इस आर्टिकल में मांटेस्क्यू द्वारा प्रतिपादित शक्ति पृथक्करण का सिद्धांत क्या है, शक्ति पृथक्करण का अर्थ, शक्ति पृथक्करण सिद्धांत का विकास, शक्ति पृथक्करण सिद्धांत का राजनीति में प्रभाव, शक्ति पृथक्करण सिद्धांत के लाभ और आलोचना के बारे में चर्चा की गई है।
शक्ति पृथक्करण सिद्धांत क्या है
शक्ति पृथक्करण सिद्धांत (Theory of Separation of Power) इस विचार पर आधारित है कि निरंकुश शक्तियों के मिल जाने से व्यक्ति भ्रष्ट हो जाते हैं और अपनी शक्तियों का दुरुपयोग करने लगते हैं। सरकार के तीन अंग होते हैं : व्यवस्थापिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका।
सरकार के इन तीनों अंगों का पारस्परिक संबंध कैसा होना चाहिए, यह समस्या अत्यंत विवादाग्रस्त रही है और इस संबंध में समय-समय पर है जिन सिद्धांतों का प्रतिपादन किया गया है, उनमें मोंटेस्क्यू द्वारा प्रतिपादित शक्ति पृथक्करण सिद्धांत सबसे अधिक प्रमुख है।
शक्ति पृथक्करण का अर्थ क्या है
शक्ति पृथक्करण सिद्धांत का अर्थ यह है कि व्यवस्थापन, शासन तथा न्याय से संबंधित शक्तियां पृथक-पृथक हाथों में रहे। इनसे संबंधित विभाग अपने क्षेत्रों में पूर्ण स्वतंत्र हो तथा कोई भी विभाग एक दूसरे विभाग की शक्ति और अधिकारों में हस्तक्षेप ना करें।
शक्ति पृथक्करण सिद्धांत का विकास
शक्ति पृथक्करण सिद्धांत से संबंधित आधारभूत विचार नवीन नहीं है। राजनीति शास्त्र के जनक अरस्तु (Aristotle) ने सरकार को असेंबली, मजिस्ट्रेसी तथा जुडिशरी नामक तीन विभागों में बांटा था, जिनसे आधुनिक व्यवस्थापिका, शासन तथा न्याय विभाग का ही बोध होता है।
इसी प्रकार के विचार की चर्चा पॉलीबियस, सिसरो, मार्सिलियो आदि की रचनाओं में भी मिलती है। 16 वीं सदी के विचारक जीन बोदां ने स्पष्ट कहा है कि राजा को कानून निर्माताओं तथा न्यायधीश दोनों रूपों में एक साथ कार्य नहीं करना चाहिए। लॉक के द्वारा भी इस प्रकार का विचार व्यक्त किया गया है।
मोंटेस्क्यू का शक्ति पृथक्करण का सिद्धांत
मोंटेस्क्यू के पूर्व अनेक विद्वानों ने इस प्रकार के विचार प्रकट किए थे, किंतु विधिवत और वैज्ञानिक रूप से शक्ति पृथक्करण सिद्धांत के प्रतिपादन का कार्य फ्रेंच विचारक मोंटेस्क्यू के द्वारा ही किया गया। मोंटेस्क्यू फ्रांस में लुई चौदहवें का समकालीन था जो कहा करता था कि “मैं ही राज्य हूं” और जिसके समय में राजा की इच्छा ही कानून के रूप में मान्य थी। मोंटेस्क्यू किसी कार्यवश इंग्लैंड गया।
इंग्लैंड की तत्कालीन सीमित राजतंत्रात्मक शासन व्यवस्था को देखकर इस निर्णय पर पहुंचा कि इंग्लैंड में राजशक्ति सम्राट के हाथों में केंद्रित नहीं है वरन् उसका विभाजन हो गया है और इंग्लैंड की शासन व्यवस्था की उत्तमता का यही रहस्य है। इसी आधार पर उसने स्वदेश लौटकर 1762 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘Esprit Des Luis’ (Spirit of Law) में शासन शक्ति के पृथक्करण के सिद्धांत का प्रतिपादन किया।
मोंटेस्क्यू के अनुसार, प्रत्येक सरकार में तीन प्रकार की शक्तियां होती है : व्यवस्थापन संबंधी, शासन संबंधी तथा न्याय संबंधी। यदि व्यवस्थापिका और कार्यपालिका की शक्तियां एक ही हाथों में केंद्रित हो जाए तो कोई स्वतंत्रता नहीं रह सकती है, क्योंकि इस बात का भय उत्पन्न हो जाता है कि कहीं राजा और सीनेट अत्याचारी कानून न बनाए और उन्हें अत्याचारी ढंग से लागू न करें।
इसी तरह से यदि न्याय संबंधी शक्ति को व्यवस्थापिका या कार्यपालिका शक्ति से पृथक नहीं किया, तो भी स्वतंत्रता संभव नहीं हो सकती।
यदि न्याय शक्ति व्यवस्थापिका शक्ति के साथ जोड़ दी जाएगी तो प्रजा के जीवन और उसकी स्वतंत्रता को स्वेच्छाचारी नियंत्रण का शिकार होना पड़ेगा, क्योंकि उस दशा में न्यायकर्ता ही कानून निर्माता भी हो जाएगा।
यदि न्याय शक्ति को कार्यपालिका के साथ जोड़ दिया जाएगा तो न्यायकर्ता का व्यवहार हिंसक एवं अत्याचारी हो जाएगा, यदि एक ही व्यक्ति या समुदाय तीनों काम करने लगे अर्थात कानून बनाए, उन्हें लागू करें और विवादों का निर्णय करने लगे तो स्वतंत्रता बिल्कुल नष्ट हो जाएगी और राज्य अपनी मनमानी करने लगेगा।
ब्रिटिश विचारक ब्लैकस्टोन के द्वारा भी अपनी पुस्तक ‘Commentaries on the law of England’ मैं इसी प्रकार के विचार व्यक्त किए हैं। अमेरिकी संविधान सभा के सदस्य भी मोंटेस्क्यू की विचारधारा से प्रभावित थे।
मेडिसन (Madison) ने लिखा है कि, “व्यवस्थापन, प्रशासन और न्याय … इन शक्तियों का एकीकरण ही अत्याचारी शासन कहा जा सकता है।”
इस प्रकार शक्ति पृथक्करण सिद्धांत का आशय यह है कि शक्तियों के एकीकरण से सार्वजनिक स्वतंत्रता का हनन होता है। अतः राजशक्ति का पूर्ण पृथक्करण नितांत आवश्यक है।
शक्ति पृथक्करण सिद्धांत का राजनीति पर प्रभाव
शक्ति पृथक्करण सिद्धांत का तत्कालीन राजनीति पर बहुत प्रभाव पड़ा। अमेरिकी संविधान निर्माता इससे बहुत प्रभावित थे और इसी कारण उन्हें अध्यक्षात्मक शासन पद्धति को अपनाया था। इसी प्रकार मैक्सिको, अर्जेंटीना, ब्राजील, आस्ट्रिया आदि अनेक देशों के संविधान में भी इसको मान्यता प्रदान की गई है।
शक्ति पृथक्करण सिद्धांत का प्रभाव ‘फ्रांस के मनुष्यों के अधिकारों की घोषणा’ (Declaration of the rights of man) पर भी पड़ा जिसकी 16 वीं धारा में यह कहा गया है कि शक्ति विभाजन के बिना कोई सरकार वैधानिक अथवा प्रजातंत्रात्मक नहीं हो सकती।
फ्रांस में कार्यपालिका को न्यायपालिका से अलग करने की दृष्टि से ही ‘प्रशासकीय न्यायालय’ (Administrative Courts) की स्थापना की गई है।
शक्ति पृथक्करण सिद्धांत का मूल्यांकन
शक्ति पृथक्करण सिद्धांत की आलोचना व इसका समर्थन दोनों ही किए गए हैं। इस सिद्धांत के पक्ष और विपक्ष की विवेचना निम्न प्रकार की जा सकती है –
शक्ति पृथक्करण सिद्धांत के गुण
(1) निरंकुशता और अत्याचार से रक्षा (Protection from Autocracy and Tyranny)
विधानमंडल तथा कार्यपालिका की शक्तियों का विभाजन इसलिए आवश्यक है कि उनके एक ही व्यक्ति के हाथों में आ जाने का परिणाम होगा – मनमाने कानून का निर्माण और उनकी मनमाने तरीके से क्रियान्वित। न्यायपालिका तथा विधानमंडल की शक्तियों का पृथक्करण इसलिए भी आवश्यक है कि मनमाने कानून न बनाए जायें और उनकी मनमानी व्याख्याएं न की जायें। न्यायपालिका और कार्यपालिका की शक्तियों को मिला देने से न्याय व्यवस्था पूरी तरह समाप्त हो सकती है।
मोंटेस्क्यू का कहना है कि यदि तीनों शक्तियों को एक ही व्यक्ति या संस्था में केंद्रित कर दिया जाए तो न्याय, स्वतंत्रता और व्यवस्था तीनों समाप्त हो जाएंगे और शक्तियों के केंद्रीकरण के परिणाम स्वरुप एक पूर्ण निरंकुश और अत्याचारी शासन स्थापित हो जाएगा। इसी प्रकार निरंकुशता और अत्याचार से रक्षा करने के लिए शक्ति पृथक्करण सिद्धांत को अपनाना नितांत आवश्यक है।
(2) विभिन्न योग्यताओं का तर्क (Logic of Various Abilities)
शक्ति पृथक्करण सिद्धांत को अपनाना इसलिए भी आवश्यक है कि सरकार से संबंधित विभिन्न कार्यों को करने के लिए अलग-अलग प्रकार की योग्यताओं की आवश्यकता होती है। इस बात की बहुत अधिक आशंका है कि एक श्रेष्ठ और सफल कानून निर्माता असफल न्यायधीश और सफल न्यायाधीश असफल कानून निर्माता या प्रशासक होगा।
कानून निर्माता के लिए व्यापक दृष्टिकोण और दूरदर्शिता की आवश्यकता होती है, प्रशासनिक कार्य के लिए सहज विवेक, तुरंत बुद्धि, कार्यकुशलता, दृढ़ता और निर्भयता की आवश्यकता होती है। उचित न्याय व्यवस्था के लिए निष्पक्ष, स्थिर चित्तवान और सत्य-असत्य में भेद करने की दृष्टि से संम्पन्न व्यक्ति होना चाहिए।
जब अलग अलग कार्यों को उचित रूप से संम्पन्न करने के लिए अलग-अलग प्रकार की योग्यताओं की आवश्यकता होती है तो स्वाभाविक रूप से इन कार्यों को उचित रूप में संपन्न करने के लिए एक दूसरे से पृथक रूप से अलग-अलग विभागों की व्यवस्था होनी चाहिए।
(3) कार्य विभाजन से उत्पन्न लाभ (Profit from Work Split)
वर्तमान समय में सरकार के कार्य बहुत अधिक बढ़ गए हैं और किसी एक ही सत्ता से इस बात की आशा नहीं की जानी चाहिए कि वह इन सभी को सफलतापूर्वक संपन्न कर सकेगी।
ऐसी स्थिति में सरकार के तीन अलग-अलग विभाग हो और सरकार के तीनों अंगों में कार्य और शक्तियों का विभाजन कर दिया जाए तो सरकार का समस्त कार्य बहुत अधिक श्रेष्ठ रूप से संपन्न हो सकेगा।
(4) न्याय की निष्पक्षता (Fairness of Justice)
शक्ति पृथक्करण सिद्धांत को अपनाने पर न्यायपालिका पर व्यवस्थापिका या कार्यपालिका का दबाव नहीं होगा और ऐसी स्थिति में निष्पक्ष तथा स्वतंत्र न्याय की आशा की जा सकती है। इस सिद्धांत के अभाव में न्यायपालिका निष्पक्षता और स्वतंत्रतापूर्वक कार्य नहीं कर सकेगी।
शक्ति पृथक्करण सिद्धांत की आलोचना/ दोष
यद्यपि तत्कालीन राजनीति पर शक्ति पृथक्करण सिद्धांत का पर्याप्त प्रभाव पड़ा, लेकिन तर्क और अनुभव के आधार पर यह कहा जा सकता है कि शक्ति पृथक्करण सिद्धांत अनेक दृश्यों से त्रुटिपूर्ण है। शक्ति पृथक्करण सिद्धांत की आलोचना प्रमुख रूप से निम्नलिखित आधारों पर की जाती है :
(1) ऐतिहासिक दृष्टि से गलत
मोंटेस्क्यू के अनुसार उसने अपने सिद्धांत का प्रतिपादन इंग्लैंड की तत्कालीन शासन पद्धति के आधार पर किया है, लेकिन इंग्लैंड की शासन व्यवस्था कभी भी शक्ति पृथक्करण सिद्धांत पर आधारित नहीं रही है।
मोंटेस्क्यू के समय से लेकर आज तक इंग्लैंड में संसदात्मक शासन व्यवस्था प्रचलित रही है और यह शासन व्यवस्था व्यवस्थापिका और कार्यपालिका के परस्पर घनिष्ठ संबंध और सहयोग पर ही आधारित है। अतः यह कहा जा सकता है कि इस सिद्धांत का ऐतिहासिक आधार त्रुटिपूर्ण है।
(2) शक्तियों का पूर्ण पृथक्करण संभव नहीं
आलोचकों का कहना है कि सरकार एक ‘अंगीय एकता’ (Organic Unity) है। जिस प्रकार मानव शरीर के विभिन्न अंग एक दूसरे पर आश्रित हैं, वही स्थिति शासन के अंगों की है। इसलिए शासन के अंगों का पूर्ण एवं कठोर पृथक्करण व्यवहार में संभव नहीं है।
शक्ति पृथक्करण सिद्धांत की अव्यवहारिकता इस बात से भी स्पष्ट है कि यद्यपि अमेरिकी संविधान निर्माता शक्ति पृथक्करण सिद्धांत से बहुत अधिक प्रभावित थे, लेकिन वहां पर भी यह संभव नहीं हो सका है कि सरकार का प्रत्येक दूसरे अंगों से पूर्णतया पृथक रहकर अपना कार्य कर सकें।
अमेरिकी संघीय व्यवस्थापिका (कांग्रेस) कानूनों का निर्माण करने के साथ-साथ राष्ट्रपति द्वारा की गई नियुक्तियों और संधियों पर नियंत्रण रखती है और महाभियोग लगाने का न्यायिक कार्य भी करती है। कार्यपालिका के प्रधान राष्ट्रपति को कानूनों के संबंध में विशेषाधिकार और न्याय क्षेत्र में न्यायाधीशों की नियुक्ति करने एवं क्षमादान का अधिकार प्राप्त है।
इसी प्रकार अमेरिका का सर्वोच्च न्यायालय व्यवस्थापिका तथा कार्यपालिका द्वारा किए गए कार्यों की वैधानिकता की जांच कर सकता है। अमेरिकी उदाहरण के आधार पर यह कहा जा सकता है कि व्यवहार में शक्तियों का पूर्ण पृथक्करण संभव नहीं है।
(3) शक्ति पृथक्करण अवांछनीय भी है
शक्ति पृथक्करण सिद्धांत को अपनाना न केवल असंभव वरन् अवांछनीय भी है। व्यवस्थापिका कानून निर्माण का कार्य तथा कार्यपालिका प्रशासन का कार्य ठीक प्रकार से कर सके, इसके लिए दोनों के बीच पारस्परिक सहयोग नितांत आवश्यक है। कानून निर्माण का कार्य इतना जटिल हो गया है कि इस संबंध में आवश्यक ज्ञान उन्हीं लोगों को होता है, जो शासन विभाग से संबंध होते हैं।
अतः उचित कानून के निर्माण हेतु व्यवस्थापिका को कार्यपालिका का सहयोग नितांत आवश्यक है। इसी प्रकार का कार्य कार्यपालिका द्वारा किया जाता है, लेकिन जनता के निकट संपर्क के कारण जनता के विचारों और आवश्यकताओं से व्यवस्थापिका के सदस्य ही अधिक अच्छे प्रकार से परिचित होते हैं।
ऐसी स्थिति में यदि व्यवस्थापिका कार्यपालिका से सहयोग न करें तो प्रशासन को जनहितकारी रूप प्रदान नहीं किया जा सकेगा।
शक्तियों के इस पृथक्करण से सरकारी विभागों में परस्पर विरोध की प्रवृत्ति भी उत्पन्न हो जाएगी। डॉक्टर फाइनर ने इस बात को सुंदर भाषा में चित्रित करते हुए कहा है, “शक्ति पृथक्करण सिद्धांत शासन को निद्रित करने व ऐंठने वाली स्थिति में डाल देता है।”
यह सिद्धांत न्यायपालिका की कार्यकुशलता और निष्पक्षता का अंत कर देगा। इस सिद्धांत को स्वीकार कर लेने पर न्यायाधीशों की नियुक्ति न तो कार्यपालिका द्वारा होगी और न ही व्यवस्थापिका द्वारा निर्वाचित होंगे, वरन् वे जनता द्वारा चुने जाएंगे।
जनता द्वारा निर्वाचित न्यायधीश प्राय: अयोग्यत तथा पक्षपातपूर्ण प्रमाणित हुए हैं। वे तर्क और न्याय भावना के स्थान पर पक्षपात तथा दलीय भावना के आधार पर कार्य करेंगे।
(4) सरकार के तीनों अंगों की असमान स्थिति
शक्ति पृथक्करण सिद्धांत इस मान्यता पर आधारित है कि सरकार के तीनों विभाग समान रूप से शक्तिशाली और महत्वपूर्ण है, किंतु वास्तव में ऐसा नहीं है। सरकार के तीनों अंगों में कार्यपालिका और न्यायपालिका की अपेक्षा व्यवस्थापिका अधिक महत्वपूर्ण स्थिति रखती है।
व्यवस्थापिका द्वारा निर्मित कानूनों के आधार पर ही प्रशासन किया जाता है और उन्हीं कानूनों के आधार पर न्यायपालिका न्याय प्रदान करने का कार्य करती है। प्रो. लास्की का कथन है कि, “कार्यपालिका और न्यायपालिका के अधिकारों की सीमा व्यवस्थापिका द्वारा घोषित की गई इच्छा में निहित होती है।”
(5) स्वतंत्रता के लिए शक्ति पृथक्करण आवश्यक नहीं
यह विचार भी सर्वथा भ्रमात्मक है कि जनता की स्वतंत्रता के लिए शक्ति पृथक्करण के सिद्धांत का पालन आवश्यक है। वर्तमान समय में तो ऐसा समझा जाता है कि माननीय स्वतंत्रता के लिए शक्ति पृथक्करण के स्थान पर ‘विधि का शासन’ (Rule of law) और ‘अधिकारों की संवैधानिक घोषणा’ (Constitutional declaration of rights) अधिक महत्व रखती है।
इसके अतिरिक्त मानवीय स्वतंत्रता तो जनता की जागरूकता और स्वतंत्रता के प्रति मानवीय प्रेम पर निर्भर करती है। वाशिंगटन के शब्दों में, “निरंतर जागरूकता ही स्वतंत्रता का सच्चा मूल्य है।”
शक्ति पृथक्करण सिद्धांत के प्रति की गई इन आलोचनाओं के कारण ही यह कहा जाता है कि “शक्ति पृथक्करण सिद्धांत को अपनाना न तो संभव है और न ही वांछनीय।”
निष्कर्ष (Conclusion) :
शक्ति विभाजन सिद्धांत की इन आलोचनाओं के कारण इसे महत्वहीन नहीं कहा जा सकता। शक्ति विभाजन सिद्धांत का आशय यदि यह लिया जाए कि तीनों विभागों द्वारा एक दूसरे से कोई भी संबंध नहीं रखा जाना चाहिए, तो इस रूप में शक्ति विभाजन सिद्धांत को अपनाना संभव नहीं है, लेकिन यदि शक्ति विभाजन का आशय यह लिया जाए कि सरकार के तीनों अंगों को एक दूसरे के क्षेत्र में अनुचित हस्तक्षेप से बचते हुए अपनी सीमाओं में रहना चाहिए, तो इस रूप में शक्ति विभाजन सिद्धांत को अपनाना न केवल उपयोगी, वरन् आवश्यक है। मोंटेस्क्यू शक्ति पृथक्करण सिद्धांत के आधार पर यही चाहता था। शक्ति विभाजन सिद्धांत इसी रूप में अपनाया जा सकता है और उसे इसी रूप में अपनाया जाना चाहिए।
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अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs)
शक्ति पृथक्करण का सिद्धांत क्या है?
उत्तर : शक्ति पृथक्करण सिद्धांत से आशय यह है कि व्यवस्थापन, शासन तथा न्याय से संबंधित शक्तियां पृथक-पृथक हाथों में रहे। इनसे संबंधित विभाग अपने क्षेत्रों में पूर्ण स्वतंत्र हो तथा कोई भी विभाग एक दूसरे विभाग की शक्ति और अधिकारों में हस्तक्षेप ना करें।
शक्ति पृथक्करण का सिद्धांत किसने दिया था?
उत्तर : शक्ति पृथक्करण के सिद्धांत को विधिवत और वैज्ञानिक रूप से प्रतिपादन का कार्य फ्रेंच विचारक मोंटेस्क्यू के द्वारा किया गया।
मांटेस्क्यू ने किस सिद्धांत का प्रतिपादन किया था?
उत्तर : मांटेस्क्यू ने शक्ति पृथक्करण के सिद्धांत का प्रतिपादन किया था।
कार्नवालिस कोड जो शक्तियों के पृथक्करण सिद्धान्त पर आधारित था का निर्माण कब किया गया?
उत्तर : कॉर्नवॉलिस कोड का निर्माण लॉर्ड कॉर्नवॉलिस ने मई 1793 ईस्वी में करवाया था। कॉर्नवॉलिस कोड ‘शक्तियों के पृथक्करण’ सिद्धान्त पर आधारित था।
कौन सा देश शक्ति पृथक्करण सिद्धांत का अच्छा उदाहरण है?
उत्तर : अमेरिका शक्ति पृथक्करण सिद्धांत का अच्छा उदाहरण है?