ‘प्रधानमंत्रीय सरकार’ की संज्ञा दी है।
संसदात्मक शासन व्यवस्था वाले देश
Countries with Parliamentary Governance : इंग्लैंड की सरकार को संसदीय शासन प्रणाली का सर्वोच्च उदाहरण माना जाता है। इसके अलावा भारत, कनाडा, आस्ट्रेलिया, जापान आदि देशों में संसदीय शासन व्यवस्था है।
फ्रांस और श्रीलंका की शासन व्यवस्था में संसदीय और अध्यक्षीय दोनों शासन प्रणालियों का मिश्रण पाया जाता है।
संसदीय शासन प्रणाली की विशेषताएं
(1) नाममात्र की व्यवस्था वास्तविक कार्यपालिका का भेद
इस शासन व्यवस्था में नाममात्र की व वास्तविक कार्यपालिका में भेद होता है। राज्य का प्रधान नाम मात्र की कार्यपालिका होती है जबकि वास्तविक कार्यपालिका मंत्रिपरिषद होती है। नाममात्र की यह कार्यपालिका इंग्लैंड के सम्राट की तरह वंशानुगत या भारत के राष्ट्रपति की तरह निर्वाचित हो सकती है।
इस शासन प्रणाली में सिद्धांत और व्यवहार में अंतर पाया जाता है। प्रत्येक स्थिति में सैद्धांतिक तौर पर यह पूर्ण शक्ति संपन्न होती है, लेकिन व्यवहार में उसकी इन शक्तियों का प्रयोग वास्तविक कार्यपालिका अर्थात मंत्रिपरिषद द्वारा ही किया जाता है।
(2) व्यवस्थापिका और कार्यपालिका में घनिष्ठ संबंध
इसके अंतर्गत व्यवस्थापिका तथा कार्यपालिका एक दूसरे से पृथक न होकर घनिष्ठ रूप से संबंधित होती है। कार्यपालिका की नियुक्ति व्यवस्थापिका में से की जाती है और कार्यपालिका अपने कार्यों के लिए व्यवस्थापिका के प्रति उत्तरदायी होती है। दूसरी और कार्यपालिका केवल प्रशासन संबंधी कार्य ही नहीं करती, वरन कानून निर्माण से संबंधित सभी कार्यों में भाग भी लेती है।
(3) कार्यपालिका के कार्यकाल की अनिश्चितता
इस शासन में कार्यपालिका अर्थात मंत्रीपरिषद का कार्यकाल निश्चित नहीं होता। कार्यपालिका उसी समय तक अपने पद पर बनी रह सकती है जब तक कि उसे व्यवस्थापिका का विश्वास प्राप्त होता है।
(4) मंत्रिमंडल का सामूहिक उत्तरदायित्व
संसदात्मक शासन का एक अन्य सिद्धांत संसद के प्रति मंत्रिमंडल का सामूहिक उत्तरदायित्व है। प्रशासनिक नीति निश्चित करने का कार्य मंत्रिमंडल द्वारा सामूहिक रूप से किया जाता है, मंत्रीमंडल एक इकाई के रूप में कार्य करता है और सभी मंत्री एक दूसरे के निर्णय और कार्यों के लिए उत्तरदायी होते हैं।
यदि संसद का निम्न सदन किसी एक मंत्री के विरुद्ध अविश्वास का प्रस्ताव पारित कर दे अथवा उस विभाग से संबंधित विधेयक को रद्द कर दे, तो समस्त मंत्रिमंडल को त्यागपत्र देना होता है।
संसदीय शासन का नियम है ‘सब एक के लिए, एक शब्द के लिए’ और जैसी कहावत है ‘वे इकट्ठे ही तैरते या इकट्ठे ही डूबते हैं’।
(5) व्यक्तिगत उत्तरदायित्व (Personal Accountability)
प्रत्येक मंत्री अपने विभाग का प्रबंधक होता है। इस प्रकार उसे व्यक्तिगत रूप से उस विभाग को सुयोग्य ढंग से चलाने के लिए विधानमंडल के प्रति उत्तरदायी रहना होता है। भारत तथा जापान में इस सिद्धांत का व्यवहार में प्रयोग हुआ है।
(6) प्रधानमंत्री का नेतृत्व (Prime Minister’s Leadership)
प्रधानमंत्री का नेतृत्व इस पद्धति की अन्य विशेषता है और सामूहिक उत्तरदायित्व के सिद्धांत का पालन प्रधानमंत्री के नेतृत्व में ही किया जा सकता है। प्रधानमंत्री मंत्रिमंडल का नेता होता है। वह मंत्रियों की नियुक्ति करता है, उनमें विभागों का वितरण करता है, उनके कार्य में सामंजस्य स्थापित करता है, उनके विभागों का निरीक्षण करता है और पदच्युत कर सकता है।
प्रधानमंत्री मंत्रीमंडल रूपी उन खिलाड़ियों की टीम का नेता होता है जिसके नेतृत्व में मंत्रिमंडल राजनीतिक खेल खेलता है।
संसदीय शासन प्रणाली के गुण
(1) व्यवस्थापिका और कार्यपालिका में सहयोग
इस शासन व्यवस्था में परस्पर सहयोग के द्वारा ठीक प्रकार के कानूनों का निर्माण किया जा सकता है और उन्हें ठीक प्रकार से कार्य रूप में परिणत करते हुए प्रशासन को जनकल्याणकारी बनाया जा सकता है।
(2) शासन व्यवस्था जनता के प्रति उत्तरदायी.
संसदात्मक शासन में मंत्रिगण व्यवस्थापिका के सदस्य होते हैं और इस रूप में जनता के प्रतिनिधि होते हैं। ये मंत्रिगण व्यवस्थापिका के माध्यम से जनता के प्रति उत्तरदायी होते हैं। मंत्री लोगों को अपने पद पर बने रहने के लिए जनता के दृष्टिकोण का ध्यान रखकर उसके अनुसार कार्य करना होता है और इस प्रकार शासन व्यवस्था का संचालन आवश्यक रूप से जनता के हित में होता है।
(3) आवश्यकता के अनुसार परिवर्तन संभव.
संसदात्मक शासन में इस बात की गुंजाइश रहती है कि आवश्यकता अनुसार राजशक्ति का प्रयोग करने वाले व्यक्तियों में परिवर्तन किया जा सकता है। उदाहरण के लिए प्रथम विश्व युद्ध के समय इंग्लैंड में ऐस्किवथ के स्थान पर लॉयड जॉर्ज और द्वितिय विश्व युद्ध में चैम्बरलेन के स्थान पर चर्चिल को प्रधानमंत्री बनाया गया था। इस प्रकार संसदीय शासन लचीला होता है।
(4) गत्यावरोध की आशंका कम.
संसदीय शासन में व्यवस्थापिका और कार्यपालिका बहुत अधिक श्रेष्ठ रूप से परस्पर सहयोग करती है और गतिरोध उत्पन्न होने की कोई आशंका नहीं रहती है।
(5) निरंकुशता का अंत (End of autocracy)
संसदात्मक व्यवस्था में कार्यपालिका व्यवस्थापिका का पूर्ण नियंत्रण रहता है और यदि कोई मंत्री बनवाने करे तो व्यवस्थापिका के द्वारा उन्हें पदच्युत कर दिया जाता है। इस स्थिति के कारण शासन कभी भी निरंकुश नहीं हो पाता है।
संसदीय शासन पद्धति पर गठित शासन होता है। विरोधी दलों के महत्व के कारण भी निरंकुशता की संभावना नहीं रहती। व्यवस्थापिका प्रश्न पूछकर, निंदा प्रस्ताव, कार्य स्थगन प्रस्ताव और अविश्वास प्रस्ताव आदि के द्वारा भी शासन को नियंत्रित रखती है।
(6) योग्यतम, अनुभवी और लोकप्रिय व्यक्तियों का शासन
(7) संसदात्मक शासन व्यवस्था में अध्यक्षात्मक शासन के पर क्या जनता को राजनीतिक शिक्षा प्राप्त करने का अच्छा अवसर प्राप्त होता है।
(8) इस शासन व्यवस्था के अंतर्गत मंत्री एवं प्रशासक सदैव जनता के प्रति उत्तरदाई होते हैं और वास्तविक प्रभुसत्ता जनता के पास ही रहती है जिसे लोकतंत्र के सिद्धांत की रक्षा संभव हो पाती है।
(9) इस शासन प्रणाली में शासन अध्यक्ष राजा या राष्ट्रपति का किसी भी राजनीतिक दल से संबंध नहीं होता। वह निष्पक्ष एवं तटस्थ परामर्शदाता की बनती होता है।
संसदीय शासन प्रणाली के दोष.
(1) दलीय तानाशाही का भय (Fear of party dictatorship)
संसदात्मक शासन में राज्य शक्ति संपूर्ण जनता के हाथ में न रहकर एक दल विशेष के हाथ में रहती है जिसके कारण राजनीतिक दल मनमाने तरीके से इस शक्ति का प्रयोग कर सकता है।
(2) निर्बल शासन (Weak Governance)
संसदात्मक शासन में कोई एक ऐसा व्यक्ति नहीं होता जिनके हाथों में शासन की संपूर्ण सकती हो और जो शासन के सुशासन के लिए उत्तरदाई हो।
शासन की इस निर्बलता के कारण आवश्यक निर्णय लेने में काफी समय लग जाता है और निर्णय को गुप्त रखने में कठिनाई होती है। शासन की यह निर्बलता युद्ध या अन्य संकटकालीन परिस्थितियों में तो असहनीय हो जाती है।
(3) शक्ति पृथक्करण सिद्धांत का विरोध
शक्ति पृथक्करण लोकतंत्र का एक मुख्य सिद्धांत है। संसदात्मक शासन व्यवस्था में शक्ति पृथक्करण सिद्धांत के विरुद्ध है। क्योंकि इसमें शासन मंत्री परिषद के अधीन होता है जो व्यवस्थापिका की एक समिति मात्र होती है।
मोंटेस्क्यू ने लिखा है कि, “यदि व्यवस्थापिका और कार्यपालिका की शक्तियां एक ही व्यक्ति या एक ही संस्था में केंद्रित हो जाए तो कोई स्वतंत्रता नहीं रह सकती। क्योंकि इस बात का भय उत्पन्न हो जाता है कि कहीं राजा या सीनेट अत्याचारी कानून बनाए और उन्हें अत्याचारी ढंग से लागू करें।”
(4) कार्यपालिका की अस्थिरता (Executive instability)
इस शासन व्यवस्था में कार्यपालिका का कार्यकाल व्यवस्थापिका के विश्वास पर निर्भर होने के कारण निश्चित नहीं होता है। कार्यकाल की इस अस्थिरता के कारण मंत्रिमंडल ठीक प्रकार से प्रशासनिक कार्य नहीं कर पाता है।
जिस देश में छोटे-छोटे अनेक राजनीतिक दल हो वहां पर तो मंत्रिपरिषद में जल्दी-जल्दी परिवर्तन के कारण शासन कार्य असंभव ही हो जाता है।
चतुर्थ आम चुनावों के बाद भारत के अनेक राज्यों में कई बार सरकारें बदली। अकेले बिहार में 3 वर्ष में 7 मंत्रिमंडल बने।
(5) मंत्रिमंडलीय तानाशाही की प्रवृत्ति
दलीय सजातीय तथा अनुशासन के कारण वर्तमान समय में संसदात्मक शासन की यह प्रवृत्ति देखने में आई है कि संपूर्ण राजशक्ति मंत्रिमंडल के हाथों में केंद्रित हो जाए और व्यवस्थापिका उनके हाथों की कठपुतली बन जाए। मंत्री परिषद की इस तानाशाही के परिणाम प्रजातंत्र के हित में अच्छे नहीं होते हैं।
रैम्जेम्योर ने ब्रिटिश मंत्रिमंडल के संबंध में लिखा है कि वहां, “मंत्रिमंडल की तानाशाही है तथा मंत्रिमंडलीय उत्तरदायित्व के पर्दे के पीछे नौकरशाही फलती फूलती है।”
(6) उग्र राजनीतिक दलबंदी (Fierce Political Interference)
संसदात्मक शासन में शक्ति प्राप्त करने की आशा में राजनीतिक दल सदैव ही बहुत अधिक सक्रिय रहते हैं। सत्तारूढ़ दल और विरोधी दलों में सत्ता हथियाने के लिए सदैव आरोप प्रत्यारोप चलते रहते हैं जिससे सारा वातावरण खराब हो जाता है।
(7) अनाड़ियों का शासन (Governance of Clan)
संसदीय शासन में मंत्री बनने के लिए आवश्यक होता है कि व्यक्ति व्यवस्थापिका का सदस्य हो। प्राय: यह देखा गया है कि योग्य, विद्वान और दक्ष व्यक्ति राजनीति के झमेले में नहीं पड़ना चाहते, इसलिए केवल सामान्य स्तर के व्यक्ति ही व्यवस्थापिका के सदस्य बनते हैं। उन्हीं में से मंत्री बनाना पड़ता है। परिणाम यह होता है कि कई मंत्री तो सर्वथा अयोग्य होते हैं।
सिडनी लॉ ने लिखा है, “राजस्व विभाग में क्लर्की प्राप्त करने के लिए एक युवक को गणित की परीक्षा पास करना अनिवार्य है। परंतु राजस्व विभाग का वित्त मंत्री कोई भी अधेड़ दुकानदार हो सकता है जो ईटन व ऑक्सफोर्ड में पढ़ा हुआ अंकगणित भूल चुका हो और दशमलव अंकों को समझने की चेष्टा कर रहा हो।”
(8) मंत्रिमंडल के बड़े आकार व दल-बदल
वर्तमान समय में संसदात्मक शासन का एक और दोष मंत्रिमंडल के बड़े आकार व दल-बदल के रूप में देखा गया है। इन बड़े मंत्री मंडलों से एक और प्रशासनिक व्यय में बहुत अधिक वृद्धि होती है तो दूसरी और शासन का उचित रूप से संचालन भी संभव नहीं हो पाता। भारत जैसे देशों में दल-बदल का जो रोग देखा गया है वह संसदीय शासन से ही संबंध है।
संसदात्मक शासन की सफलता के लिए आवश्यक शर्तें या परिस्थितियां
- निष्पक्ष अध्यक्ष (Speaker)
- शक्तिशाली विपक्ष (Strong opposition)
- संसद की सर्वोच्चता (Supremacy of parliament)
- नियतकालीन चुनाव (Immediate election)
- संसदीय परंपराओं का निर्वाह।
- द्वि दलीय व्यवस्था (Two party system)
बहुदलीय व्यवस्था की जगह द्वि दलीय व्यवस्था होनी चाहिए। यदि द्वितीय व्यवस्था संभव न हो तो कम से कम प्रतियोगी दल व्यवस्था होनी चाहिए। कहने का आशय है कि चुनाव में दलों के बीच स्वस्थ प्रतियोगिता हो। इंग्लैंड की संसदीय व्यवस्था (Parliamentary Governance) की सफलता के पीछे दलीय व्यवस्था तथा प्रतियोगिता दल व्यवस्था का हाथ है जबकि भारत में इसका अभाव देखने को मिलता है।
संसदात्मक शासन संबंधी डॉ. ए के वर्मा का वीडियो
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अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs)
संसदीय शासन प्रणाली क्या है?
उत्तर : संसदीय शासन प्रणाली (Parliamentary Governance) शासन की वह व्यवस्था है जिसके अंतर्गत व्यवस्थापिका और कार्यपालिका परस्पर संबंधित होती है और कार्यपालिका व्यवस्थापिका के प्रति उत्तरदायी होती है।
संसदीय शासन प्रणाली का मुख्य लक्षण क्या हैं?
उत्तर : संसदीय शासन प्रणाली का मुख्य लक्षण व्यवस्थापिका और कार्यपालिका में घनिष्ठ संबंध तथा मंत्रिमंडल का सामूहिक उत्तरदायित्व है।
संसदीय शासन व्यवस्था वाले देश कौन-कौन से हैं?
उत्तर : इंग्लैंड की सरकार को संसदीय शासन प्रणाली का सर्वोच्च उदाहरण माना जाता है। इसके अलावा भारत, कनाडा, आस्ट्रेलिया, जापान आदि देशों में संसदीय शासन व्यवस्था है।
फ्रांस और श्रीलंका की शासन व्यवस्था में संसदीय और अध्यक्षीय दोनों शासन प्रणालियों का मिश्रण पाया जाता है।