इस आर्टिकल में नागरिकता की अवधारणा, नागरिकता के विभिन्न अर्थ, नागरिकता की विशेषताएं, नागरिकता के सिद्धांत, धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा, धर्मनिरपेक्षता का यूरोपियन-अमेरिकी मॉडल, कमाल अतातुर्क की धर्मनिरपेक्षता आदि के बारे में चर्चा की गई है।
नागरिकता की अवधारणा क्या है
नागरिकता एक राजनीतिक समुदाय की पूर्ण और समान सदस्यता है। मनपसंद राष्ट्र की पूर्ण सदस्यता शरणार्थियों के लिए ऐसा लक्ष्य है जिसके लिए वे संघर्ष करने को तैयार हैं। जैसे : फिलिस्तीनी शरणार्थी।
अधिकारों और प्रतिष्ठा की समानता नागरिकता के बुनियादी अधिकारों में से एक है।
नागरिकता के विभिन्न अर्थ
- राज्यसता और उसके सदस्यों के बीच संबंधों का निरूपण।
- नागरिकों के आपसी संबंध और समाज के प्रति दायित्व।
- औपचारिक रूप से राज्य और व्यक्ति के बीच संबंध ही नागरिकता है।
- वैश्विक स्थिति, अर्थव्यवस्था और समाज में बदलाव नागरिकता के अर्थ और अधिकारों की नई व्याख्या की मांग करते हैं।
- समान नागरिकता की अवधारणा का अर्थ यही होगा कि सभी नागरिकों को समान अधिकार और सुरक्षा प्रदान करना सरकारी नीतियों का मार्गदर्शक सिद्धांत हो।
- नागरिकता का आश्य – व्यक्ति किसी राजनीतिक समुदाय का पूर्णत: उत्तरदायी सदस्य होता है और सार्वजनिक जीवन में भाग लेता है।
- इस प्रकार औपचारिक रूप से राज्य और व्यक्ति के बीच संबंध का नाम ही नागरिकता है।
मार्शल थ्योरी ऑफ़ सिटिजनशिप
नागरिकता का समानता और अधिकारों से घनिष्ठ संबंध है इस संबंध का सर्वसम्मत सूत्रीकरण समाजशास्त्रीय टी.एच. मार्शल ने किया है।
मार्शल ने नागरिकता को “किसी समुदाय के पूर्ण सदस्यों को प्रदत प्रतिष्ठा” के रूप में परिभाषित किया है। टी एच मार्शल द्वारा नागरिकता पर लिखित पुस्तक – Citizenship and Social Class है।
नागरिकता मार्शल द्वारा प्रदत्त कुंजी धारणा में मूल संकल्पना समानता की है। इसमें दो प्रमुख बातें हैं :
- प्रदत अधिकारों और कर्तव्यों की गुणवत्ता बढ़े।
- उन लोगों की संख्या बढ़े, जिन्हें वे दिए गए हैं।
मार्शल नागरिकता में तीन प्रकार के अधिकारों को शामिल करता है – नागरिक , राजनीतिक और सामाजिक। मार्शल ने सामाजिक वर्ग को ‘असमानता की व्यवस्था’ के रूप में चिन्हित किया है।
इंग्लैंड में तात्त्विक नागरिकता का विकास (टी एच मार्शल का विश्लेषण)
18 वीं शताब्दी में :
- नागरिकता का रूप – नागरिक नागरिकता।
- अधिकारों का स्वरूप – नागरिक अधिकार।
- प्रयुक्त संस्था – न्यायालय।
19 वीं शताब्दी में :
- नागरिकता का रूप – राजनीतिक नागरिकता।
- अधिकारों का स्वरूप – राजनीतिक अधिकार।
- प्रयुक्त संस्था – प्रतिनिधि संस्थाएं
20 वीं शताब्दी में :
- नागरिकता का रूप – सामाजिक नागरिकता।
- अधिकारों का स्वरूप – सामाजिक अधिकार।
- प्रयुक्त संस्था – सामाजिक सेवाएं और विद्यालय।
राष्ट्र राज्य की संप्रभुता और नागरिकों के लोकतांत्रिक अधिकारों का दावा सर्वप्रथम 1789 में फ्रांस के क्रांतिकारियों ने किया था। राष्ट्र राज्य एक आधुनिक अवधारणा है। राष्ट्र राज्य (nation state) – फ्रांस।
राष्ट्रीय पहचान को एक झंडा, एक राष्ट्र गान, एक राष्ट्रभाषा या कुछ खास उत्सव के आयोजन जैसे प्रतीकों में व्यक्त किया जा सकता है। अधिकतर आधुनिक राज्य में विभिन्न धर्मों, भाषा और सांस्कृतिक परंपराओं के लोगों को सम्मिलित करते हैं।
फ्रांस ऐसा देश है जो धर्मनिरपेक्ष और समावेशी होने का दावा करता है। वह यूरोपीय मूल के लोगों को ही नहीं, बल्कि उत्तर अफ्रीका जैसे अन्य इलाकों से आए नागरिकों को भी अपने में शामिल करता है। संस्कृति और भाषा राष्ट्रीय पहचान की महत्वपूर्ण विशेषता है।
इजरायल और जर्मनी में नागरिकता प्रदान करने में धर्म या जाति मूल तत्वों को वरीयता दी जाती है।
नागरिकता से संबंधित प्रावधानों का उल्लेख भारतीय संविधान के दूसरे भाग और संसद द्वारा बाद में पारित कानूनों में हुआ है। संविधान में नागरिकता की लोकतांत्रिक और समावेशी धारणा को अपनाया है।
भारत में जन्म, वंश परंपरा, पंजीकरण देशीकरण या किसी भी क्षेत्र के राज क्षेत्र में शामिल होने से नागरिकता हासिल की जा सकती है।
डेविड हेल्ड, “नागरिकता उस अधिकार का नाम है, जिसकी वजह से सभी लोगों को समान अधिकार और कर्तव्य प्राप्त होते हैं। सभी लोग समान स्वतंत्रताओं, एक जैसे न्यायोचित बंधनों और एक जैसे दायित्वों का उपयोग करता है।”
नागरिकता की विशेषताएं
- कोई भी व्यक्ति किसी राज्य की सदस्यता हासिल करने के बाद ही नागरिकता को प्राप्त करता है और अन्य अधिकारों का उपयोग कर सकता है।
- नागरिकता की हैसियत से ही किसी राज्य में स्थायी निवास।
- नागरिकता प्राप्त करने के बाद ही कोई व्यक्ति राज्य के समक्ष अपने अधिकारों की मांग कर सकता है।
- नागरिकता से ही व्यक्तियों को कर्तव्य पालन का उत्तरदायित्व तय होता है।
- नागरिकता प्राप्त व्यक्ति ही सरकार के कार्यों का विरोध कर सकता है। सार्वजनिक अहित के कार्यों का विरोध कर सकता है।
नागरिकता के सिद्धांत
- नागरिकता का उदारवादी – टी एच मार्शल
- नागरिकता का स्वेच्छातंत्रवादी सिद्धांत – रॉबर्ट नॉजिक
- नागरिकता का मार्क्सवादी सिद्धांत – एंथनी गिडेंस
- नागरिकता का बहुलवादी सिद्धांत – डेविड हेल्ड
अरस्तु के अनुसार नागरिकता, “नागरिक वह है जो न्याय प्रशासन एवं राज्य के कानून निर्माण में भाग लेता है।”
किसी व्यक्ति द्वारा विदेशी बच्चों को गोद लेने पर उस बच्चे को अपने धर्म पिता या धर्म माता के देश की नागरिकता स्वत: मिल जाती है। ऐसा नियम लगभग सभी देशों में है।
दक्षिणी अमेरिका के कुछ देशों जैसे – पेरू और मेक्सिको के कानून के अनुसार कोई भी व्यक्ति वहां की कुछ संपत्ति खरीदने से वहां का नागरिक बन जाता है।
धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा
सिद्धांत के रूप में धर्मनिरपेक्षता के दो रूप हैं १. अंतर धार्मिक वर्चस्व का विरोध २. अंत: धार्मिक वर्चस्व का विरोध।
पुरोहित व्यवस्था द्वारा प्रत्यक्ष रुप से शासित राष्ट्र धर्म तांत्रिक राष्ट्र कहलाता है। ये राष्ट्र अपनी श्रेणीबद्धता, उत्पीड़न और दूसरे धार्मिक समूह के सदस्यों को धार्मिक स्वतंत्रता देने के लिए कुख्यात रहे हैं। जैसे : मध्यकालीन यूरोप में पोप की राज्यसता, तालिबानी राज्यसता।
16 वीं शताब्दी में इंग्लैंड का राज्य पुरोहित वर्ग द्वारा संचालित होते हुए भी स्पष्ट रूप से आंग्ल चर्च और इसके सदस्यों का पक्ष पोषण करता था। सुन्नी इस्लाम पाकिस्तान का अधिकारिक राज्य धर्म है। ऐसे शासन तंत्रों में आंतरिक विरोध या धार्मिक समानता की गुंजाइश नहीं होती है।
धर्मनिरपेक्षता धार्मिक स्वतंत्रता और समानता को बढ़ावा देती है। किसी राष्ट्र को धार्मिक समूह के वर्चस्व को रोकने के लिए राज्यसता किसी खास धर्म के प्रमुखों द्वारा संचालित नहीं होनी चाहिए। धार्मिक भेदभाव रोकने के लिए जागरूकता, शिक्षा, समझदारी और पारस्परिक सहायता आवश्यक है।
धर्मनिरपेक्षता का यूरोपियन-अमेरिकी मॉडल
- धर्म और राज्यसता के संबंध विच्छेद को पारस्परिक निषेध के रूप में।
- राज्यसता धर्म के मामले में हस्तक्षेप नहीं करेगी।
- धर्म राज्यसत्ता के मामले में दखल नहीं देगा।
- राज्यसत्ता की कोई नीति पूर्णतया धार्मिक तर्क के आधार पर निर्मित नहीं।
- धार्मिक वर्गीकरण सार्वजनिक नीति की बुनियाद नहीं बन सकता।
- राज्य किसी धार्मिक संस्था को मदद नहीं देगा।
- धर्म एक निजी मामला है, वह राज्य सत्ता की नीति या कानून का विषय नहीं हो सकता।
- यह संकल्पना स्वतंत्रता और समानता की व्यक्तिवादी ढंग से व्याख्या करती है।
कमाल अतातुर्क की धर्मनिरपेक्षता
बीसवीं सदी के प्रथमार्घ मैं तुर्की में धर्मनिरपेक्षता धर्म से सिद्धांतिक दूरी बनाने की बजाय धर्म में सक्रिय हस्तक्षेप के जरिए उसके दमन की हिमायत करती थी। अतातुर्क ने इसे पेश की और अमल भी किया।
उन्होंने खुद अपना नाम मुस्तफा कमाल पाशा से बदलकर कमाल अतातुर्क (तुर्कों का पिता) कर लिया। हैट कानून के जरिए मुसलमानों द्वारा पहने जाने वाली फ़ेज टोपी को प्रतिबंधित कर दिया गया। स्त्रियों- पुरुषों के लिए पश्चिमी पोशाकों को बढ़ावा दिया गया।
तुर्की पंचांग की जगह पश्चिमी ग्रेगोरियन पंचांग लाया गया।1928 में नई तुर्की वर्ण माला को संशोधित लैटिन रूप दिया।
धर्मनिरपेक्षता का भारतीय मॉडल
- राज्य और धर्म के बीच संबंध विच्छेद के साथ-साथ अंतर धार्मिक समानता पर बल।
- श्रेणीबद्धता को हटाने के लिए अंतर सामुदायिक समानता।
- अंतर धार्मिक और अंत:धार्मिक वर्चस्व पर एक साथ ध्यान केंद्रित।
- धार्मिक आजादी के साथ-साथ अल्पसंख्यक समुदायों की धार्मिक आजादी और अल्पसंख्यकों को अपनी संस्कृति और शैक्षिक संस्थाएं रखने का अधिकार।
- राज्य समर्थित धार्मिक सुधार जैसे – अस्पृश्यता पर प्रतिबंध, बाल विवाह उन्मूलन।
- राज्य का न कोई धर्म, न धर्म तांत्रिक।
- धार्मिक समानता हेतु जरूरत पड़ने पर संबंध और विच्छेद।
- धार्मिक अत्याचार के विरोध हेतु निषेधात्मक संबंध जैसे : अस्पृश्यता पर प्रतिबंध। सकारात्मक संबंध जैसे : धार्मिक संस्थाओं को राज्य की ओर से सहायता।
धर्मनिरपेक्षता के बारे में नेहरू के विचार
नेहरू भारतीय धर्मनिरपेक्षता के दार्शनिक थे। वे स्वयं किसी धर्म का अनुसरण नहीं करते थे। वे ऐसा धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र चाहते थे जो सभी धर्मों की हिफाजत करें, अन्य धर्मों की कीमत पर किसी एक धर्म की तरफदारी न करें और स्वयं का राजधर्म न हो।
नेहरू के अनुसार सरकार समाज में सुधार हेतु हस्तक्षेप कर सकती है। राज्य और धर्म के बीच पूर्ण संबंध विच्छेद के पक्ष में नहीं थे। तमाम किस्म की संप्रदायिकता का पूर्ण विरोध करते थे। बहुसंख्यक समुदाय की संप्रदायिकता की आलोचना खास तौर पर कठोरता बरतते थे। क्योंकि इससे राष्ट्रीय एकता पर खतरा उत्पन्न होता था।
नेहरू के अनुसार धर्मनिरपेक्षता, “सभी धर्मों को राज्य द्वारा समान संरक्षण।”
भारतीय धर्मनिरपेक्षता की आलोचनाएं
- धर्म विरोधी
- पश्चिम से आयातित
- अल्पसंख्यकवाद
- उत्पीड़नकारी एवं धार्मिक स्वतंत्रता में हस्तक्षेप
- वोट बैंक की राजनीति
- एक असंभव परियोजना
यह आलोचना कतिपय लोगों द्वारा की गई है जो उनकी दृष्टि में है, परंतु सही अर्थों में यह आलोचना सही नहीं है।
भारतीय संविधान और धर्म
भारतीय संविधान की उद्देशिका में 42वां संविधान संशोधन द्वारा 1976 में शामिल पंथनिरपेक्षता शब्द को अंग्रेजी के सेकुलर शब्द के हिंदी पर्याय के रूप में प्रयुक्त किया गया है। संविधान द्वारा भारत को एक पंथनिरपेक्ष राज्य घोषित किया है न की धर्मनिरपेक्ष राज्य । भारतीय संविधान में राज्य को धर्म के प्रति नहीं वरन पंथ के प्रति निरपेक्ष रहने का निर्देश दिया है।
धर्म और पंथ – धर्म अपने व्यापक अर्थ में सभी शास्वत नैतिक मूल्यों को समाहित करता है, जबकि पंथ व्यक्तिगत आस्था, विश्वास, अंतःकरण और उपासना की पद्धति तक ही सीमित है। पंथ, धर्म का अंग हो सकता है। आम बोलचाल में पंथ को ही धर्म के नाम से संबोधित करते हैं।
संविधान के संदर्भ में जहां कहीं धर्म या धर्म निरपेक्षता का उल्लेख है वहां उसका आशय पंथ या पंथ निरपेक्षता से ही है। संविधान में पंथनिरपेक्षता से संबंधित व्यवस्था अनुच्छेद 25 से 28 तक धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार है। धार्मिक स्वतंत्रता सार्वजनिक व्यवस्था, सदाचार और स्वास्थ्य के उपबंधों के अधीन रहते हुए हैं।
भारतीय संविधान में पंथ निरपेक्षता का अर्थ है राज्य सभी धर्मों को मान्यता देता है, परंतु उनका अपना कोई धर्म नहीं है।
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs)
टी एच मार्शल द्वारा नागरिकता पर लिखित पुस्तक है?
उत्तर : टी एच मार्शल द्वारा नागरिकता पर लिखित पुस्तक – Citizenship and Social Class है।
टी एच मार्शल ने नागरिकता में कौन-कौन से अधिकारों को शामिल करता है?
उत्तर : मार्शल नागरिकता में तीन प्रकार के अधिकारों को शामिल करता है – नागरिक , राजनीतिक और सामाजिक।
“पहले तुम मनुष्य हो उसके बाद किसी देश के नागरिक या अन्य कुछ” यह कथन किसका है?
उत्तर : “पहले तुम मनुष्य हो उसके बाद किसी देश के नागरिक या अन्य कुछ” यह कथन मेत्सिनी का है।