इस आर्टिकल में संवेग क्या है, संवेग की परिभाषा, संवेगो के प्रकार, बाल्यावस्था में संवेगात्मक विकास और अधिगम के निहितार्थ आदि टॉपिक पर चर्चा की गई है।
संवेग का अर्थ एवं परिभाषा
संवेगों का मानव जीवन में विशेष महत्व है। रॉस ने कहा है – “संवेग अनुभव का रागात्मक पक्ष है जिसका अवबोध हम अंतर्निरीक्षण द्वारा करते हैं।”
जेम्स ड्रेवर के अनुसार, “संवेग शरीर कि वह जटिल दशा है जिसमें श्वास, नाड़ी तंत्र, ग्रंथियों, मानसिक स्थिति, उत्तेजना, अवबोध आदि का अनुभूति पर प्रभाव पड़ता है तथा पेशियां निर्दिष्ट व्यवहार करने लगती है।”
पी. वी. यंग के अनुसार, “संवेग समस्त व्यक्ति में उद्विग्नता उत्पन्न करता है। इसका स्त्रोत मनोवैज्ञानिक है वह इसमें व्यवहार तथा चेतना का अनुभव एवं आंतरिक क्रियाएं सम्मिलित है।”
जर्सील्ड के अनुसार, “संवेग से अभिप्राय किसी रूप में उद्वेलित, उत्तेजित एवं उत्प्रेरित दशा है।”
क्रो एवं क्रो के अनुसार, “संवेग वह भावात्मक अनुभव है जो व्यक्ति के आंतरिक सामान्यीकृत समायोजन तथा मानसिक व शरीर-क्रिया, वैज्ञानिक दशा के साथ होते हैं तथा प्रकट व्यवहार में अभिव्यक्त होते हैं।”
उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि संवेग एक प्रकार की सुखद या दु:खद अनुभूति है। इसकी उत्पत्ति मूल प्रवृतियों के आधार पर होती है। वैसे तो संवेग कई रूपों में व्यवहार में दृष्टिगोचर होते हैं।
संवेग कितने प्रकार के होते है
मैक्डूगल और गिलफोर्ड ने 14 प्रकार के संवेग बताए हैं – भय, क्रोध, घृणा, करूणा, आश्चर्य, आत्महिनता, एकाकीपन, कामुकता, भूख, अधिकार भावना, कृतिभाव एवं आमोद।
गेट्स ने अपनी कृति ‘एज्यूकेशनल साइकोलॉजी’ में पांच संवेगो को लिया है – क्रोध, भय, प्रेम, दया और कामुकता।
सामान्य रूप से भय, क्रोध, ईर्ष्या, जिज्ञासा, स्नेह एवं हर्ष संवेग ही बालकों में पाए जाते हैं।
ब्रिजेज के अनुसार संवेग बालक के जन्म से 24 माह तक के संवेगात्मक विकास को इस प्रकार व्यक्त किया है –
पूर्व बाल्यावस्था (Post Childhood) में संवेग प्रायः सुख एवं दु:ख दो ही अनुभव बालकों को होते हैं। आयु-वृद्धि के अनुसार वे बढ़ते रहते हैं। हरलॉक का कहना है कि 6 वर्ष की आयु में बालक में भय क्रोध के संवेग आ जाते हैं जिन्हें वह अपनी क्रियाओं से अभिव्यक्त कर देता है।
वाटसन के अनुसार संवेग के प्रकार – वाटसन ने बालक में 4 प्रकार के संवेग बताएं है। बालक में सर्वप्रथम भय, क्रोध एवं प्रेम के संवेग प्रकट होते हैं जिन्हें उसकी मुस्कुराहट में, चिल्लाहट में, और हंसी में देखा जा सकता है।
प्रारंभ में बालक अपने संवेगों को लाक्षणिक रूप में अभिव्यक्त करता है। जैसे बालक खिलखिलाता है, हँसता है, फड़कता है, जमीन पर लोटता है और कई बार आकुलता का भी अनुभव करता है। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार ये क्रोध, प्रेम और भय के लक्षण हैं।
उत्तर बाल्यावस्था में पाए जाने वाले मुख्य संवेग भी प्रायः भय, क्रोध, ईर्ष्या, जिज्ञासा, स्नेह और हर्ष ही है किंतु पूर्व के संवेगों की तुलना में इसमे मुख्य अंतर यह होता है कि एक तो उनकी उद्दीप्त करने वाली परिस्थितियां भिन्न होती हैं और उन संवेगों की अभिव्यक्ति का रूप अलग होता है।
बालक अपने क्रोध, भय, प्रेम आदि संवेगों को अपने आसपास के व्यक्तियों, वस्तुओं एवं परिस्थिति के प्रति प्रतिक्रिया करके व्यक्त करते हैं। बड़े होने पर संवेगों पर नियंत्रण भी पाया जाता है। बड़े होने पर बालक में सामूहिकता का विकास हो जाता है और वह अपने साथियों के साथ स्नेह, घृणा, हर्ष, क्रोध आदि व्यक्त करने लगता है।
अधिगम के लिए बाल्यावस्था में शारीरिक, सामाजिक, मानसिक एवं संवेगात्मक विकासों के निहितार्थ
बाल्यावस्था के विकासों का अध्यापकों के लिए अत्यधिक महत्व है क्योंकि बाल्यावस्था में सभी विकास तेजी से होते हैं जो बालक के व्यक्तित्व को प्रभावित करते हैं। यदि इन विकासों के अनुरूप उनको शिक्षा नहीं दी जाती तो बालकों का व्यक्तित्व कुंठित हो सकता है और यह समय आगे की अवस्था की आधारशिला है अतः इसे सही दिशा निर्देश देना आवश्यक है।
(1) बालक की बाल्यावस्था को ‘अनोखा काल’ कहा गया है। इस समय बालक की ज्ञानेंद्रियां बड़ी तेजी से विकसित होती है। मानसिक विकास की दृष्टि से भाषा का विकास व कौशल का विकास होता है।
मनोवैज्ञानिकों ने पाँचों ज्ञानेंद्रियों को ‘ज्ञान के प्रत्यक्ष द्वार’ (Gateway of knowledge) कहा है। अतः अध्यापक के लिए इस बात की जानकारी होना अति महत्वपूर्ण है जिससे बालक का सही रूप से मानसिक विकास हो सके।
(2) अध्यापक और माता पिता दोनों के ही लिए बालक के सामाजिक विकास की जानकारी होना आवश्यक है। परिवार बालक के सामाजीकरण की आधारशिला है। बालक अपने माता-पिता, भाई-बहन से मधुरता से व्यवहार करें। उसमें सकारात्मक गुणों का विकास हो। प्रारंभ से ही अपनी चीजें यथास्थान रखें, अच्छी आदतों का निर्माण हो आदि में परिवार की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
यह ‘आदत निर्माण’ का काल भी है। सामाजिक वातावरण और सामाजिक संबंधों के आधार पर बालक में इस समय नैतिकता के गुणों का विकास किया जा सकता है।
(4) समाजीकरण में न केवल माता पिता अपितु शिक्षक साथी समूह की महत्वपूर्ण भूमिका है। समयानुसार खेल के द्वारा एवं कहानी के माध्यम से उनमें सकारात्मक गुण जैसे – सहयोग, दूसरों की सहायता आदि करने की शिक्षा दी जा सकती है। बालकों के लिए अच्छा वातावरण भी अनिवार्य है। साथ ही बालकों को आत्मनिर्भर बनाने में भी अध्यापक सहयोग कर सकते हैं।
(5) बालक प्रारंभ से ही जिज्ञासु होता है। हर समय प्रश्न करता है। ऐसे में अध्यापक का दायित्व है कि बालक की जिज्ञासा शांत करें जिससे उसमें और अधिक चिंतन, तर्क एवं निर्णय लेने की क्षमता का विकास हो सकेगा।
(6) संवेगात्मक विकास की दृष्टि से ही अतिमहत्वपूर्ण है। इस समय बालक में क्रोध, ईर्ष्या, जिज्ञासा, प्रेम व भय आदि के संवेग उभर रहे होते हैं ऐसे में अध्यापक एवं माता पिता का दायित्व है कि ऐसी परिस्थितियों का निर्माण करें जो बालकों के सकारात्मक संवेगों को बढ़ाये और नकारात्मक संवेगों को नियंत्रित करें। इसके लिए बालकों के साथी समूह एवं उनके वातावरण पर दृष्टि रखनी आवश्यक है।
(7) इस अवस्था में बालक प्राय: आज्ञाकारी होता है वह बड़ों की बात मान लेता है। अतः माता-पिता एवं अध्यापक का दायित्व है कि वे बालकों में उचित संस्कार डालें, उचित संस्कृति का विकास करें। नमस्कार, बड़ों का सम्मान करना, गलत आचरण न करना एवं सत्य बोलने के लिए प्रेरित करना आदि व्यवहार बालकों में शालीनता लाते हैं। इसके लिए यह भी आवश्यक है कि माता-पिता और शिक्षकों में इन गुणों का विकास पहले से हो।
(8) बालकों के सामाजिक सांस्कृतिक विकास के लिए यह भी आवश्यक है कि उनका व्यवहार समाजसम्मत हो। इसके विकास के लिए उनके साथियों के जन्मदिवस पर कार्ड भिजवाना, अध्यापकों के प्रति अपनी श्रद्धा अभिव्यक्त करने के लिए उन्हें भूल भेंट करना, साथियों की सफलता पर बधाई संदेश, उपहार आदि देने की शिक्षा प्रारंभ से ही बालकों में विकसित की जाएगी तो उनके जीवन को यह सुखमय बनाने में योगदान करेगी।
(9) अध्यापक यदि बालकों के विकास से भली भांति परिचित है तो उसे बालक की रुचियों, प्रवृतियों को ध्यान में रखकर शिक्षा देनी होगी। उनकी रुचि के अनुसार उन्हें भ्रमण पर ले जाना, पशु पक्षियों, देश के विभिन्न राष्ट्रध्वजों एवं डाक टिकटों आदि का संचय करने के लिए उन्हें प्रेरित करना आदि क्रियाएं उनमें समय के सदुपयोग एवं रचनात्मक के प्रति अपनी रुचि को बढ़ाने में सहयोग देंगे।
अतः यह कहा जा सकता है कि बालक के विकासों का शैक्षिणिक महत्व है जो उनका आगामी भविष्य सुखमय बना सकता है। इसके लिए माता-पिता और शिक्षक दोनों को ही सजग रहने की आवश्यकता है।
सोरेन्सन ने सच ही कहा है, “समाजिकरण तथा पर्यावरण के समायोजन की प्रक्रिया को प्रोत्साहित करना विद्यालय का सर्वाधिक महत्वपूर्ण कार्य है जिसमें समूह, क्रिया-कलापों से बहुमूल्य अनुभव अर्जित किए जाते हैं तथा प्रभावी बालक-बालिका संबंध विकसित हो सकते हैं।”
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अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs)
संवेग से आप क्या समझते हैं?
उत्तर : संवेग एक प्रकार की सुखद या दु:खद अनुभूति है। इसकी उत्पत्ति मूल प्रवृतियों के आधार पर होती है। वैसे तो संवेग कई रूपों में व्यवहार में दृष्टिगोचर होते हैं।
वाटसन के अनुसार संवेग के कितने प्रकार हैं?
उत्तर : वाटसन ने बालक में 4 प्रकार के संवेग बताएं है। बालक में सर्वप्रथम भय, क्रोध एवं प्रेम के संवेग प्रकट होते हैं जिन्हें उसकी मुस्कुराहट में, चिल्लाहट में, और हंसी में देखा जा सकता है।
मैक्डूगल और गिलफोर्ड ने संवेगों के कितने प्रकार बताए हैं?
उत्तर : मैक्डूगल और गिलफोर्ड ने 14 प्रकार के संवेग बताए हैं – भय, क्रोध, घृणा, करूणा, आश्चर्य, आत्महिनता, एकाकीपन, कामुकता, भूख, अधिकार भावना, कृतिभाव एवं आमोद।
मनोवैज्ञानिकों ने ‘ज्ञान के प्रत्यक्ष द्वार’ (Gateway of knowledge) किसे कहा है?
उत्तर : मनोवैज्ञानिकों ने पाँचों ज्ञानेंद्रियों को ‘ज्ञान के प्रत्यक्ष द्वार’ (Gateway of knowledge) कहा है।