इस आर्टिकल में उपयोगितावाद क्या है, बेंथम का उपयोगितावाद सिद्धांत या सुखवाद सिद्धांत (बेन्थम थ्योरी इन हिंदी) के बारे में विस्तार से चर्चा की गई है।
19वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में राजनीतिक चिंतन के क्षेत्र में इंग्लैंड की सबसे बड़ी देन उपयोगितावाद का सिद्धांत था। उपयोगितावाद के प्रबल प्रतिपादक जेरेमी बेंथम से पूर्व डेविड ह्यूम, रिचर्ड कम्बरलैंड, हचेसन, प्रिस्टले आदि सुुुुखवादी विचारको ने उपयोगिता संबंधी अपने विचार प्रकट किए थे। किंतु बेंथम ने विभिन्न क्षेत्रों में बिखरे हुए उपयोगितावाद सिद्धांतों को व्यवस्थित सूत्र में पिरोया।
बेंथम का उपयोगितावाद सिद्धांत क्या है
बेंथम के विचारों को प्रभावित करने वाले पुस्तक प्रिस्टले के द्वारा लिखी गई ‘Eassay on Government’ थी, जिसमें हचेसन को उद्धृत करते हुए ‘अधिकतम लोगों का अधिकतम सुख’ शब्दावली प्रयुक्त की गई थी। बाद में बेंथम द्वारा प्रतिपादित उपयोगितावादी विचारधारा के अंतर्गत यह शब्दावली उपयोगितावाद का मूल मंत्र बन गई।
अतः बेंथम ही उपयोगितावाद का जनक तथा प्रतिपादक कहलाता है। इस सिद्धांत को एक तर्कसंगत और व्यवस्थित विचारधारा के रूप में ढालने का श्रेय बेंथम को है।
बेंथम इस समस्या पर विचार करने लगा कि मानव को मात्र मानवीय सुख के निमित्त कार्य करना चाहिए। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए बेंथम का यह दृढ़ विश्वास हो गया था कि कानून में सुधार किया जाना चाहिए। ऐसा सुधार विधायन के द्वारा ही संभव हो सकता है।
चूंकि बेंथम स्वयं एक कानून का विद्यार्थी रह चुका था, अतः वह इसी बात पर चिंतन करने लगा कि कानून में विधायन द्वारा कैसे सुधार किया जा सकता है, जिसके द्वारा समाज में ‘अधिकतम लोगों को अधिकतम सुख’ की प्राप्ति हो सके।
बेंथम ने अपने उपयोगितावादी सिद्धांत की व्याख्या और उसके औचित्य को प्रमाणित अपनी पुस्तक ‘एन इंट्रोडक्शन टू द प्रिंसिपल आफ मोरल्स एंड लेजिसलेशन’ (An Introduction to the Principal of Morals and Legislation 1789) नामक पुस्तक में किया है।
बेंथम के उपयोगितावाद या सुखवाद का अर्थ क्या है
(1) बेन्थम के अनुसार उपयोगितावाद का आधार सुख है
बेंथम के राजनीतिक विचारधारा को उपयोगितावाद कहा जाता है। यह सुखवादी दर्शन पर आधारित एक मनोवैज्ञानिक तथा सुधारवादी विचारधारा है, जिसका प्रमुख केंद्र इंग्लैंड (England) था। यद्यपि सुखवादी विचारधारा बेंथम से पूर्व है अति प्राचीन काल से चली आई है, तथापि इस बात का श्रेय बेंथम को ही प्राप्त है कि सुखवाद को उसने एक क्रमबद्ध राजनीतिक विचारधारा का रूप प्रदान किया।
प्राचीन काल में यूरोपीय चिंतन के अंतर्गत भी सुखवाद ग्रीक दार्शनिकों के विचारों में विद्यमान था। प्लेटो तथा अरस्तु भी राज्य का उद्देश्य मानव को सुखी जीवन प्रदान करना मानते थे। परंतु उनके सुखवाद का अर्थ व्यापक था। उनके पश्चात इसे संकुचित अर्थ में व्यक्त किया जाने लगा।
इपीक्यूरिन दर्शन मानव को सुख की प्राप्ति तथा दुख से निवृत का उपदेश देता था। 17 वीं तथा 18 वीं सदी के अनेक भौतिकवादी विचारको ने भी सुख की प्राप्ति को मानव जीवन का लक्ष्य माना। परंतु उस काल के विचारको में से सुखवाद को एक मनोवैज्ञानिक तथा नैतिक सामाजिक दर्शन का रूप सर्वप्रथम बेंथम ने प्रदान किया।
बेंथम के मत में मनुष्य स्वभाव में यह बात अंतर्निहित है कि वह सुख की प्राप्ति तथा दुख से निवृत्ति चाहता है। वह उन्हीं कार्यों को करना चाहता है जिनसे उसे सुख मिले और आनंद प्राप्त हो।
किसी वस्तु या कार्य की उपयोगिता का मापदंड उससे प्राप्त होने वाला सुख या दुख है। यदि वह सुख या आनंद देती है तो उपयोगी है और यदि इसके विपरीत वह दुःख या कष्ट देती है तो अनुपयोगी है। अर्थात सुख या दुख पर आधारित उपयोगिता विध्यात्मक है न की निषेधात्मक। इस दृष्टि से बेंथम का उपयोगितावाद का सिद्धांत एक सुखवाद का सिद्धांत (Theory of Hedonism) है।
(2) बेंथम के अनुसार सुख तथा आनंद में भेद
सुख तथा आनंद को बेंथम एक-दूसरे के पर्याय नहीं मानता। उसके मत से मानव के समस्त अनुभव या तो आनंददायी है या कष्टदायी अथवा दोनों। आनंद (pleasure) तो केवल व्यक्तिगत संवेदन है। परंतु सुख (happiness) व्यक्तिगत संवेदन मात्र नहीं है, यह एक मन: स्थिति अथवा संवेदनों का पुंज है। सुख अनेक आनंदों का ढेर मात्र भी नहीं है।
किसी वस्तु या कार्य के द्वारा प्राप्त होने वाला चिरस्थायी सुख ही वास्तविक सुख है। इसी प्रकार सुखवाद पर आधारित किसी कार्य की उपयोगिता का मानदंड भी उसके उद्देश्य या प्रयोजन से प्राप्त होने वाला सुख नहीं है, अपितु उस कार्य के परिणाम से प्राप्त होने वाला चिरस्थायी सुख है।
(3) बेंथम के अनुसार सुख तथा दुख का स्वरुप
उपयोगितावादी दर्शन का मूल आधार सुखवाद (Hedonism) है। किसी वस्तु या कार्य की उपयोगिता उससे प्राप्त होने वाले सुख पर निर्भर करती है। बेंथम की धारणा थी कि मनुष्य केवल सुख की कामना ही नहीं करता अपितु वह अधिकाधिक सुख की कामना करता है।
सामाजिक जीवन के क्षेत्र में इस सिद्धांत को लागू करने का अभिप्राय यह होगा कि सामाजिक जीवन से संबंध किसी कार्य या वस्तु की उपयोगिता की परख उस वस्तु या कार्य से समाज के अधिकाधिक व्यक्तियों को अधिकाधिक सुख प्राप्त होने से की जा सकती है।
राज्य, शासन, कानून व्यवस्था आदि जिनका संबंध राजनीतिक जीवन से होता है, तभी उपयोगी है जबकि वे इस उद्देश्य को पूर्ण करें। इसलिए इनकी उपयोगिता का ज्ञान करने के लिए उनसे प्राप्त होने वाले सुख या दुख की माप करनी पड़ेगी।
(4) बेंथम के अनुसार सुख तथा दुख में मात्रा का अंतर है न की गुण का
बेंथम की यह मान्यता है कि ‘सुख तथा दुख में मात्रा का अंतर है गुण का नहीं’ बड़ी महत्वपूर्ण है। भले ही बेंथम का यह निष्कर्ष सही न हो और इसके संबंध में जो अकात्मक मूल्यांकन करने का सिद्धांत उसने बताया है वह भी सत्य न हो, तथापि इसके बिना उसकी समूची उपयोगितावादी धारणा निर्मूल हो जाती है।
बेंथम ने कहा कि सभी सुखों का गुणात्मक स्वरूप एक सा होता है। बेंथम ने कहा कि समाज का गुणात्मक स्वरूप एक सा होता है। गुण की नापतोल नहीं की जा सकती।
बेंथम ने कहा कि काव्य का आनंद उतना ही उत्तम है जितना बच्चों के पुशपिन खेल का (pushpin is as good as poetry)। दोनो से प्राप्त होने वाले आनंद के गुणात्मक स्वरूप में कोई अंतर नहीं है।
यदि एक व्यक्ति अपने राष्ट्र के सर्वोत्तम पद पर चुन लिया जाए तो उसके कारण उसे जिस सुख का अनुभव होता है उसका गुणात्मक स्वरूप दूसरे एक व्यक्ति द्वारा किसी खेल प्रतियोगिता में विजेता होने से उत्पन्न होने वाले सुख के ही समान है। इस प्रकार यदि इन विविध प्रकार के सुखों में कोई अंतर है तो वह मात्रा का अंतर है।
(5) बेंथम के अनुसार सुख तथा दुख की माप तोल संभव है
विभिन्न प्रकार के सुखों के मध्य मात्रात्मक अंतर का ज्ञान करने के लिए बेंथम ने सुखों की गणना (सुखमापक felicific calculus) सुझायी है। इसके आधार पर विभिन्न प्रकार के कार्यों या वस्तुओं से प्राप्त होने वाले सुखों का मूल्य ज्ञात किया जा सकता है।
इसके निमित्त बेंथम ने उन कार्यों के संबंध में अनेक परिस्थितियों या तत्वों का उल्लेख किया है जिनके आधार पर उनसे प्राप्त होने वाले सुख या दुख के कम या अधिक होने का ज्ञान किया जा सकता है। ये निम्न प्रकार है –
- प्रगाढ़ता
- अवधि
- निश्चितता या अनिश्चितता
- समीपस्थ या दूरी
- उर्वरता
- शुद्धता और
- सीमा
(6) बेंथम के अनुसार सुखों तथा दुखों के प्रकार
बेंथम ने विभिन्न प्रकार के सुखों तथा दुखों की सारणी भी प्रस्तुत की है। बेंथम के अनुसार सुख तथा दुख दो प्रकार के होते हैं – सरल तथा मिश्रित। इसके उपरांत उसने सरल सुखों को 14 तथा दुखों को 12 भागों में विभक्त किया है। मिश्रित सुख या दुख कई सुखों अथवा कई दुखों अथवा एक या अधिक दुखों अथवा सुखों के मिश्रण का परिणाम होते है।
(7) बेंथम के अनुसार सुख-दुख के स्त्रोत
बेंथम ने सुख या दुख के चार प्रमुख स्त्रोत बताए हैं। इन्हें उसने अनुशास्तियां (sanctions) कहा है –
- भौतिकी या प्राकृतिक
- राजनीतिक
- नैतिक या लौकिक
- धार्मिक
उपयोगिता का सिद्धांत (Theory of Utility)
सुखवाद पर आधारित उपयोगिता का सिद्धांत यह है कि किसी कार्य की उत्तमता की परख उससे प्राप्त होने वाले अधिकाधिक सुख की मात्रा का ज्ञान करके हो सकती है।
सी एल वेपर के शब्दों में, “उपयोगिता का सिद्धांत वह है जो हमें यह बताता है कि हम किस प्रकार अपने आचरण को विनियमित करें।”
इसके आधार पर एक अच्छे कार्य (good action) तथा एक उचित कार्य (right action) के मध्य भेद किया जा सकता है। अच्छा कार्य वह है जिससे अधिकतम सुख की प्राप्ति हो। एक उचित कार्य वह है जिससे निवर्तमान परिस्थितियों में संभव किसी अन्य कार्य की तुलना में सुख का शेष अधिक तथा दुख का शेष न्यूनतम हो। यह बात परिस्थितियों पर निर्भर करती है कि कोई बुरा कार्य उचित है और कोई अच्छा कार्य अनुचित है।
सुखवादी उपयोगिता के सिद्धांत के अंतर्गत है यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठता है कि सामाजिक जीवन के क्षेत्र में किसके सुख का उद्देश्य अंतर्निहित है। हॉब्स की धारणा थी कि मानव की स्वार्थमयी प्रवृत्ति उसे अपने सुख के अतिरिक्त अन्य किसी बात की कामना करने की प्रेरणा नहीं देती।
बेंथम भी सर्वप्रथम यही मानता है कि मनुष्य सदैव केवल अपने व्यक्तिगत सुख का ही उद्देश्य रखता है परंतु साथ ही बेंथम का यह भी मत है कि मनुष्य को सामान्यता प्रत्येक के सुख का ध्यान रखना चाहिए। इसके उपरांत वह मनुष्य को सलाह देता है कि उसे अधिकतम लोगों के अधिक सुख की प्राप्ति का प्रयास करना चाहिए।
अंततः उसने यह सलाह दी है कि मनुष्य को अधिकाधिक संभव सुख की खोज करनी चाहिए। वास्तव में उपयोगितावादी नैतिकता का अंतिम उद्देश्य मानव मात्र का अधिकाधिक सुख ही है।
बेंथम का उपयोगितावाद का सिद्धांत वस्तुपरक अथवा स्पष्ट है। यह भावात्मक धारणाओं को मान्य नहीं करता। बेंथम की दृष्टि से यह सार्वभौम रूप से लागू होने वाला सिद्धांत है। मानव के समस्त व्यापारों में यह लागू होता है।
बेंथम के उपयोगितावाद सिद्धांत का आलोचनात्मक मूल्यांकन
कार्लाइल ने बेंथम के सुखवादी दर्शन को ‘सूअरों का दर्शन’ (Pig Philosophy) कहा है। जिसका अभिप्राय यह है कि सुख तथा आनंद के मध्य बेंथम स्पष्ट भेद नहीं कर पाया।
जब बेंथम कहता है कि ‘प्रत्येक व्यक्ति जानता है कि सुख क्या है’, तो इसका अभिप्राय यही हो सकता है कि हम भोजन इसलिए करते हैं कि भूख की तृष्टि से हमें आनंद प्राप्त होता है, इसलिए नहीं कि हमें भूख लगी है। इसलिए केवल आनंद की प्राप्ति के उद्देश्य से किसी कार्य को करने का अभिप्राय यह है कि हम सुख को आदतन प्राप्त करने की चेष्टा करते हैं। वेपर के मत में ऐसा सुख प्राप्त होना कठिन है।
इसके अतिरिक्त बेंथम ने सुखों तथा दुखों के मध्य मात्रात्मक अंतर को स्वीकार किया है और विभिन्न सुखों तथा दुखों की माप तोल करने के सिद्धांत का प्रतिपादन किया है। परंतु सुख-दुख के मध्य नापतोल का सुखकलन का सिद्धांत भी दोषमुक्त नहीं है। विभिन्न सुखों तथा दुखों के मध्य परिमाणगत अंतर होने के जिन कारणों की उसने चर्चा की है उसका अंकात्मक ज्ञान कैसे हो सकेगा, इसका कोई संतोषजनक या व्यावहारिक समाधान वह नहीं दे पाया है।
बेंथम का उपयोगितावाद राज्य के प्रमुख उद्देश्य ‘अधिकतम लोगों के अधिकतम सुख’ की उपलब्धि का द्योतक है। ‘अधिकतम लोगों के अधिकतम सुख’ (Maximum happiness for the Maximum people) का सिद्धांत स्वयं विरोधाभासी तथा अस्पष्ट है।
यदि अधिकतम लोगों के अधिकतम सुख की अभिवृद्धि को ही राज्य का प्रमुख उद्देश्य माना जाए तो भी यह एक हृदयहीन सिद्धांत रह जाएगा। यह माननीय नैतिकता के साथ अन्याय करना होगा। क्या समाज में 49% लोगों को 51% लोगों के सुख के समक्ष बलिदान कर देना उचित होगा ?
यदि उपयोगितावादी सिद्धांत समस्त लोगों के अधिकतम सुख की कामना करता, जैसा कि भारत में सर्वोदय का सिद्धांत मानता है तो उपयोगितावाद कम से कम अपने को हृदयहीनता से मुक्त कर लेता।
बेंथम का मनोवैज्ञानिक सुखवाद भी दोषपूर्ण है। यह मानना सर्वथा सही नहीं है कि मनुष्य केवल सुख ही चाहता है और वह अत्यधिक सुख चाहता है। यदि ऐसा हो तो मनुष्य में अनेक सामाजिक गुणों का विकास असंभव हो जाएगा। बहुधा मनुष्य सामाजिक या नैतिक कर्तव्य की भावना से प्रेरित होकर भी अनेक ऐसे कार्यों को करते हैं जिनसे उन्हें व्यक्तिगत सुख की अपेक्षा अधिक कष्ट सहना पड़ता है।
बेंथमवादी इसका सीधा साधा उत्तर यह देते हैं कि मनुष्य ऐसे कार्यों के करने में कष्ट का अनुभव नहीं करते अपितु ऐसा करना उनके सुख या आनंद की अभिवृद्धि को बढ़ाता है। इसलिए वे उन कार्यों को करते हैं। ट्रॉटस्की ने बेंथम के उपयोगितावाद सिद्धांत को ‘खाना बनाने की किताब’ बताया है।
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प्लेटो का न्याय सिद्धांत क्या है
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs)
सुख दुख समाकलन के विचार का प्रतिपादन किसने किया?
सुख दुख समाकलन के विचार का प्रतिपादन जरेंमी बेंथम ने किया।
अधिकतम लोगों का अधिकतम सुख की व्याख्या किसने की?
अधिकतम लोगों का अधिकतम सुख की व्याख्या जरेंमी बेंथम ने की।
उपयोगितावाद का अर्थ क्या है?
उपयोगितावाद एक आचार सिद्धांत है जो सुखवाद (Hedonism) पर आधारित है। उपयोगितावाद की मान्यता है कि आचरण एकमात्र तभी नैतिक है जब वह ‘अधिकतम व्यक्तियों के अधिकतम सुख’ में वृद्धि करता हो। राजनीतिक तथा अन्य क्षेत्रों में इसका संबंध मुख्यत: बेंथम तथा जान स्टुअर्ट मिल से है।
बेंथम ने सुख दुख के कितने स्रोत बताया है?
बेंथम ने सुख या दुख के चार प्रमुख स्त्रोत बताए हैं। इन्हें उसने अनुशास्तियां (sanctions) कहा है 1. भौतिकी या प्राकृतिक 2. राजनीतिक 3. नैतिक या लौकिक 4. धार्मिक।