इस आर्टिकल में सूक्ष्म शिक्षण चक्र क्या है (Micro Teaching Cycle in Hindi), सूक्ष्म शिक्षण के सोपान/पद, सूक्ष्म शिक्षण चक्र की अवधि, सूक्ष्म शिक्षण चक्र आरेख, सूक्ष्म शिक्षण का भारतीय प्रतिमान, सूक्ष्म शिक्षण के गुण और दोष आदि टॉपिक पर चर्चा की गई है।
सूक्ष्म शिक्षण चक्र क्या है
सूक्ष्म शिक्षण चक्र के कार्यक्रम में कुछ पद या चरण निर्धारित किए जाते हैं जिनके अनुकरण के बिना सूक्ष्म शिक्षण (Micro Teaching) का प्रयोग संभव नहीं है।
वास्तव में सूक्ष्म शिक्षण एक ऐसी तकनीक है जिनमें शिक्षण सामग्री, कक्षा का आकार, समय आदि को सीमित करके प्रशिक्षणार्थी शिक्षण कौशलों का अभ्यास करते हैं। इससे उनके शिक्षण में सुधार आता है। वह संगठनात्मक ढांचा अथवा पद जिसको सूक्ष्म शिक्षण का आधार बनाया जाता है निम्नलिखित है :
सूक्ष्म शिक्षण के सोपान/पद
(1) सूक्ष्म शिक्षण का सैद्धांतिक ज्ञान देना (Theoretical Knowledge of Micro Teaching)
यह सूक्ष्म शिक्षण चक्र का प्रथम/पहला चरण या पद है जो छात्राध्यापकों को सैद्धांतिक ज्ञान प्रदान करता है। इसमें सूक्ष्म शिक्षण का अर्थ एवं सम्प्रत्यय, उपयोग, महत्व, सूक्ष्म शिक्षण के लिए आवश्यक परिस्थितियां एवं सूक्ष्म शिक्षण के संगठनात्मक ढांचे का परिचय दिया जाता है जिससे प्रशिक्षणार्थी के समक्ष इस विधा का संपूर्ण चित्र स्पष्ट हो सके जिससे वे इस संप्रत्यय को संपूर्णता के साथ आत्मसात कर सकें।
इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए प्रशिक्षणार्थियों के लिए अभिस्थापन भाषणों की व्यवस्था की जाती है जिससे सूक्ष्म शिक्षण में गुण, सिमाएं आदि स्पष्ट की जाती हैं।
(2) विशिष्ट शिक्षण कौशल को परिभाषित करना एवं चयन करना (Defining and Selection of Particular Teaching Skills)
सूक्ष्म शिक्षण के सैद्धांतिक ज्ञान के पश्चात किसी विशिष्ट कौशल को परिभाषित किया जाता है। इसके लिए पहले कौशलों पर चर्चा की जाती हैं, उन्हें घटकों के रूप में विश्लेषित किया जाता है और किसी विशेष कौशल को शिक्षण व्यवहार के रूप में परिभाषित किया जाता है।
साथ ही शिक्षण व्यवहार में इस कौशल के उपयोग, महत्व तथा उसके घटकों में क्या व कैसे परिवर्तन लाया जा सकता है आदि पर विचार भी किया जाता है।
इसके उपरांत इस सोपान में छात्राध्यापक द्वारा किसी एक शिक्षण कौशल का चयन करने के लिए प्रेरित किया जाता है जिससे सूक्ष्म शिक्षण द्वारा उस कौशल पर अपेक्षित अभ्यास कराया जा सके। चुने हुए शिक्षण कौशल पर आवश्यक सामग्री प्रदान कराई जाती है।
(3) आदर्श पाठ का प्रस्तुतीकरण (Presentation of Model Lesson)
सूक्ष्म शिक्षण के इस चरण में अध्यापक किसी एक अध्यापन कौशल का प्रयोग करते हुए उस पर आदर्श पाठ तैयार करता है और उसे छात्राध्यापकों के समक्ष प्रस्तुत करता है।
आदर्श पाठ की प्रस्तुति देते समय वह उस शिक्षण कौशल से संबंधित सभी शिक्षक व्यवहारों और क्रियाओं का प्रयोग करता है। इसके लिए उस कौशल पर सूक्ष्म पाठ तैयार करके उसकी लिखित योजना छात्राध्यापकों को दे दी जाती है।
चूंकी भारतीय परिस्थितियों में वीडियो टेप जैसे साधन उपलब्ध नहीं है इस कारण पर्यवेक्षक स्वयं एक आदर्श पाठ छात्राध्यापकों के समक्ष प्रस्तुत करता है जिससे उस कौशल का पूर्ण प्रयोग छात्राध्यापकों के समक्ष स्पष्ट हो सके और कौशल के समस्त घटक स्पष्ट हो सकें।
(4) आदर्श पाठ का निरीक्षण एवं समालोचना (Observation and Critical Evaluation of Model Lesson)
कौशल पाठ प्रदर्शन के उपरांत छात्राध्यापक पाठ की समीक्षा करते हैं, उस कौशल के घटकों को समझने का प्रयास करते हैं। आदर्श पाठ के समय छात्राध्यापकों को निरीक्षण प्रपत्र भी दिया जाता है जिसमें विभिन्न कौशल घटकों का उल्लेख होता है। छात्राध्यापक उन प्रपत्रों के आधार पर पाठ की समीक्षा करते हैं। इसके लिए भी उन्हें पूर्व में स्पष्ट किया जाता है।
इस प्रकार छात्राध्यापकों को कौशलों के घटकों को सही रूप में पहचानने में सहायता मिलती है और अध्यापक को भी आवश्यक प्रतिपुष्टि प्राप्त हो जाती है।
(5) सूक्ष्म शिक्षण हेतु पाठ योजना तैयार करना (To Prepare Lesson Plan for Micro Teaching)
अध्यापक द्वारा कौशलों के प्रदर्शन के उपरांत छात्राध्यापक स्वयं शिक्षण कौशलों का अभ्यास करने के उद्देश्य से वास्तविक शिक्षण के लिए किसी एक कौशल पर अपने अध्यापक के निर्देशन में किसी कौशल के प्रदर्शन हेतु पाठ योजना तैयार करते हैं। यह योजना 5 से 10 मिनट तक भी हो सकती है।
(6) सूक्ष्म पाठ का प्रस्तुतीकरण (Presentation of Micro Lesson)
पाठ योजना निर्माण करने के उपरांत छात्राध्यापक अपने साथ के 8 -10 छात्राध्यापकों के समक्ष इस पाठ को प्रस्तुत करता है। छात्राध्यापकों द्वारा पढ़ाए गए पाठ की वीडियो या टेप रिकॉर्डर द्वारा रिकॉर्डिंग की जाती है अथवा प्राध्यापक, पर्यवेक्षक एवं साथी पर्यवेक्षक द्वारा कौशल प्रेक्षण प्रपत्र का अंकन किया जाता है।
प्रशिक्षणार्थी ही जब छात्रों का एवं अवलोकनकर्ता की भूमिका निर्वाह करते हैं तो यह स्थिति अनुरूपी शिक्षण (Simulated Teaching) कहलाती है। पाठ देने की अवधि 5 मिनट की निश्चित की जाती है।
(7) प्रतिपुष्टि प्रदान करना (To Give Feedback)
पाठ देते समय छात्राध्यापक के पाठ का वीडियो रिकॉर्डिंग किया जाता है, और यदि वीडियो टेप की सुविधा नहीं है तो सभी छात्राध्यापक उस पाठ का अवलोकन करते हैं, उस पर परस्पर विचार विमर्श करते हैं और प्रेक्षण बिंदुओं के आधार पर प्रतिपुष्टि देते हैं।
प्रतिपुष्टि सही दी जानी आवश्यक हैं जिससे छात्राध्यापक वांछनीय व्यवहार के संबंध में सही जानकारी प्राप्त कर सके। पाठ की अच्छाई, कमियां सही रूप में बताई जाती है, आवश्यक सुझाव दिए जाते हैं जिससे छात्राध्यापक अपने व्यवहार में वांछित परिवर्तन ला सकें। यह आलोचना काल अथवा प्रतिपुष्टि काल कहलाता है जो 10 मिनट का हो सकता है।
(8) पुनः पाठ योजना, पुनः शिक्षण, पुनः मूल्यांकन (Re-Planning, Re-Teaching and Re-Evaluation)
छात्राध्यापक अपने साथियों और पर्यवेक्षक से प्रतिपुष्टि एवं सुझाव प्राप्त करके पुनः पाठ योजना तैयार करता है इसे पुनः नियोजन काल (Re-Plan Session) कहा जा सकता है।
इसमें पाठ का विषय एवं सोपान पहले वाले ही रहते हैं, इसके लिए 15 मिनट का समय निर्धारित है। पुनः पाठ योजना बनाने के पश्चात छात्राध्यापक उन्हीं छात्राध्यापकों के समूह को पुनः पाठ पढ़ाता है। इसे पुनः शिक्षण काल (Re-Teaching Session) कहा जाता है। इसमें काल 5 मिनट का होता है।
छात्राध्यापक के पुनः पढ़ाने के उपरांत पुनः प्रतिपुष्टि की जाती है जिससे छात्राध्यापक अपने शिक्षण पर पूर्ण अधिकार प्राप्त कर लें, इसके लिए 10 मिनट निर्धारित है।
इस प्रकार सूक्ष्म शिक्षण का चक्र तब तक चलता रहता है जब तक कि छात्राध्यापक शिक्षण कौशल में पूर्ण दक्षता प्राप्त नहीं कर लेता है।
सूक्ष्म शिक्षण चक्र की अवधि
Duration of Micro Teaching Cycle : एलन एवं रोमन ने इस संपूर्ण सूक्ष्म शिक्षण चक्र की अवधी 45 मिनट की मानी है जिसे निम्नलिखित रुप में विभाजित किया जा सकता है :
- शिक्षण काल – 5 मिनट
- प्रतिपुष्टि काल – 10 मिनट
- पुनर्योजना काल – 15 मिनट
- पुनः शिक्षण काल – 5 मिनट
- पुनः प्रतिपुष्टि काल – 10 मिनट
संपूर्ण शिक्षण चक्र को निम्न चित्र द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है :
सूक्ष्म शिक्षण का भारतीय प्रतिमान
Indian Model of Micro Teaching : सूक्ष्म शिक्षण का आरंभ अमेरिका के स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय में वाइट एलेन (White allen) एवं कीथ एचीशन (Keith Achiection) ने सन 1961 में किया था। अमेरिका में शिक्षण सुधार हेतु तथा शिक्षक व्यवहार में परिवर्तन लाने के उद्देश्य से अधिकांश प्रशिक्षण महाविद्यालयों में इसका उपयोग होने लगा।
काफी समय बाद अनुमानतः 1970 में भारत के विभिन्न शिक्षा महाविद्यालयों में इस विचारधारा का प्रचार प्रसार हुआ। मद्रास, चंडीगढ़, कोलकाता के तकनीकी शिक्षक प्रशिक्षण महाविद्यालयों में कार्य करना प्रारंभ हुआ, किंतु वास्तविक रूप में इस विधा पर कार्य करने का श्रेय बड़ौदा विश्वविद्यालय के उच्च शिक्षा संस्थान (CASE) को है।
1970 में इस संस्थान ने सूक्ष्म शिक्षण पर अनुसंधान कार्य प्रारंभ कर दिया था। 1975 में गुजरात और महाराष्ट्र के शिक्षा महाविद्यालयों में इस पर कार्य होना प्रारंभ हो गया था।
तभी राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (NCERT) ने एक नवाचार के रूप में बड़ौदा के उच्च स्तरीय शिक्षा केंद्र के सहयोग से विभिन्न महाविद्यालयों के प्रशिक्षणार्थियों के लिए संगोष्टी के आयोजन प्रारंभ किए और शोध कार्य किए।
तदनन्तर राष्ट्रीय परिषद ने देवी अहिल्या विश्वविद्यालय, इंदौर के शिक्षा विभाग के सहयोग से इस क्षेत्र में सहयोग किया।
इन सभी के प्रयासों के परिणामस्वरूप भारतीय परिस्थितियों में सरलतापूर्वक इसके कार्य का प्रतिमान तैयार किया गया। जंगीरा और सिंह ने 1982 में इस प्रतिमान का विस्तार से वर्णन किया।
सूक्ष्म शिक्षण के गुण और दोष
Merits and Demerits of Micro Teaching : सूक्ष्म शिक्षण की अवधारणा को जानने के पश्चात यह स्पष्ट होता है कि यह विधा छात्राध्यापकों के प्रशिक्षण में अत्यंत सहयोगी है क्योंकि इसके माध्यम से शिक्षण व्यवस्था को सुधारा जा सकता है। इसके निम्नलिखित गुण हैं :
सूक्ष्म शिक्षण के गुण
(1) एक ही शिक्षण कौशल पर ध्यान केंद्रण : सूक्ष्म शिक्षण का सबसे बड़ा गुण यह है कि छात्राध्यापक एक समय में एक ही कौशल पर अपना ध्यान अवस्थित करता है, उसी का अभ्यास करता है और उसमें दक्षता प्राप्त करता है।
( 2) छात्राध्यापकों द्वारा निरीक्षण : सूक्ष्म शिक्षण की प्रक्रिया में छात्राध्यापक के साथी ही छात्र की भूमिका निर्वाहन करते हैं इस कारण यह समय, स्थान और श्रम की दृष्टि से मितव्ययी विधा है, अध्यापन प्रक्रिया शिक्षा महाविद्यालय में ही संभव कराई जा सकती है।
(3) तात्कालिक प्रतिपुष्टि : सूक्ष्म पाठ की समाप्ति पर छात्राध्यापक को तत्काल प्रतिपुष्टि मिल जाती है। यह इसका बहुत बड़ा गुण है। छात्राध्यापक को अपने अध्यापन की अच्छाइयों, बुराइयों का पता लग जाता है इससे वह उनमें अपेक्षित सुधार ला सकता है।
(4) पुनः पाठ नियोजन का अवसर : सूक्ष्म शिक्षण में प्रतिपुष्टि मिल जाने के उपरांत छात्राध्यापकों को अपने पाठ को पुनः नियोजित करने का अवसर प्रदान किया जाता है जिससे वह पुनः शिक्षण करके अपने अध्यापन त्रुटियों का संशोधन कर सकता है और इस शिक्षण के उपरांत भी उसका पुनः मूल्यांकन किया जाता है। इससे छात्राध्यापक को पूर्ण संतुष्टि भी मिलती है।
(5) छोटी-छोटी इकाइयों में प्रस्तुति : सूक्ष्म शिक्षण में पाठ योजना बहुत छोटी-एक कौशल पर आधारित होती है। शिक्षण के लिए विषय वस्तु को छोटे-छोटे पदों या इकाइयों में बांट दिया जाता है, इसमें छात्राध्यापक की शिक्षण की जटिलताओं में कमी होती है और प्रशिक्षण प्रक्रिया को सरल बनाया जा सकता है।
(6) छात्रों की संख्या और शिक्षण अवधि में कमी : सूक्ष्म शिक्षण में 5-10 छात्रों को ही एक समय में पढ़ाया जाता है तथा शिक्षण की अवधि भी सूक्ष्म होती है। इस कारण कम समय में छात्राध्यापक अपने शिक्षण को अपेक्षाकृत सरल विधि श्रेयस्कर बना सकते हैं और शिक्षण की जटिलताओं के लिए तैयार हो जाते हैं।
(7) महाविद्यालय में ही शिक्षण : सूक्ष्म शिक्षण अभ्यास प्राय: शिक्षा महाविद्यालयों में ही छात्राध्यापकों द्वारा कराया जाता है। इससे विद्यालय को ढूंढने, वहां जाने की आवश्यकता नहीं होती और प्रशिक्षण अपने स्तर पर पूर्ण किया जा सकता है।
(8) अनुशासनहीनता की समस्या नहीं : सूक्ष्म शिक्षण में छात्रों की संख्या कम होती है, शिक्षण अवधि कम होती है और विषय वस्तु भी सूक्ष्म होती है। अतः छात्राध्यापक को किसी प्रकार की अनुशासनहीनता का सामना नहीं करना पड़ता। सामान्य परिस्थितियों में शिक्षण कार्य होता है।
(9) शिक्षण परिस्थितियों पर नियंत्रण : सूक्ष्म शिक्षण चूंकी थोड़ी समयावधि की प्रक्रिया है अतः इसमें शिक्षण की परिस्थितियों पर नियंत्रण रखा जा सकता है। निरीक्षण विधिवत् किया जा सकता है और शिक्षक व्यवहारों की भी तुलना की जा सकती है। इस रूप में शिक्षण प्रशिक्षण के क्षेत्र में सूक्ष्म शिक्षण का महत्वपूर्ण योगदान है।
सूक्ष्म शिक्षण के दोष
सूक्ष्म शिक्षण सेवारत एवं सेवा पूर्व दोनों ही प्रकार के छात्राध्यापकों और अध्यापकों के लिए एक उपयोगी विधा है फिर भी इसके कुछ सीमाएं हैं जो निम्न है :
(1) सूक्ष्म शिक्षण में यांत्रिक उपकरणों जैसे वीडियो, टेप रिकॉर्डर आदि की आवश्यकता होती है तभी यह विधा अधिक प्रभावी व सफल हो सकती है किंतु भारतीय परिस्थितियों में इन साधनों का अभाव है। अतः यह तकनीकी उतनी प्रभावपूर्ण नहीं हो पाती।
(2) सूक्ष्म शिक्षण में एक-एक कौशल पर दक्षता प्राप्त करने का प्रयास किया जाता है। संपूर्ण पाठ का अध्यापन कराते समय अनेक जटिलताओं का सामना करना पड़ता है। अतः सूक्ष्म शिक्षण अभ्यास छात्र अध्यापकों ने एक समग्र प्रभावोत्पादकता का निर्माण नहीं करा पाता।
(3) छात्राध्यापक एक-एक कौशल का विकास कर लेते हैं किंतु वास्तविक कक्षागत परिस्थितियों में उनमें सफलता नहीं प्राप्त कर पाते।
(4) सूक्ष्म शिक्षण अनुरूप परिस्थितियों में किया जाता है। जब छात्राध्यापक वास्तविक छात्रों को पढ़ाते हैं तो उनका बौद्धिक स्तर निम्न होने से उन्हें अनेक शिक्षण कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। अतः इसका समुचित प्रशिक्षण पर्याप्त समय देकर कराया जाना अपेक्षित है।
सारांश (Summary)
सूक्ष्म शिक्षण में एक-एक कौशल पर ध्यान केंद्रित होने से व्यवहारिक दृष्टि से उद्देश्यों का विशेषीकरण संभव होता है। सूक्ष्म शिक्षण में 5-10 छात्रों को पढ़ाया जाता है। अतः कक्षा का आकार छोटा होता है। सूक्ष्म शिक्षण में एक-एक कौशल पर पारंगतता प्राप्त की जाती है अतः शिक्षण कार्य अपेक्षाकृत सरल हो जाता है।
सूक्ष्म शिक्षण में प्रतिपुष्टि तत्काल प्रदान की जाती है इससे शिक्षण अधिक प्रभावी होता है। सूक्ष्म शिक्षण में एक समय में अध्यापक एक ही कौशल पर अपना ध्यान केंद्रित करता है और इसकी अवधि छोटी 5-10 मिनिट तक की होती है।
Also Read :
- Micro Teaching in Hindi
- उपचारात्मक शिक्षण (Remedial Teaching) क्या है
- शिक्षण प्रतिमानों (Teaching Model) का वर्गीकरण
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs)
सूक्ष्म शिक्षण चक्र में कितने सोपान होते हैं?
उत्तर : सूक्ष्म शिक्षण चक्र में कुल 8 सोपान होते हैं।
सूक्ष्म शिक्षण चक्र की अवधि क्या है?
उत्तर : एलन एवं रोमन ने इस संपूर्ण सूक्ष्म शिक्षण चक्र की अवधी 45 मिनट की मानी है।
सूक्ष्म शिक्षण चक्र का प्रथम पद क्या होता है?
उत्तर : सूक्ष्म शिक्षण चक्र का प्रथम पद सूक्ष्म शिक्षण का सैद्धांतिक ज्ञान देना है।
सूक्ष्म शिक्षण चक्र क्या है?
उत्तर : सूक्ष्म शिक्षण एक ऐसी तकनीक है जिनमें शिक्षण सामग्री, कक्षा का आकार, समय आदि को सीमित करके प्रशिक्षणार्थी शिक्षण कौशलों का अभ्यास करते हैं। इससे उनके शिक्षण में सुधार आता है।