इस आर्टिकल में बालक के विकास की अवस्थाएं, बाल्यावस्था क्या है, बाल्यावस्था में शारीरिक विकास, बाल्यावस्था में सामाजिक विकास, बाल्यावस्था में मानसिक विकास, बाल्यावस्था में संज्ञानात्मक विकास, बाल्यावस्था और विकास आदि टॉपिक पर चर्चा की गई है।
अभिवृद्धि और विकास साथ साथ चलते हैं तथापि इन दोनों में अंतर है। अभिवृद्धि का आशय बालक की लंबाई, भार आदि के बढ़ने से है जबकि विकास का अर्थ शरीर के अंगों की बनावट में परिवर्तन से है।
इस प्रकार वृद्धि में साधारणतया केवल बढ़ने का अर्थ छिपा होता है जबकि विकास का आशय बढ़ने के साथ-साथ उचित रूप से बढ़ने से है। वृद्धि और विकास में परिपक्वता का भाव निहित है।
विकास एक आजीवन चलने वाली प्रक्रिया है। वृद्धि शारीरिक परिपक्वता के साथ समाप्त हो जाती है, जबकि विकास की प्रक्रिया शारीरिक परिपक्वता के पश्चात भी निरंतर होती रहती है। वृद्धि को भौतिक (Phisicaly) रूप से नापा जा सकता है, परंतु विकास को बालक के व्यवहारिक रूपों में आए परिवर्तनों द्वारा ही देखा जा सकता है।
अतः अब विकास की कौन-कौन सी अवस्थाएं हैं और उनमें कौनसा विकास होता है इस पर विचार किया जाएगा –
विकास की अवस्थाएं
बालक का विकास कुछ अवस्थाओं से होकर गुजरता है। मुख्य रूप से चार अवस्थाएं हैं –
- शैशवावस्था (Infancy)- जन्म से 6 वर्ष तक
- बाल्यावस्था (Childhood)- 6 वर्ष से 12 वर्ष तक
- किशोरावस्था (Adolescen)- 12 वर्ष से 21 वर्ष तक
- प्रौढ़ावस्था (Maturity)- 21 वर्ष के पश्चात
हरलॉक के अनुसार विकास की अवस्थाएं
- गर्भावस्था – गर्भधारण से जन्म तक
- नवजात अवस्था – जन्म से 14 दिन तक
- शैशवावस्था – 14 दिन से 2 वर्ष तक
- बाल्यावस्था – 2 से 11 वर्ष तक
- किशोरावस्था – 11 से 21 वर्ष तक
रॉस के अनुसार विकास की अवस्थाएं
- शैशवावस्था – 1 से 3 वर्ष तक
- पूर्व बाल्यावस्था – 3 से 6 वर्ष तक
- उत्तर बाल्यावस्था – 6 से 12 वर्ष तक
- किशोरावस्था – 12 से 18 वर्ष तक
जोन्स के अनुसार विकास की अवस्थाएं
- शैशवावस्था – जन्म से 5 वर्ष तक
- बाल्यावस्था – 5 से 12 वर्ष तक
- किशोरावस्था – 12 से 18 वर्ष तक
बाल्यावस्था क्या है
बाल्यावस्था को प्राय: दो भागों में बांटा जा सकता है –
- शैशवावस्था और
- बाल्यावस्था।
दोनों अवस्थाओं के विकास में प्रायः समानता होती है। अतः शैशवावस्था और बाल्यावस्था के विकासों को एक साथ ही बताया जा रहा है।
कोल और ब्रूश ने बाल्यावस्था को जीवन का ‘अनोखा काल’ कहा है। मानव विकास में बाल्यावस्था का विशेष महत्व है। ब्लेचर, जोन्स और सिंपसन का मत है, “व्यक्ति के दृष्टिकोण, मूल्य व आदर्शों का निर्माण बाल्यावस्था में ही हो जाता है।”
6 वर्ष तक बालक का मानसिक विकास भी हो जाता है। शिक्षा की दृष्टि से तो यह काल अति महत्वपूर्ण है। बालक के शरीर और व्यवहार में भी परिवर्तन होने लगते हैं। इस रूप में शैशवावस्था व बाल्यावस्था महत्वपूर्ण अवस्थाएं हैं।
बाल्यावस्था में शारीरिक विकास
जन्म से 6 वर्ष तक की अवस्था में शारीरिक विकास सिर से प्रारंभ होकर पैरों व हाथों की ओर जाता है। सिर का भार जो जन्म के समय 350 ग्राम होता है, 6 वर्ष की आयु तक 1250 ग्राम हो जाता है और 10 वर्ष की आयु में मस्तिष्क का भार शरीर का आठवां हिस्सा हो जाता है। 6 वर्ष की आयु में ऊंचाई लगभग 43 इंच और भार 12 पौंड हो जाता है।
बाल्यावस्था तक लंबाई में तीव्र गति से वृद्धि होती है, भार पर्याप्त मात्रा में बढ़ता है। 12 वर्ष तक के बालक-बालिकाओं का भार 85-95 पौण्ड के लगभग हो जाता हैं अर्थात बालकों की तुलना में बालिकाओं का भार ज्यादा होता है।
बाल्यावस्था में हड्डियों की संख्या 270 से बढ़कर 350 तक हो जाती है और उनमें वृद्धा आ जाती है। 6 वर्ष की अवस्था तक चार दाढ़े व 8 काटने वाले दाँत आ जाते हैं उसके बाद स्थाई दांत आ जाते हैं। 12 वर्ष की आयु तक 25 दांत निकल आते हैं। बाल्यावस्था तक बालक का मांसपेशियों पर नियंत्रण हो जाता है और इनका भार शरीर का 26% हो जाता है।
इस अवस्था में बालक अपनी शारीरिक गति पर नियंत्रण करना सीख जाता है और अपने कार्य स्वयं करने लगता है। हस्तकला में वृद्धि, शक्ति में वृद्धि, खेल के संबंध में सुनिश्चितता आ जाती है।
कुप्पूस्वामी ने कहा है – “इस अवस्था में अनेक अनोखे परिवर्तन होते हैं जिनके कारण इस अवस्था को समझाना कठिन होता है।”
बाल्यावस्था में सामाजिक विकास
हरलॉक के अनुसार – “सामाजिक विकास का अर्थ सामाजिक संबंधों में परिपक्वता प्राप्त करना है।”
सोरेसन्स के अनुसार – “सामाजिक अभिवृद्धि और विकास से हमारा तात्पर्य अन्य व्यक्तियों से सुसमायोजित करने की योग्यता में वृद्धि करना है।”
सामाजिक विकास की प्रक्रिया करीब 2 माह की अवस्था से प्रारंभ होती है जब बच्चा आवाज पहचानने लगता है वैसे उसमें सामाजिकता का विकास बाल्यावस्था व उससे पूर्व की अवस्था में होता है।
2 वर्ष की आयु में बालक अन्य बालकों की ओर आकृष्ट हो जाता है, परस्पर खेलता है उसमें सहयोग की भावना का विकास होने लगता है।
3-4 वर्ष की अवधि में नकारात्मकता के गुण बालक में आ जाते हैं। कुंठा, निराशा, आक्रामक व्यवहार करने लगता है। वह आत्मकेंद्रित व झगड़ालू हो जाता है, किंतु 6 वर्ष की अवस्था आने पर उसमें सामूहिकता की भावना विकसित होने लगती है।
इस अवस्था में उसका सामाजिक परिवेश बढ़ जाता है। अतः बाल्यावस्था को ‘टोली की आयु’ (Age of Gang) कहा गया है। क्योंकि बालक की रुचि समवयस्कों के साथ क्रियाकलाप करने की हो जाती है। वह अब घर से बाहर खेलना पसंद करता है। वह अपने स्कूल व पड़ोस के सामाजिक जीवन में समायोजन करने का प्रयास करता है।
बाल्यावस्था की टोली समलिंगीयों की होती है। टोली का प्राय: एक केंद्रीय स्थान होता है जहां सब मिलते हैं। इस प्रकार टोली के माध्यम से बालक नवीन वातावरण के साथ अनुकूलन करना तथा बालकों के साथ मित्रता करना सीख लेता है। बालक टोली के मानकों के अनुसार काम करने लगता है।
टोली में विकसित होने वाले सामाजिक गुणों की व्याख्या करते हुए हरलॉक ने लिखा है- टोली के संपर्क से बालक दूसरों से प्रतियोगिता करना, सहयोग देना और काम करना, जिम्मेदारियां संभालना और निभाना, जब दूसरों से दुर्व्यवहार किया जाता हो या उनकी उपेक्षा की जाती हो तब उसका पक्ष लेना और संपत्ति विपत्ति दोनों में अपना संतुलन बनाए रखना सीख लेता है।
टोली में समाजीकरण का जो प्रशिक्षण मिलता है, उसकी प्राप्ति का इसके अलावा अन्य कोई साधन नहीं है। इस प्रकार टोली साहस, न्याय, आत्मनियंत्रण, सद्भाव एवं नेता के प्रति आदर आदि गुणों का विकास करती है।”
गुथरी और पावर्स के अनुसार – “इस अवस्था में स्वत्वाधिकार की भावना भी प्रबल होती है। बच्चे में यह भावना पहले परिवार के लोगों की निजी वस्तुओं के प्रति पैदा होती है जिनके संपर्क में भी आते हैं।”
इसी अवस्था में बालकों में ‘ऑडीपस’ और ‘इलेक्ट्रा’ ग्रंथियां विकसित होने लगती हैं।’ऑडीपस’ ग्रंथि से अभिप्राय है कि लड़के अपनी माता से अधिक प्रेम करने लगते हैं और इलेक्ट्रा ग्रंथि से तात्पर्य है कि लड़कियां अपने पिता से अधिक प्रेम करती है।
एक और भावना का विकास इस समय होता है वह है ‘वीर पूजा’। इसका अर्थ है कि जो बालक टोली के अन्य सदस्यों से बुद्धि में, विश्वसनीयता में, शक्ल-सूरत में, लोकतंत्रीय आदर्शों की दृष्टि से, आत्मविश्वास में, खेलकूद संबंधी योग्यता में तथा दूसरों की इच्छाओं को पहचानने में श्रेष्ठ होता है- उसके प्रति अन्य बालक वीर पूजा का भाव अपना लेते हैं।
इस समय भी विषमलिंगी के प्रति आसक्ति का भाव भी विकसित होने लगता है। भाई बहन भी एक दूसरे को बहुत चाहते हैं।
रॉस के अनुसार, “बाल्यावस्था ‘मिथ्या परिपक्वता’ का काल है जिसमें बालक में परिपक्वता के कारण वयस्कता प्रतीत होने लगती है किंतु यह स्थाई प्रवृत्ति नहीं है।”
‘फ्रॉयड’ ने इसे काम भावना की प्रसुप्तावस्था कहा है। अतः बालक काम भावना का दमन कर नैतिक और चारित्रिक गुणों को सीखता है।
बाल्यावस्था में मानसिक विकास
पूर्व बाल्यावस्था में बालक के मानसिक विकास का माध्यम ज्ञानेंद्रियां होती हैं। धीरे-धीरे वह अपनी जिज्ञासा की शांति के लिए अनेक प्रकार के प्रश्न करता है। भाषा पर उसका अधिकार होने लगता है। स्मरणशक्ति में वृद्धि हो जाती है। वातावरण की वस्तुओं के नाम बताने, कहानी, कविता सुनाने एवं अपनी रुचि के अनुसार सीखने की इच्छा बढ़ जाती है।
समस्या का चिंतन करके कारण व निदान खोजने का प्रयास करने लगता है। रटने की योग्यता विकसित हो जाती है। 6 से 12 वर्ष की आयु में उसमें दाएं-बाएं का ज्ञान, 14-15 वस्तुओं को गिनने व सरल प्रश्नों के उत्तर देने कि क्षमता का विकास हो जाता है।
8 से 11 वर्ष की आयु में बालक का भाषा संबंधी विकास इतना हो जाता है कि वह छठी कक्षा तक लगभग पचास हजार शब्द जान जाता है। सही व सटीक जटिल वाक्य बना लेता है। इस अवस्था में अवधान का विकास भी खूब हो जाता है।
बालक रंगबिरंगी वस्तुओं, तेज आवाज के प्रति अधिक आकर्षित रहता है। उसमें चिंतन तर्क और निर्णय लेने की क्षमता विकसित हो जाती है। वह ठोस वस्तुओं के बारे में तर्क करने लगता है। 12 वर्ष की अवस्था तक बालक किसी बात का कारण बता सकता है तथा अपनी ओर से व्याख्या कर सकता है।
क्रो एवं क्रो ने लिखा है- “जब बालक 6 वर्ष या इसके लगभग हो जाता है तो उसकी मानसिक योग्यताओं का लगभग पूर्ण विकास हो जाता है। इस अवस्था में जो मुख्य रूप से बालक का विकास होता है, उसमें- भाषा का विकास और संप्रत्यय निर्माण प्रमुख है।”
जीन प्याजे ने बालक के संज्ञानात्मक विकास का गहराई से अध्ययन किया था। उसने संज्ञानात्मक विकास की चार महत्वपूर्ण अवस्थाएं बताई है।
बाल्यावस्था में संज्ञानात्मक विकास
बाल्यावस्था में पियाजे के अनुसार संज्ञानात्मक विकास के सोपान। पियाजे के अनुसार चिंतन के विकास की प्रक्रिया 4 चरणों में होती है जो निम्नलिखित है-
संवेदि गतिक काल (जन्म से 2 वर्ष तक)
इस अवस्था को संवेदी गतिक काल इसलिए कहा जाता है क्योंकि यह वह अवस्था है जिसमें बच्चा अपने पर्यावरण को समझने लगता है। बालक वस्तु को छूता है उसमें हरकत पैदा करता है और अपने आसपास के वातावरण को समझता है। यह अवस्था जन्म से 2 वर्ष की होती है।इस अवस्था के अंत तक बालक 200 शब्द तक बोल सकता है।
इस समय उसका संवेदनात्मक (स्पर्श, स्वाद, गंध, श्रवण, दृश्य) विकास होता है। वह अपना अवधान भी किसी चीज पर बहुत थोड़े समय के लिए केंद्रित कर सकता है। भाषा के बदले संकेतों का प्रयोग करता है। कहने वालों की मुद्रा, कहने का ढंग और हाव-भाव से बालक बात को समझने लगता है। संबंधित वस्तुओं के प्रति सही अनुक्रिया कर सकता है। प्रारंभ में उसके लिए वस्तु और व्यक्ति में कोई अंतर नहीं होता किंतु धीरे-धीरे दोनों के अंतर को समझने लगता है।
पूर्व संक्रियात्मक काल (2 वर्ष से 7 वर्ष तक)
इस अवस्था में बालक समाज की वस्तुओं को प्रतीक के रूप में काम में लेता है। वह अपनी क्षमताओं का व्यवस्थित रुप से प्रयोग नहीं कर पाता इसलिए इसे पूर्व संक्रिया काल कहा जाता है। इस समय बालक आत्म केंद्रित होता है। इसका अर्थ है कि वह अपने मस्तिष्क में जैसा समझते हैं उसी के संदर्श में वस्तुओं की व्याख्या करता है। जबकि उसका संदर्श दूसरों के संदर्श से भिन्न होता है। यह अवस्था 2 वर्ष से 7 वर्ष की होती है।
इस अवस्था में बालक में आत्म केंद्रित चिंतन की प्रकृति रहती है। उनका चिंतन सरल और साधारण होता है। प्रारंभ में वह संकेतों के द्वारा अपनी बात समझाता है किंतु धीरे-धीरे भाषा के माध्यम से अपने विचार व्यक्त कर सकता है। किसी वस्तु पर अपना ध्यान केंद्रित कर सकता है।
भौतिक एवं मात्रात्मक रूप से किसी चीज के विषय में बता सकता है, जैसे- एक लंबा और एक छोटा गिलास जिसमें पानी भरा है वह केवल यह बता सकता है कि लंबे गिलास में पानी छोटे क्लास की तुलना में अधिक है जबकि उसकी चौड़ाई अधिक है– इस बात को वह नहीं समझ सकता है।
ठोस या मूर्त संक्रिया काल (7 वर्ष से 11 वर्ष तक)
इस अवस्था में बच्चा अमूर्त और तार्किक धारणाओं को समझने लगता है। बच्चे की आत्म केंद्रितता कम हो जाती है। पूछे गए प्रश्नों का सही उत्तर दे सकता है। यह अवस्था करीब 7 वर्ष से 11 वर्ष के मध्य की होती है। यह अवस्था चिंतन शक्ति के विकास के लिए अधिक उपयुक्त है।
इस समय बालक ठोस वस्तुओं के बारे में तर्क करने लगता है। वह वस्तुओं कार्य-कारण संबंध स्थापित करने लगता है। इस अवस्था में तर्कसंगत निर्णय लेने में असमर्थ रहता है।
उदाहरणार्थ – वह लंबे और चौड़े गिलासों में भरे पानी को देखकर यह तो अनुभव कर सकता है कि दोनों गिलासों में पानी बराबर ही है लेकिन ऐसा क्यों है ?इसका उत्तर देने में असमर्थ रहता है।
औपचारिक संक्रिया या अमूर्त संक्रिया काल (11 से 15 वर्ष तक)
यह अवस्था बालक की चिंतन-शक्ति के विकास के लिए अधिक उपयुक्त है। यह अवस्था करीब 11 से 15 वर्ष तक की उम्र तक होती है। इस समय बालक विचार करने की योग्यता और चिंतन-शक्ति अर्जित करता है।
इस समय वह तुरंत अमूर्त संबंधों के विषय में चिंतन कर सकता है, समस्या समाधान कर सकता है। समस्याओं को तथ्यों के आधार पर बौद्धिक रूप से परख सकता है और उनके संभावित अनेक समाधान सुझाव सकता है।
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अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs)
पूर्व बाल्यावस्था में बालकों को भावनात्मक सहयोग की आवश्यकता क्यों है?
उत्तर : पूर्व बाल्यावस्था में बालकों को भावनात्मक सहयोग की आवश्यकता इसलिए होती है, क्योंकि उस वक्त बालकों का संज्ञानात्मक विकास परिपक्व नहीं होता। बालक उस वक्त सीखने की प्रक्रिया में होते हैं। उसमें सही और गलत का विभेद करने की क्षमता विकसित नहीं होती है।
बाल्यावस्था को ‘टोली की आयु’ (Age of Gang) क्यों कहा गया है।
उत्तर : इस अवस्था में उसका सामाजिक परिवेश बढ़ जाता है। अतः बाल्यावस्था को ‘टोली की आयु’ (Age of Gang) कहा गया है। क्योंकि बालक की रुचि समवयस्कों के साथ क्रियाकलाप करने की हो जाती है। वह अब घर से बाहर खेलना पसंद करता है। वह अपने स्कूल व पड़ोस के सामाजिक जीवन में समायोजन करने का प्रयास करता है।
पियाजे के अनुसार बालक के संज्ञानात्मक विकास की प्रक्रिया 4 चरणों में होती है। वे है –
उत्तर : पियाजे के अनुसार चिंतन के विकास की प्रक्रिया 4 चरणों में होती है जो निम्नलिखित है –
1. संवेदि गतिक काल (जन्म से 2 वर्ष तक)
2. पूर्व संक्रियात्मक काल (2 वर्ष से 7 वर्ष तक)
3. ठोस या मूर्त संक्रिया काल (7 वर्ष से 11 वर्ष तक)
4. औपचारिक संक्रिया या अमूर्त संक्रिया काल (11 से 15 वर्ष तक)