इस आर्टिकल में बहुलवाद क्या है, बहुलवाद की प्रमुख विशेषताएं/मान्यताएं, बहुलवाद की आलोचना के बारे में विस्तार से चर्चा की गई है।
बहुलवाद क्या है
साधारण भाषा में एक के स्थान पर अनेक की प्रतिष्ठा ही बहुलवाद है। इस प्रकार राजनीतिक बहुलवाद वह मत और सिद्धांत है जिसके अनुसार समाज में एक संप्रभुता संपन्न सत्ताधारी राज्य के स्थान पर अपने अपने क्षेत्र में स्वतंत्र व राज्य के समकक्ष अनेक समुदायों के अस्तित्व का प्रतिपादन किया जाता है।
येे समुदाय राज्य के अधीन न होकर उसके समकक्ष होने चाहिए और इस प्रकार समाज का संगठन प्रभुता की दृष्टि से एकात्मक न होकर संघात्मक होना चाहिए।
अन्य विचारधाराओं की भांति बहुलवाद की भी कुछ मौलिक विशेषताएं या सिद्धांत हैं जिनका उल्लेख निम्न प्रकार से किया जाता है :
बहुलवाद की प्रमुख विशेषताएं/मान्यताएं
(1) राज्य केवल एक समुदाय है
आदर्शवादियों की भांति बहुलवाद राज्य की सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान तथा नैतिक संस्था के रूप में स्वीकार नहीं करते उनके अनुमान से तो समाज की वर्तमान स्थिति और रचना के आधार पर राज्य अन्य समुदायों की भाँति ही एक समुदाय के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।
मानवीय जीवन की आवश्यकताएं बहुमुखी होती है और राज्य मनुष्य की समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर सकता। इसी के कारण राज्य के अतिरिक्त अन्य समुदायों का भी उपयोग अस्तित्व है।
राज्य का कार्य मुख्य जीवन के राजनीतिक पहलू से संबंधित है और बहुलवादियों के अनुसार उसे अपने ही क्षेत्र तक सीमित रहना चाहिए, जिससे अन्य समुदाय स्वतंत्र रूप से व्यक्ति के जीवन के सभी पहलुओं का यथेष्ट विकास कर सके।
इस प्रकार बहुलवाद इस बात का प्रतिपादन करता है कि अन्य समुदाय राज्य के ही समकक्ष है और राज्य के समान ही येे समुदाय भी अपने क्षेत्रों में पूर्ण शक्तिशाली होने चाहिए।
लास्की के शब्दों में, “समुदायों के अनेक प्रकारों में से राज्य भी एक है और अन्य समुदायों की तुलना में वह व्यक्ति की भक्ति का उत्तराधिकारी नहीं है।”
मेटलैंड के अनुसार, “राज्य भी इन्हीं समुदायों में से एक है।”
(2) बहुलवादी राज्य और समाज में अंतर करते हैं
आदर्शवादियों की भांति बहुलवादी राज्य और समाज को एक नहीं मानते हैं वरन उन्हें विभिन्न इकाइयों के रूप में स्वीकार करते हैं। बहुलवादियों के अनुसार फासीवादी विचारको का यह कथन गलत है कि, “सभी कुछ राज्य के अंतर्गत है और राज्य के बाहर तथा राज्य के विरुद्ध कुछ नहीं है।”
बहुलवाद राज्य को अन्य समुदायों के समान ही एक समुदाय मानता है और समाज को राज्य की तुलना में बहुत अधिक व्यापक संगठन बताता है। राज्य समाज का एक ऐसा अंग मात्र है जो उद्देश्य और कार्य क्षेत्र की दृष्टि से समाज का सहभागी नहीं हो सकता।
(3) बहुलवादी नियंत्रित राजसत्ता में विश्वास करते हैं
बहुलवाद ऑस्टिन, आदि के असीमित संप्रभुता के सिद्धांत के विरुद्ध एक प्रतिक्रिया है। यह असीमित संप्रभुता का खंडन करता है और आंतरिक बाह्य दोनों ही क्षेत्रों में संप्रभुता को सीमित मानता है।
आन्तरिक क्षेत्र में राज्य की शक्ति स्वयं अपनी प्रकृति तथा नागरिकों एवं समुदाय के अधिकारों से सीमित होती है तथा बाहरी क्षेत्र में राज्य की शक्ति अन्तर्राष्ट्रीय कानून तथा अन्य राष्ट्रों के अधिकारों से सीमित है।
इस प्रकार बहुलवाद आंतरिक और बाहरी दोनों ही क्षेत्रों में राज्य की निरंकुश शक्ति का विरोधी है।
(4) बहुलवाद के अनुसार कानून राज्य से स्वतंत्र और उच्च है
बहुलवादी संप्रभुता के परंपरागत प्रतिपादकों के विपरीत कानून को राज्य से स्वतंत्र और उच्च मानते हैं। इस संबंध में फ्रांसीसी विचारक डिग्विट (Dugvit) और डच विचारक क्रैब के विचार उल्लेखनीय है।
डिग्विट के अनुसार, विधि राजनीतिक संगठन से स्वतंत्र और उससे श्रेष्ठ और पूर्वकालिक होती है। विधि के बिना सामाजिक एकता या संगठन या मनुष्यों का एक दूसरे पर निर्भर करना संभव नहीं है। राज्य का व्यक्तित्व एक कोरी कल्पना मात्र है। विधि राज्य को सीमित करती है, राज्य विधि को सीमित नहीं करता। क्रैब ने भी इसी प्रकार के विचार व्यक्त किए हैं।
(5) बहुलवाद विकेंद्रीकरण में विश्वास करता है
बहुलवाद आदर्शवादी दर्शन की भांति केंद्रित राज्य में विश्वास नहीं करता है वरन यह विकेंद्रीकरण को ही राज्य की वास्तविक उपयोगिता का आधार मानता है।
बहुलवाद के अनुसार स्थानीय समस्याएं भी कम महत्वपूर्ण नहीं है और इन स्थानीय समस्याओं का समाधान शक्ति के केंद्रीकरण की पद्धति से नहीं किया जा सकता है।
बहुलवादियों के विचार से राज्य को चाहिए कि वह अपनी केंद्रीय सत्ता को व्यावसायिक प्रतिनिधि की प्रणाली के आधार पर विकेंद्रित करके अन्य समुदायों में विभाजित कर दे और इस प्रकार एक संघात्मक सामाजिक संगठन की स्थापना की जाए।
इस प्रकार का संघात्मक सामाजिक संगठन ही मानव जीवन की बहिर्मुखी आवश्यकताओं को पूरा कर सकता है।
(6) बहुलवाद राज्य के अस्तित्व का विरोधी नहीं है
बहुलवादी राज्य की निरंकुश सत्ता का तो खण्डन करते हैं किंतु अराजकतावाद या साम्यवाद की भांति वे उसको समूल नष्ट करने के पक्ष में नहीं हैं। राज्य का अंत करने के स्थान पर वे राज्य की शक्तियों को सीमित करना चाहते हैं।
बहुलवादियों के अनुसार संप्रभुता का अद्वैतवादी सिद्धांत ‘कोरी मूर्खता’ के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। एक बहुलवादी समाज में राज्य का स्वरूप तथा महत्व वैसा ही होगा, जैसा कि अन्य संघों तथा संस्थाओं का।
बहुलवादी अन्य संघों की अपेक्षा राज्य को प्राथमिकता देने के लिए तो तैयार है, क्योंकि राज्य के द्वारा संघों के पारस्परिक विवादों को सुलझाने के लिए मध्यस्थ के रूप में कार्य किया जाएगा। किंतु वह राज्य को उस उग्र तथा निरंकुश रूप में स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है जिसका प्रतिपादन एकत्ववादी विचारको (Monistic Thinkers) के द्वारा किया गया है।
(7) बहुलवाद एक जनतंत्रात्मक विचारधारा है
बहुलवाद राज्य के वर्तमान रूप का विरोधी होने पर जनतंत्रात्मक प्रणाली का विरोधी नहीं है। बहुलवाद अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए कभी भी हिंसात्मक प्रणाली का प्रयोग स्वीकार नहीं करता है। आरम्भ से लेकर अंत तक उसका विश्वास व्यवसायिक प्रतिनिधित्व तथा गुप्त मतदान में है।
वास्तव में बहुलवाद का उद्देश्य तो सर्वाधिकारवादी राज्य के स्थान पर एक ऐसे जनतंत्रात्मक राज्य की स्थापना करना है जिसमें शासन व्यवस्था का संगठन नीचे से ऊपर की ओर हो। प्रभुसत्ता के अन्य संघों में समान वितरण को वे जनतंत्रात्मक प्रणाली का प्रतीक मानते हैं।
(9) बहुलवाद व्यवसायिक प्रतिनिधित्व में विश्वास करता है
बहुलवादी विचारक GDH कोल प्रजातंत्र में व्यवसायिक प्रतिनिधित्व के सिद्धांत का विशेष समर्थक है। बहुलवादी प्रादेशिक प्रतिनिधित्व को अनुचित और दोषपूर्ण मानते हैं क्योंकि क्षेत्र के आधार पर चुने गए व्यक्ति वास्तविक रूप से प्रतिनिधित्व नहीं कर सकते हैं। ऐसी स्थिति में प्रतिनिधित्व की वही पद्धति उचित कही जा सकती है जिसका आधार व्यवसाय हो।
एक कृषक के हित का प्रतिनिधित्व उसके पास रहने वाला वकील अच्छे प्रकार से नहीं कर सकता जितना कि दूर स्थित क्षेत्र का निवासी एक कृषक जो उसकी कठिनाइयों को समझता है।
इसी कारण बहुलवादियों के अनुसार चुनाव क्षेत्र व्यवसाय के आधार पर ही निश्चित किए जाने चाहिए। इन सबके अतिरिक्त बहुलवाद व्यक्तिवादी विचारधारा से प्रभावित है और वह सामान्य इच्छा के सिद्धांत में विश्वास नहीं करता है।
बहुलवाद की आलोचना
आलोचकों द्वारा बहुलवाद की कई दृष्टिकोण से आलोचना की गई है जो निम्न है :
(1) बहुलवाद का तार्किक निष्कर्ष अराजकता है
बहुलवाद के विरुद्ध आलोचना का सबसे प्रमुख आधार यह है कि बोल बहुलवादी विचारधारा को स्वीकार करने का संभावित परिणाम अराजकता की स्थिति होगा।
यदि प्रत्येक समुदाय को राज्य के समान मान लिया जाए और उन्हें संप्रभुता का आनुपातिक अधिकार भी समर्पित कर दिया जाए तो समाज में कानून विहीन स्थिति उत्पन्न हो जाएगी। बहुलवादी विचारक भी इस तथ्य से परिचित है।
इसी कारण संप्रभुता समुदायों में विभाजन करने के बाद भी बहुलवाद राज्य को समाज के विभिन्न समुदायों में समन्वय और सामंजस्य स्थापित करने की शक्ति प्रदान करता है।
किंतु राज्य के द्वारा उस समय इस प्रकार का कार्य नहीं किया जा सकता जब तक कि उसे वैधानिक दृष्टि से सर्वोच्च स्थिति प्राप्त ना हो।
बहुलवादी इस तथ्य को भुला देते हैं की संप्रभुता का अनेक समुदायों में विभाजन उसे नष्ट कर देगा। विभिन्न समुदायों में समन्वय और संतुलन स्थापित करने का कार्य राज्य कुछ विशेष परिस्थितियों के अंतर्गत ही कर सकता है जिन्हें स्वीकार करने के लिए बहुलवादी तैयार नहीं है।
यदि राज्य को विभिन्न समुदायों में संतुलन और सामंजस्य स्थापित करना हो तो उसे संप्रभुता प्रदान करना आवश्यक हो जाता है और यदि बहुलवादी विचारधारा के अनुसार संप्रभुता का विभाजन कर दिया जाए, तो उसका परिणाम अराजकता की स्थिति होगा।
(2) सभी समुदाय समान स्तर के नहीं हैं
बहुलवादी विचारधारा के विरुद्ध एक महत्वपूर्ण तर्क यह है कि इस विचारधारा में समाज के सभी समुदायों को समान स्तर का मान लिया गया है। प्रत्येक समुदाय को राज्य के समान मान लेना बहुलवादियों की एक भारी भूल है। वास्तव में राज्य संस्था के अपने विशेष कार्यों के कारण उसकी स्थिति अन्य सभी समुदायों से भिन्न और विशेष होती है।
(3) बहुलवाद प्रभुत्व के काल्पनिक अद्वैतवादी शत्रु पर आक्रमण करता है
बहुलवाद की आलोचना का एक आधार यह भी है कि बहुलवाद जिस निरंकुश प्रभुसत्ता पर आक्रमण करता है उसका प्रतिपादन हीगल को छोड़कर राज्य सत्ता के अन्य किसी भी समर्थक द्वारा नहीं किया गया है।
बोंदा, रूसो, ऑस्टिन आदि सभी विचारक राज्य की संप्रभुता पर प्राकृतिक, नैतिक या व्यवहारिक कुछ ना कुछ नियंत्रण अवश्य ही स्वीकार करते हैं।
(4) बहुलवाद अंतर्विरोध से भरा है
बहुलवाद के विरुद्ध एक गंभीर बात यह है कि बहुलवादी विचारधारा अंतर्विरोध से भरी पड़ी है। बहुलवादी सैद्धांतिक रूप से तो राज्य की शक्तियों को कम करके उसे अन्य समुदायों के साथ समता प्रदान करते हैं, किंतु जब वह व्यवहार पर आते हैं तो यह स्वीकार करते हैं कि किसी एक संस्था को संप्रभु बनाए बिना राजनीतिक समाज की कल्पना नहीं की जा सकती है।
इस प्रकार वे परोक्ष रूप में राजकीय संप्रभुता को स्वीकार लेते हैं, यह बात सभी बहुलवादी विचारको में देखी जा सकती है। गिर्यक, बार्कर, लास्की आदि विचारक इस बात को स्वीकार करते हैं कि समूहों का संगठन राज्य द्वारा ही निर्धारित होगा। अन्य कुछ बहुलवादी लेखक समुदायों पर राज्य की रचनात्मक शक्ति को भी स्वीकार करते हैं।
इस प्रकार बहुलवादी विचारधारा अंतर्विरोध से पूर्ण और बहुलवादियों की यह कहकर आलोचना की जाती है कि “वे संप्रभुता के सामने के द्वार से बाहर निकाल कर पीछे के द्वार से वापस ले आते हैं।”
(5) बहुलवादी व्यवस्था में व्यक्ति स्वतंत्र नहीं होगा
बहुलवादियों की यह भ्रांति है कि अन्य समुदायों पर से राज्य का नियंत्रण हटा लेने पर व्यक्ति को अपने व्यक्तित्व के विकास हेतु स्वतंत्रता का वातावरण उपलब्ध होगा, वस्तुतः ऐसी बात नहीं है।
जो लोग समुदायों की स्वतंत्रता के नाम पर राज्य के नियंत्रण का विरोध करते हैं वे अपने हाथ में सत्ता आने पर स्वतंत्रता के नाम पर राज्य के नियंत्रण का विरोध करते हैं। वे अपने हाथ में सत्ता आने पर व्यक्ति के अधिकारों का हनन करने में राज्य से भी आगे बढ़ सकते हैं।
मध्य युग में चर्च ने अपने से भिन्न मत रखने वाले व्यक्तियों का भीषण दमन किया था, और ब्रेनी तथा गैलीलियो को अपने ही देशवासियों के हाथों भीषण यातनाएं सहन करनी पड़ी थी। कई परिस्थितियों में इन समुदायों का अपने सदस्यों पर नियंत्रण वर्तमान राज्य की अपेक्षा अधिक कठोर तथा अत्याचार पूर्ण हो सकता है।
इस संबंध में इलियट (Elliott) द्वारा ‘राजनीति में व्यवहारिक विप्लव'(Pragmatic Revolt in Politicas) में व्यक्त किया गया दृष्टिकोण विचारणीय है। उन्होंने कहा है कि बहुलवादी समाज में राज्य रूपी दानव का स्थान समुदाय रूपी दानव ले लेंगे।
(6) राज्य संघों का संघ नहीं हो सकता
आलोचकों द्वारा लिंडसे, बार्कर और अन्य बहुलवादियों के इस कथन की कटु आलोचना की गई है कि राज्य समुदायों का एक समुदाय है। राज्य और अन्य समुदायों की स्थिति में आधारभूत अंतर है।
जबकि अन्य समुदायों का संबंध मनुष्य के किसी विशेष हित के साथ होता है, राज्य का संबंध उसके सर्वमान्य या व्यापक हितों के साथ होता है। इसी कारण राज्य के अतिरिक्त अन्य कोई समुदाय मनुष्य के पूर्ण व्यक्तित्व का प्रतीक होने का दावा नहीं कर सकता।
अतः निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि संप्रभुता राज्य के विरुद्ध एक सामयिक प्रतिक्रिया होते हुए भी बहुलवादी विचारधारा को स्वीकार नहीं किया जा सकता।
मेरियम और बार्न्स (Merriam and Barnes) ने अपनी पुस्तक ‘History of Political Thought in Recent Times’ में लिखा है कि, “बहुलवादियों के विरोध के बावजूद न तो राज्य की संप्रभुता के सिद्धांत का त्याग किया गया है और ना ही इस का त्याग किया जा सकता है।”
वास्तव में बहुलवादी आलोचना राज्य के समन्वयकारी रूप की आलोचना होने की अपेक्षा राज्य के वर्तमान सामाजिक ढांचे की आलोचना अधिक है।
ऐसी स्थिति में जॉर्ज सेबाइन के इन शब्दों का प्रयोग ही उचित है कि “मैं यथासंभव एकत्ववादी होने का अधिकार सुरक्षित रखता हूं किंतु जहां आवश्यक हो बहुलवादी बनने को तैयार हूँँ।”
“I reserve the right to be a monist when I can and a pluralist when I must.” – George Sebine.
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अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs)
बहुलवाद से आप क्या समझते हैं?
उत्तर : साधारण भाषा में एक के स्थान पर अनेक की प्रतिष्ठा ही बहुलवाद है। इस प्रकार राजनीतिक बहुलवाद वह मत और सिद्धांत है जिसके अनुसार समाज में एक संप्रभुता संपन्न सत्ताधारी राज्य के स्थान पर अपने अपने क्षेत्र में स्वतंत्र व राज्य के समकक्ष अनेक समुदायों के अस्तित्व का प्रतिपादन किया जाता है। येे समुदाय राज्य के अधीन न होकर उसके समकक्ष होने चाहिए और इस प्रकार समाज का संगठन प्रभुता की दृष्टि से एकात्मक न होकर संघात्मक होना चाहिए।
“मैं यथासंभव एकत्ववादी होने का अधिकार सुरक्षित रखता हूं किंतु जहां आवश्यक हो बहुलवादी बनने को तैयार हूँँ।” यह कथन किसका है?
उत्तर : जॉर्ज सेबाइन ने कहा है कि “मैं यथासंभव एकत्ववादी होने का अधिकार सुरक्षित रखता हूं किंतु जहां आवश्यक हो बहुलवादी बनने को तैयार हूँँ।”