इस आर्टिकल में नेहरू और गांधी के विचारों का तुलनात्मक अध्ययन, चिंतन के विभिन्न संदर्भों में नेहरू और गांधी के विचारों के मध्य समानता और असमानता का विश्लेषण किया गया है।
नेहरू और गांधी के विचारों का तुलनात्मक अध्ययन नेहरू के व्यक्तित्व और विचारों पर गांधी जी के सानिध्य का व्यापक प्रभाव पड़ा। गांधीवाद के अनेक तत्वों में मौलिक असहमति रखते हुए भी नेहरू गांधी के विचारों एवं कार्यशैली के अनेक पक्षों के समर्पित अनुयायी बन गए। गांधी के प्रति नेहरू के मन में श्रद्धा का भाव था तथा उनसे वैचारिक असहमति के पश्चात भी उनके नेतृत्व में नेहरू की गहरी आस्था थी। नेहरू को गांधी का अनुयाई तो माना जा सकता है किंतु गांधीवाद का नहीं।
महात्मा गांधी तथा जवाहरलाल नेहरू के विचारों का तुलनात्मक अध्ययन
चिंतन के विभिन्न संदर्भों में नेहरू और गांधी के विचारों के मध्य समानता और असमानता का विश्लेषण निम्न प्रकार किया जा सकता है –
(1) अहिंसा – अहिंसा महात्मा गांधी के लिए एक निरपेक्ष नैतिक आस्था थी, जबकि नेहरू के लिए एक नैतिक और व्यवहारिक नीति थी।
(2) विचारों का दार्शनिक आधार – गांधीजी की विचारधारा मूलतः उनकी आध्यात्मिक आस्था और तत्वज्ञान पर आधारित थी। नेहरू की वैचारिक प्रेरणा आध्यात्मिक नहीं थे। वे संशयवादी और तार्किक थे।
(3) साधन और साध्य – गांधी जी ने साधन और साध्य की एकता और पवित्र साध्य की प्राप्ति के लिए साधनों की पवित्रता की आवश्यकता का सिद्धांत प्रतिपादित किया। नेहरू पर इसका व्यापक प्रभाव पड़ा था उन्होंने इसे पूरी तरह स्वीकार कर लिया।
(4) धर्म – धर्म के प्रति गांधी और नेहरू के दृष्टिकोण में गंभीर भिन्नता है। गांधीजी धर्म और राजनीति की अनिवार्यता में विश्वास करते थे। उनके लिए धर्म विहीन राजनीति मृत्यु जाल है।
दूसरी तरफ नेहरू राजनीति में नैतिक मूल्यों को समाविष्ट किए जाने के पक्षधर थे। किन्तु उन्हें धर्म की संज्ञा दिए जाने के पक्ष में नहीं थे।
गांधी जी का मत था कि उन्हें उनकी धार्मिक आस्था ने ही राजनीति में क्रियाशील बनाया। जबकि नेहरू का दृष्टिकोण था कि राजनीति और धार्मिक मंतव्यों को बिल्कुल पृथक रखा जाना चाहिए।
धर्मनिरपेक्षता के प्रति दोनों के दृष्टिकोण में यह समानता है कि दोनों ही सर्वधर्म समभाव में विश्वास रखते हैं तथा धार्मिक सहिष्णुता और उदारता को आवश्यक मानते हैं लेकिन दोनों में यह अंतर है कि गांधी जी इसे धार्मिक दृष्टिकोण का ही अनिवार्य लक्षण मानते हैं, जबकि नेहरू धर्म के प्रति सामान्यतः एक उपेक्षा का भाव रखते हैं।
नेहरू और गांधी दोनों समान रूप से धर्म को व्यक्तिगत आस्था का विषय मानते हुए धार्मिक कार्यों में राज्य के हस्तक्षेप का विरोध करते हैं और एक धर्मनिरपेक्ष राज्य की धारणा का प्रतिपादन करते हैं।
(5) पश्चिमी और आधुनिक सभ्यता के प्रति दृष्टिकोण – पश्चिमी सभ्यता और आधुनिक जीवन-मूल्यों के प्रति गांधी और नेहरू के दृष्टिकोण में गंभीर मतभेद था।
गांधी जी ने पश्चिमी जीवन पद्धति और आधुनिक सभ्यता की कटु आलोचना की। नेहरू पश्चिमी संस्थाओं, मूल्यों व जीवन पद्धति के प्रति प्रशंसा का भाव रखते थे।
(6) औद्योगीकरण तथा मशीनों के प्रति दृष्टिकोण – औद्योगीकरण के प्रति दोनों के विचार परस्पर विरोधी थे। गांधीजी मशीनों पर आधारित औद्योगीकरण के विरुद्ध थे तथा इसे अन्याय शोषण तथा दमन का कारण मानते थे।
नेहरू मानते थे कि विश्व का भविष्य विज्ञान और तकनीकी के अधिकतम विकास और औद्योगीकरण में ही निहित है। वे गांधीजी के दृष्टिकोण को अव्यावहारिक मानते थे।
(7) आर्थिक परिवर्तन के साधन – यद्यपि गांधी और नेहरू दोनों पूंजीवाद के विरोधी थे और उसे शोषण व असमानता का मुख्य कारण मानते थे, तथापि पूंजीवाद के उन्मूलन के लिए दोनों की रणनीति और पद्धति तात्विक रूप से भिन्न है।
गांधीजी पूंजीवाद के उन्मूलन के लिए नैतिक साधनों पर निर्भर करते हैं। वे आर्थिक परिवर्तन के लिए ट्रस्टीशिप, सत्याग्रह तथा वर्ग-सहयोग जैसे नैतिक साधनों का प्रयोग करना चाहते हैं।
दूसरी तरफ नेहरू आर्थिक परिवर्तनों के लिए राज्य की शक्ति का सार्थक और सकारात्मक प्रयोग किए जाने पर बल देते हैं।
(8) राज्य का स्वरूप – गांधीजी राज्य के कटु आलोचक हैं और वे उसे संगठित हिंसा का प्रतीक मानते हैं। गांधीजी का आदर्श एक राज्यहीन समाज की स्थापना है।
नेहरू का मत था कि जनमत को जागरूक और संगठित बनाकर राज्य की शक्ति के दुरुपयोग को रोका जा सकता है।
(9) राष्ट्रवाद व अंतर्राष्ट्रवाद – राष्ट्रवाद और अंतर्राष्ट्रवाद के संबंध में दोनों के विचारों में काफी समानता है। दोनों भारतीय राष्ट्रीयता को अतीत की गौरवमय विरासत, वर्तमान के सुदृढ़ संकल्प तथा भविष्य की स्वर्णिम संभावनाओं के रूप में परिभाषित करते हैं।
अंतर्राष्ट्रवाद के विषय में दोनों के दृष्टिकोण में प्रमुख अंतर यह है कि गांधीजी एक ऐसी विश्व व्यवस्था का स्वपन देखते हैं जिसमें एक राष्ट्र आवश्यकता पड़ने पर मानवमात्र के हितों के लिए अपने व्यक्तित्व की भी बलि चढ़ा सकता है, जबकि नेहरू एक राष्ट्र के रूप में भारत की पहचान को रखते हुए ही अंतर्राष्ट्रीय शांति और सद्भावना के लिए होने वाले प्रयत्नों में उसकी सार्थक भूमिका की कल्पना करते हैं।
Also Read :