इस आर्टिकल में हम चर्चा करेंगे की क्या भारतीय संविधान सभा पूर्ण संप्रभु संस्था थी?, क्या भारतीय संविधान सभा एक प्रतिनिधि संस्था थी?
क्या भारतीय संविधान सभा एक पूर्ण प्रभुसत्ता संपन्न संस्था थी?
Was the Indian Constituent Assembly a fully Sovereign Body ? – संवैधानिक और कानूनी दृष्टि से संविधान सभा पूर्ण संप्रभु संस्था नहीं थी। इसका निर्माण ब्रिटिश सरकार की स्वीकृति से हुआ था, ब्रिटिश सरकार इसे समाप्त कर सकती थी, इसकी शक्तियों तथा अधिकारों पर कैबिनेट मिशन योजना (Cabinet Mission Plan) द्वारा अनेक प्रतिबंध लगाए गए थे और राष्ट्र का एक चौथाई भाग संविधान सभा की कार्यवाही में भाग नहीं ले रहा था।
लेकिन मौलाना आजाद, जवाहरलाल नेहरू और राजेंद्र प्रसाद आदि का विचार था कि, “यद्यपि कैबिनेट मिशन योजना द्वारा कुछ सीमाएं लगाई गई है, परंतु यह संप्रभु है क्योंकि इसकी सता जनता से प्राप्त हुई है। पंडित नेहरू तथा ब्रिटिश सरकार द्वारा भी बार-बार यही दोहराया गया था कि विधानसभा को भंग नहीं किया जाएगा और व्यवहार में ऐसा ही हुआ।”
किंतु संविधान सभा के अधिकांश सदस्यों ने इन आक्षेपों को अस्वीकार करते हुए संविधान सभा की संप्रभुता पर बल दिया। संविधान सभा ने अपनी संप्रभुता (Sovereignty) का प्रदर्शन करते हुए निम्न प्रस्ताव पारित किए –
(1) ब्रिटिश सरकार या अन्य किसी सत्ता के आदेश से संविधान सभा का विघटन नहीं किया जाएगा। यह सभा तभी भंग की जाएगी जब इसके दो तिहाई सदस्य इस आशय का प्रस्ताव पारित कर दे।
(2) संविधान सभा के संचालन की पूर्ण शक्ति उसके निर्वाचित सभापति के पास थी।
15 अगस्त 1947 को ‘भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम‘ पारित हो जाने के बाद संविधान सभा पर कैबिनेट मिशन द्वारा लगाए गए प्रतिबंध समाप्त हो गए और भारतीय संविधान सभा पूर्ण रूप से संप्रभुता संपन्न बन गई।
जवाहरलाल नेहरू ने संविधान सभा की संप्रभुता की पुष्टि करते हुए लिखा है कि, “सरकारें राजकीय पत्रों से पैदा नहीं होती। वास्तव में वे जनता की इच्छा की अभिव्यक्ति होते हैं। हम आज यहां इसलिए एकत्रित हो पाए हैं क्योंकि हमारे पीछे जनता की शक्ति है। जहां तक जनता, कोई दल या वर्ग नहीं वरन समूची जनता चाहेगी, वहां तक हम यहां रहेंगे।”
क्या भारतीय संविधान सभा एक जनप्रतिनिधि संस्था थी?
Was the Indian Constituent Assembly a Representative Body? – संविधान सभा के सदस्यों का निर्वाचन ब्रिटिश प्रांतों की विधानसभाओं के द्वारा किया गया था। अतः संविधान सभा अप्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित थी। यह भारतीय व्यस्क जनता के 28.5% तथा कुल जनता के मात्र 15% का ही प्रतिनिधित्व करती थी। संविधान सभा में जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित सदस्य एक भी नहीं था।
संविधान सभा के सभी सदस्य अप्रत्यक्ष रूप से भी निर्वाचित नहीं थे। रियासतों के प्रतिनिधि तो कुल सदस्य संख्या का लगभग एक तिहाई भाग थे। राजाओं द्वारा मनोनीत किए गए थे।
संविधान सभा के उपयुक्त जनतांत्रिक स्वरूप की व्याख्या दो आधारों पर की जा सकती है –
- सैद्धांतिक आधार पर और
- व्यवहारिक आधार पर।
(1) सैद्धांतिक दृष्टि से संविधान सभा का प्रतिनिधिक स्वरूप
सैद्धांतिक दृष्टि से यह कहा जा सकता है कि संविधान सभा एक प्रतिनिधि संस्था नहीं थी। इसके समर्थन में निम्न तर्क दिए जा सकते हैं –
(i) संविधान निर्माण में जनता का प्रत्यक्ष योगदान नहीं – संविधान निर्माण के आरंभ में जनता का कोई प्रत्यक्ष योगदान नहीं था। इस संविधान सभा की रचना ब्रिटिश सरकार ने की थी। इसे भारतीय जनता की प्रतिनिधि सभा नहीं कहा जा सकता। संविधान सभा का एक भी सदस्य जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित नहीं था।
(ii) जनता द्वारा अनुमोदन नहीं – संविधान बन जाने के पश्चात भी उसे अनुमोदन हेतु जनता के समक्ष नहीं रखा गया था।
(iii) किसान और श्रमिक वर्ग को प्रतिनिधित्व नहीं – संविधान सभा में किसान और श्रमिक वर्ग के प्रतिनिधित्व का भी अभाव था। अतः भारत की अधिकांश जनता का संविधान सभा में प्रतिनिधित्व नहीं था।
अतः सैद्धांतिक दृष्टि से यह कहा जा सकता है कि संविधान सभा एक प्रतिनिधि संस्था नहीं थी।
(2) व्यावहारिक दृष्टि से संविधान सभा का प्रतिनिधिक स्वरूप
यदि व्यवहारिक दृष्टि से देखा जाए तो सैद्धांतिक दृष्टि से संविधान सभा के प्रतिनिधिक स्वरूप पर की गई आलोचना निराधार साबित हो जाती है। इसे निम्न प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है –
(i) संविधान सभा का अप्रत्यक्ष निर्वाचन परिस्थिति जन्य आवश्यकता थी.
कांग्रेस प्रारंभ से यह मांग करती आ रही थी कि संविधान सभा का गठन व्यस्क मताधिकार के आधार पर होना चाहिए, किंतु कांग्रेस ने प्रांतिय व्यवस्थापिकाओं द्वारा संविधान के गठन के प्रस्ताव को इसलिए स्वीकार कर लिया था कि यदि व्यस्क मताधिकार के आधार पर उस समय चुनाव करवाए जाते तो सभा के गठन में और अधिक समय लग जाता और यह निर्णय उन परिस्थितियों में देश के लिए घातक होता।
यह भी आशंका थी कि कहीं हिंदू और मुसलमानों के बीच तनाव और मतभेद का रूप धारण न कर ले। इसलिए आदर्श की अपेक्षा यथार्थ को प्राथमिकता दी गई।
(ii) प्रथम आम चुनाव में सभी सदस्य विजयी – संविधान सभा का व्यस्क मताधिकार के आधार पर भी निर्वाचन होता तो भी संगठन में शायद ही कोई उल्लेखनीय परिवर्तन आता। क्योंकि प्रथम आम चुनाव (First General Election) में वही सदस्य निर्वाचित हुए जो संविधान सभा के सदस्य थे।
(iii) नरेशों की सहमति का प्रश्न – यदि नरेशों के प्रतिनिधियों के मनोनयन की व्यवस्था को स्वीकार नहीं किया जाता तो रियासतों के नरेश संविधान सभा में सम्मिलित होने पर सहमत ही नहीं होते।
(iv) भारतीय संविधान जनता का संविधान है – भारतीय संविधान वास्तव में जनता का संविधान है, क्योंकि इसी के माध्यम से सारी शक्ति को जनता में निहित माना गया है।
(v) विभिन्न वर्गों का समुचित प्रतिनिधित्व – संविधान सभा में विभिन्न वर्गों, जातियों, दलों तथा विशेष हितों को भी समुचित प्रतिनिधित्व प्राप्त था। अतः डॉ. अंबेडकर का यह कथन सही था कि, “यद्यपि संविधान सभा जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित नहीं की गई है, लेकिन यह निश्चित रूप से एक जनप्रतिनिधि संस्था है।”
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अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs)
कब भारतीय संविधान सभा पूर्ण रूप से संप्रभुता संपन्न बन गई थी।
उत्तर : 15 अगस्त 1947 को ‘भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम’ पारित हो जाने के बाद संविधान सभा पर कैबिनेट मिशन द्वारा लगाए गए प्रतिबंध समाप्त हो गए और भारतीय संविधान सभा पूर्ण रूप से संप्रभुता संपन्न बन गई।
संविधान सभा का अप्रत्यक्ष निर्वाचन क्यों किया गया था?
उत्तर : संविधान सभा का अप्रत्यक्ष निर्वाचन परिस्थितिजन्य आवश्यकता थी। यदि व्यस्क मताधिकार के आधार पर उस समय चुनाव करवाए जाते तो सभा के गठन में और अधिक समय लग जाता और यह निर्णय उन परिस्थितियों में देश के लिए घातक होता।
यह भी आशंका थी कि कहीं हिंदू और मुसलमानों के बीच तनाव और मतभेद का रूप धारण न कर ले। इसलिए आदर्श की अपेक्षा यथार्थ को प्राथमिकता दी गई।